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किसानों की आय फिर घटी, भारत कैसे बनेगा 5 खरब की अर्थव्यवस्था?

किसानों की आय फिर घटी, भारत कैसे बनेगा 5 खरब की अर्थव्यवस्था?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बजट की आलोचना करने वालों को पेशेवर निराशावादी क़रार दिया। क्या वे ख़ुद बजट के नाम पर जुमलेबाजी कर रहे हैं? 

बजट पेश किए जाने के तुरन्त बाद और इसे बहुत ही अच्छा बजट बताने की सरकार की कोशिशों के बीच ही ऐसी ख़बरें आ रही हैं, जो अर्थव्यवस्था के लिए बेहद बुरी हैं। ताज़ा ख़बर यह है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था बदहाली में है, यह तेज़ी से सिकुड़ रही है। 

इसे प्रधानमंत्री के बजट पर दिए बयान से जोड़ कर देखने की ज़रूरत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बजट के आलोचकों को ‘पेशेवर निराशावादी’ क़रार दिया था। उन्होंने भारत को 2025 तक 5 खरब की अर्थव्यवस्था बनाने का दावा करते हुए कहा था,  ‘महत्वपूर्ण बात केक का आकार है, जब केक का आकार बढ़ेगा तो सबको फ़ायदा होगा। और अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ रहा है।’ 

अर्थव्यवस्था कुल अर्थव्यवस्था की एक तिहाई है, लेकिन यह पिछली तीन तिमाही यानी 9 महीनों में लगातार कम होती जा रही है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था शहरी अर्थव्यवस्था से दूनी रफ़्तार से बढ़ रही थी, लेकिन इसमें कमी आई है।

सिकुड़ती अर्थव्यवस्था

पर ताज़ा आँकड़े बताते हैं कि इस केक का आकार बढ़ नहीं रहा है, बल्कि छोटा हो रहा है, यानी अर्थव्यवस्था पहले से सिकुड़ रही है। दो साल में ऐसा पहली बार हुआ है कि गाँवों में खपत बढ़ने के बजाय कम हुई है। इसकी वजह मज़दूरी और लोगों के पास नकद पैसे का कम होना है। ग्रामीण दिसंबर को ख़त्म हुई तिमाही में यह डेढ़ गुने और मार्च की तिमाही में 1.2 गुने ही बढ सकी। इसकी वजहों में  प्रमुख हैं सरकारी खर्च में कमी, लोगों के पास नकद पैसे की कमी, सरकार की ओर से फ़सल की कम ख़रीद और कम लोगों का पीएम किसान स्कीम का फ़ायदा उठाना। 

उपभोक्ता शोध की दुनिया की सबसे बड़ी समझी जाने वाली संस्था कैन्टर वर्ल्डपैनल ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस साल अप्रैल-मई में भारतीय बाज़ार 3.3 प्रतिशत की दर से बढ़ा है, जबकि पिछले साल इसी अवधि में वह 6.6 प्रतिशत की दर से बढ़ा था। यानी, बाज़ार वृद्धि की दर पिछले साल की दर की आधी हो गई है। इसका मतलब साफ़ है कि खपत में कमी आई है, यानी बाज़ार सिकुड़ रहा है। इसका अर्थ यह हुआ कि अर्थव्यवस्था धीमी हो चुकी है।

गाँवों में माँग कमी

कैन्टर का कहना है कि उपभोक्ता वस्तुएँ बनाने वाली कंपनियाँ साल 2018-19 में 13.6 प्रतिशत की दर से बढ़ी हैं। पिछले साल यह दर 15.2 प्रतिशत थी। डाबर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी मोहित मलहोत्रा ने इकोनॉमिक टाइम्स से कहा, ‘गाँवों में माँग कम हो रही है, अक्टूबर-दिसंबर 2018 से ही यह लगातार कम होती रही है। इस कंपनी की खपत का 45 प्रतिशत गाँवों से निकलता है।’  

इकोनॉमिक टाइम्स के मुताबिक़, आईसीआईसीआई सिक्योरिटीज़ ने अपने अध्ययन में पाया है कि साल 2020 में माँग व खपत और कम होगी, मंदी का माहौल बन जाएगा। बाज़ार  को इससे उबरने में समय लगेगा। 

कम बुवाई, कम कमाई

इसके बावजूद कारपोरेट जगत ने उम्मीदें नहीं छोड़ी थीं। उसे दो चीजों का भरोसा था, मानसून अच्छा होगा और नई सरकार अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की दिशा में कारगर कदम उठाएगी। पर मानसून ने लोगों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया, अब तक औसत से 30 प्रतिशत कम बारिश हुई। इसका नतीजा यह हुआ कि खरीफ फ़सल की बुवाई 25 प्रतिशत कम हुई। उसमें सबसे ज़्यादा असर दलहन पर पड़ा है।

कम बुवाई का असर यह होगा कि उम्मीद से कम पैदावार होगी। पहले से ही ख़राब दौर से गुजर रही अर्थव्यवस्था अधिक दबाव में आ जाएगी। लोगों के पास और कम पैसे होंगे, जिससे खपत और कम होगी, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और सिकुड़ेगी, जिसका असर पूरी अर्थव्यवस्था पर ही पड़ेगा।

बजट ने बची-खुची उम्मीद तोड़ दी। सरकार ने 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का दावा तो किया है, पर यह नहीं बताया कि इसके लिए वह क्या करेगी। सरकार ने यह नहीं कहा कि वह क्या करने जा रही है जिससे अर्थव्यवस्था को बल मिलेगा, वह आगे बढ़ेगी। सरकार ने बजट नें किसी ‘ट्रिगर’ का एलान नहीं किया। न तो माँग बढ़ाने पर ज़ोर है, न खपत बढ़ाने का कोई उपाय किया गया है और न ही रोज़गार सृजन पर कुछ कहा गया है। बजट के ठीक पहले जीएसटी वसूली का जो आँकड़ा आया, उसे निराशाजनक ही कहा जा सकता है। जीएसटी राजस्व 1 लाख करोड़ रुपए से भी कम था, यह लक्ष्य से भी कम था और इसी अवधि में पिछले साल की राजस्व उगाही से भी कम। लेकिन सरकार ने इसे बढ़ाने के लिए कुछ किया हो, यह नहीं दिखता है। ऐसे में यह कहना कि बजट की आलोचना पेशेवर निराशावादी कर रहे हैं, ग़लत है।  

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