भारतीय मीडिया क्यों नहीं सुन रहा आने वाली क्रांति की आहट?
भारतीय (और पाकिस्तानी) मीडिया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अक्सर होहल्ला करते रहते हैं। लेकिन फिर दूसरी तरफ़ वे एक सावधानी भी बरतते हैं कि उनके लेखन में क्रांति का कोई उल्लेख नहीं होना चाहिए। 'क्रांति' शब्द एक अभिशाप, एक प्रेत, एक पिशाच, एक बोगीमैन के सामान है, जिस से वे ऐसे दूर भागते हैं जैसे किसी प्लेग या महामारी से।
ध्यान भटकाने के लिए, वे सुशांत सिंह राजपूत, रिया चक्रवर्ती, प्रशांत भूषण, जैसे अनावश्यक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, अक्सर झूठ बोलते हैं, और सांप्रदायिकता और अंधराष्ट्रीयता का सहारा लेते हैं। लेकिन क्या यह स्पष्ट नहीं है कि भारत में एक क्रांति आ रही है (हालाँकि यह किस रूप में होगी कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकता है)।
एक नज़र से ही पता चलता है कि भारत में सारी व्यवस्था ध्वस्त हो गयी है। हमारे राज्य संस्थान खोखले बन गए हैं, जबकि जनता की कठिनाइयाँ बढ़ती जा रही हैं- बड़े पैमाने पर ग़रीबी, रिकॉर्ड और बढ़ती बेरोज़गारी (अप्रैल 2020 में सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग द इंडियन इकॉनमी के अनुसार, 12 करोड़ भारतीय अपनी नौकरी खो चुके हैं), बाल कुपोषण के चौंका देने वाले आँकड़े (लगभग हर दूसरा भारतीय बच्चा कुपोषित है- ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार), जनता के लिए उचित स्वास्थ्य सेवा और अच्छी शिक्षा का लगभग पूरा अभाव, खाद्य पदार्थों, ईंधन आदि के मूल्य में वृद्धि, किसानों की आत्महत्याओं का जारी रहना आदि।
यदि अर्थव्यवस्था अच्छी हो तो आम तौर पर सब कुछ अच्छा होता है, लेकिन अर्थव्यवस्था डूब रही है। कोविड लॉकडाउन से पहले भी यह एक भयानक स्थिति में थी (ऑटो सेक्टर, जो अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य का एक संकेतक है, वहाँ भी 30-40% बिक्री में गिरावट दर्ज की गई थी)। लॉकडाउन के बाद इसमें और ज़्यादा गिरावट आई। भारत में जीडीपी अप्रैल-जून 2020 की तिमाही में 23.9% कम हो गई है और उद्योग धंधे एक भयानक स्थिति (विशेष रूप से छोटे और मध्यम व्यवसाय) में हैं।
इस अंधेरे से नागरिकों में निराशा फैलती है जो अशांति की राह पकड़ सकती है। लेकिन हमारे राजनेता केवल राम मंदिर और आने वाले चुनावों को कैसे जीता जाए के बारे में सोचते हैं।
हमारा राष्ट्रीय उद्देश्य तेज़ी से औद्योगीकरण होना चाहिए और उत्तरी अमेरिका, यूरोप, जापान और चीन की तरह एक आधुनिक औद्योगिक देश बनना होना चाहिए। लेकिन इसके लिए एक आधुनिक दिमाग़ वाले राजनीतिक नेतृत्व की आवश्यकता है, जैसा कि जापान में 1868 में मीजी बहाली के बाद हुआ। दुर्भाग्य से भारतीय राजनेताओं को भारत में तेज़ी से औद्योगिकीकरण करने में दिलचस्पी नहीं है।
उनका एकमात्र उद्देश्य अगला चुनाव जीतना है, और क्योंकि भारत में चुनाव हर 6-9 महीने में किसी न किसी राज्य में होते ही हैं (अगले नवंबर को बिहार में), उनका एकमात्र ध्यान उसी पर केंद्रित होता है। और क्योंकि संसदीय या विधानसभा चुनाव बड़े पैमाने पर जाति और सांप्रदायिक वोट बैंक पर चलते हैं, इसलिए हमारे राजनेता जाति और धर्म के आधार पर समाज का ध्रुवीकरण करते हैं और सांप्रादियक नफ़रत फैलाते हैं।
जातिवाद और सांप्रदायिकता सामंती ताक़तें हैं जिन्हें भारत को अगर प्रगति करनी है, तो नष्ट करना होगा, लेकिन संसदीय चुनाव उन्हें और सशक्त बनाते हैं। इसलिए यह स्पष्ट है कि हमें ढूंढना होगा यानी एक राजनीतिक प्रणाली जो तीव्रता से औद्योगिकीकरण को बढ़ावा दे, और यह केवल एक क्रांति से संभव है, जैसा कि मेरे लेख में कहा गया है - 'India’s moment of turbulent revolution is here' जो firstpost.com पर प्रकाशित है।
हमारे राजनैतिक नेताओं को इस बात का बोध नहीं है कि राष्ट्र के सामने बड़े पैमाने पर मुद्दों को कैसे सुलझाया जाए, और इसलिए भारत में अराजकता का दौर आ रहा है, जैसा कि 1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद के मुग़लों के राज में हुआ था। लेकिन प्रकृति को वैक्यूम पसंद नहीं है। अराजकता हमेशा के लिए जारी नहीं रह सकती। वर्तमान प्रणाली का कुछ विकल्प जल्द या बाद में ही सही पर उत्पन्न होना अवश्यम्भावी हैI ऐतिहासिक अनुभव से पता चलता है कि क्रांतियाँ तब होती हैं जब करोड़ों लोग इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि किसी भी तरह से अब पुराने तरीक़े से रहना असंभव है। यह स्थिति भारत में तेज़ी से आ रही है। हमारा मीडिया शुतुरमुर्ग की तरह बर्ताव करना जारी रख सकता है, आने वाली आँधी से आँखें मूंद सकता है, लेकिन फिर इन्हें बोलने की आज़ादी का मंत्र जपने का कोई अधिकार नहीं जब वह क्रांति की बात करने वालों की आवाज़ दबा रहे हैं।