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ज़रूरी नहीं कि सरकार लोकप्रिय है तो लोकतांत्रिक भी हो!

ज़रूरी नहीं कि सरकार लोकप्रिय है तो लोकतांत्रिक भी हो!

लोकतांत्रिक मूल्यों वाली सरकारों की क्या पहचान होती है? क्या वोट मिलते रहना और चुनाव जीतते रहना ही काफ़ी है? क्या लोकप्रियता ही पैमाना हो सकता है?

देश की बीजेपी सरकार लोकतंत्र समर्थक या संरक्षक नहीं है, यह तो 2016 के दादरी कांड से ही स्पष्ट हो गया था। जब दिल्ली में भाजपा की सरकार बनने का यह असर हुआ कि दिल्ली के पास दादरी में अखलाक के घर में घुसकर फ्रिज में रखा गया मांस देखा गया। घर में घुसकर मांस देखने और घर के मुखिया की हत्या से सामाजिक स्थिति और उस पर सरकार के रुख से आगे का सरकारी रवैया साफ़ हो चुका था। यह अलग बात है कि जो लोग तब नहीं समझे थे वो अब भी नहीं समझे हैं।

कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह सरकार देश को आरटीआई क़ानून देने वाली पार्टी से बेहतर होने का दावा करके सत्ता में आई थी और आरटीआई से सबसे ज़्यादा तकलीफ़ उसे ही है और उसका हाल यह है कि प्रधानमंत्री की डिग्री तक सार्वजनिक नहीं है। मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री अशिक्षित या निरक्षर भी हो सकते हैं और यह उनका निजी मामला है। लेकिन वो अगर डिग्रीधारी होने का दावा करें तो डिग्री सार्वजनिक क्यों नहीं हो सकती?

पहले संसद में कहे के लिए मुक़दमा नहीं हो सकता था पर ऑथेंटीकेट करने की ज़रूरत भी नहीं होती थी। अब जब संसद में आरोप लगाने और जांच की मांग करने के लिए आरोप को ऑथेंटीकेट करने और सबूत देने की मांग की जा रही है तो प्रधानमंत्री के एंटायर पॉलिटल साइंस में एमए होने की डिग्री विश्वविद्यालय को सार्वजनिक क्यों नहीं करनी चाहिए - आरटीआई क़ानून के बावजूद। पर वह अलग मुद्दा है लेकिन यह बताता है कि सरकार लोकतांत्रिक और पारदर्शी तो नहीं है। पहले वाली जितनी भी नहीं। बाकी कसर आठ साल में एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं करने और जो इंटरव्यू हुए उसमें ‘आम काट कर खाते हैं या चूसकर खाते हैं’ जैसे सवालों से पूरी हो गई।

‘हिन्दुत्व ख़तरे में है’, के प्रचार के कारण लोगों को यह समझ में नहीं आ रहा है कि दरअसल लोकतंत्र ख़तरे में है। यह सरकार ऐसी है जो तमाम सवालों के जवाब नहीं देती है और सिर्फ प्रचार करती है। उदाहरण के लिए, शेल कंपनियाँ बंद कराने का दावा तो किया गया पर अडानी की शेल कंपनियां कैसे चल रही हैं और उनके ज़रिए आया निवेश किसका पैसा है – यह बताया नहीं जा रहा है और इसके लिए जांच की मांग पर सुनवाई भी नहीं है। ये और ऐसे तमाम मामलों को छोड़ भी दें तो इन दिनों असम में बाल विवाह रोकने के नाम पर जो हो रहा है वह भी कम चिन्ताजनक नहीं है।

हज सब्सिडी रोकने से लेकर तीन तलाक़ और ऐसे दूसरे मामलों में कानून बनाना, बदलना और ‘आग लगाने वालों को कपड़ों से पहचाना जा सकता है’, जैसे दावों से सरकार और उसके समर्थक एक धर्म विशेष के खिलाफ होने का प्रचार करते हैं लेकिन सच यह है कि बाल विवाह में हिन्दू भी पिस रहे हैं। वैसे ही जैसे बुलडोजर न्याय में हो चुका है। फर्क सिर्फ यह है कि पहले श्रेय सरकार को जाता था अब दोष अधिकारियों का बताया जा रहा है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि बाल विवाह एक सामाजिक बुराई है और इसे क़ानून के ज़रिए नहीं रोका जा सकता है। 

क़ानून का उपयोग तो सामाजिक तौर पर ग़लत या ग़ैर-ज़रूरी स्थापित होने के बाद ही किया जा सकेगा वरना कितने लोगों और परिवारों के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई की जाएगी। अगर कर भी दिया जाए तो लोकप्रियता का क्या होगा और फिर सरकार कितने दिन रह पाएगी।

अगर किसी सरकार को इसकी चिन्ता नहीं है और वह लगातार अलोकप्रिय काम कर रही है तो जाहिर है वह चुनाव जीतने के लिए कुछ अनुचित करेगी। असम में पुलिसिया कार्रवाई से तबाही मची हुई है और राजनीतिक चातुर्य का इस्तेमाल नहीं होने से पुलिसिया शैली में कार्रवाई का नतीजा यह है कि बाल विवाह के मामले में पॉस्को और बलात्कार के मामले भी ठोक दिए गए हैं।

आज के अख़बारों की ख़बरों के अनुसार गुवाहाटी हाई कोर्ट ने इस मामले का संज्ञान लिया है और आवश्यक आदेश दिए हैं पर सरकार जो कर रही है या होने दे रही है उसका अपना महत्व है। वैसे भी, सरकार जनता की सेवा के लिए है अपनी इच्छा या आदेश थोपने के लिए नहीं। सरकार जनता पर वही आदेश थोप सकती है जो जनता को पसंद हो या मंजूर हो। इसके लिए आवश्यक प्रचार की जरूरत होती है और इसीलिए सरकारी पार्टी के समर्थकों में कई प्रचारक भी होते हैं। लेकिन सत्ता में आने के बाद उनका उपयोग बंद कर देना और पुलिस या कानून के दम पर जबरन अपनी बात मनवाना लोकतंत्र नहीं है।

2014 के बाद से देश में ऐसे कई मामले हुए हैं जिनसे सरकार का लोकतांत्रिक होना ही नहीं, जनहितकारी होना भी संदेह के घेरे में है। इसके बावजूद सरकार लोकप्रिय है तो यह उसकी राजनीति है और ऐसे में जनता का काम है कि वह सरकार, उसके काम और उसकी नीतियों को देखे-समझे और उसी अनुसार वोट दे। उदाहरण के लिए आज के समय में युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है। आप एक सीमा तक ही युद्ध कर सकते हैं और ऐसे में राजनीति से विवाद निपटाना ज्यादा जनहितकारी है लेकिन देशभक्ति दिखाने के लिए सेना को मजबूत करना और उसमें आत्मनिर्भर होना उचित है कि नहीं, यह तो जनता को तय करना है। बहुमत मिलने भर से सरकार मनमानी नहीं कर सकती है। 

सरकार शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा की उपेक्षा कर या उसे कम महत्व देकर युद्ध लड़ने पर ध्यान देगी, देश भक्ति दिखाएगी तो वोट भले मिल जाए पर उन लाखों-करोड़ों लोगों का क्या होगा जो विदेशों में रह रहे हैं, विदेशियों की नौकरी कर रहे हैं आदि। जाहिर है, युद्ध और देश की समी़क्षा की रक्षा ही पर्याप्त नहीं है। नागरिकों की सुरक्षा विदेश में भी ज़रूरी है। तमाम लोग विदेश में इसीलिए हैं कि उन्हें यहां काम नहीं मिला। वहां से कमाकर वे देश में अपने परिवार के लिए पैसे भी भेजते हैं। ऐसे में हम यहां उन लोगों को सुरक्षित करेंगे जो विदेश से आने वाले पैसों पर निर्भर हैं और उन्हें दूसरे देशों के भरोसे छोड़ देंगे जो कमाते हैं। जाहिर है, ज़रूरत युद्ध में मज़बूत होने की नहीं कूटनीति और राजनीति में दुरुस्त होने की है। और बात उस राजनीति पर होनी चाहिए जो पहले होती थी और अब हो रही है।

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