कहाँ तो पिछले साल महामारी की मंदी से निकल कर इस साल अर्थव्यवस्था में आने वाले उछाल की बातें हो रही थीं। कहाँ लड़ाई, रुकती सप्लाई और महँगाई के कारण दुनिया भर में मंदी का माहौल पैदा हो गया है। अमेरिकी राष्ट्रीय ख़ुफ़िया विभाग के निदेशक एवरिल हेन्स का कहना है कि राष्ट्रपति पुतिन का मंसूबा यूक्रेन में लंबी लड़ाई लड़ने का है। पुतिन के विजय-दिवस भाषण पर मॉस्को के अख़बारों में छपी टिप्पणियों से भी यही संकेत मिल रहा है। इधर यूरोप के देश भी रूस के ख़िलाफ़ लामबंद होते जा रहे हैं। अभी तक सामरिक गुटबाज़ी से परहेज़ करने वाले स्वीडन और फ़िनलैंड जैसे देश नाटो में शामिल होने के आवेदन कर चुके हैं।
यूरोपीय संघ ने फ़ैसला किया है कि रूस के कच्चे और संशोधित तेल का आयात छह माह के भीतर पूरी तरह बंद कर दिया जाएगा। यूक्रेन का कहना है कि वह अपनी ज़मीन से होकर यूरोप को गैस पहुँचाने वाली कुछ पाइपलाइनों को बंद करने वाला है। यूक्रेन युद्ध के कारण यूरोप में गैस के दाम बढ़कर चार से पाँच गुणा हो चुके हैं। गैस पाइपलाइन बंद करने से उनमें और भी उछाल आएगा और यूरोप के देशों में महँगाई को लेकर मचा हाहाकार और बढ़ जाएगा। यूक्रेन के दक्षिण में कालासागर तट की बंदरगाह ओडेसा पर रूसी बमबारी तेज़ होती जा रही है। यूक्रेन के लगभग सारे अनाज और खाने के तेल का निर्यात ओडेसा से होता रहा है। इसके बंद होने से दुनिया भर में अनाज, खाने के तेल और पशुचारे के दाम और बढ़ेंगे।
यूक्रेन और रूस दोनों गेहूँ, तिलहन, खाद्यान्न, पशुचारे के सोया और मकई के प्रमुख निर्यातक रहे हैं। युद्ध की वजह से दुनिया भर में अनाज और खाने के तेल के साथ-साथ मांस, अंडे और मुर्गियों के दाम भी बढ़ गए हैं क्योंकि पशुचारे में इस्तेमाल होने वाले सोया और अनाज के दाम बढ़े हैं। लड़ाई के निकट भविष्य में थमने की संभावना क्षीण होने के कारण ऊर्जा और खाद्य सामग्री की महँगाई कम होने की भी कोई आशा नहीं दिखाई देती। ऊपर से चीन में कोविड की नई लहर के कारण शंघाई और बीजिंग जैसे उद्योग और निर्यात के प्रमुख केंद्र बंद चल रहे हैं जिससे हर तरह के तैयार माल की सप्लाई में रुकावट पैदा हो गई है। इससे कंपनियों की लागत बढ़ रही है जो महँगाई को बढ़ा रही है।
महामारी के बाद खुलती अर्थव्यवस्थाओं में बढ़ती माँग, यूक्रेन युद्ध की वजह से उपजे खाद्यान्न और ऊर्जा के संकट, चीन में कोविड की लहर की वजह से रुकी माल सप्लाई और समस्याओं पर काबू पाने के लिए केंद्रीय बैंकों द्वारा बढ़ाई जा रही ब्याज दरों की वजह से पूरी दुनिया में महँगाई का और मंदी का संकट खड़ा हो गया है।
बिल गेट्स का मानना है कि यूरोप और अमेरिका एक बार फिर मंदी की चपेट में आ सकते हैं। अमेरिका में महँगाई ने 40 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है और उसके शेयर बाज़ारों में भूचाल सा आया हुआ है। बड़ी टैक कंपनियों का शेयर सूचकांक नासडैक 30 प्रतिशत से ज़्यादा गिर चुका है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने इस साल की आर्थिक विकास दर के अनुमान को घटा कर 3.6 प्रतिशत कर दिया है। खनिज तेल, गैस और खाद्य पदार्थों की महँगाई की वजह से कई देशों का भुगतान संतुलन बिगड़ गया है।
मुद्रा कोष के अनुसार दुनिया भर में कर्ज़ का बोझ बढ़कर 70 लाख करोड़ डॉलर पार कर पूरी दुनिया की जीडीपी के बराबर पहुँचने को है। अकेले अमेरिका पर ही 16 लाख करोड़ डॉलर का कर्ज़ है। दक्षिण एशिया के सबसे समृद्ध और विकसित माने जाने वाले श्रीलंका में अराजकता जैसी स्थिति चल रही है। पाकिस्तान में भुगतान न मिल पाने के कारण चीन की दो दर्जन से ज़्यादा बिजली कंपनियों ने कारोबार बंद कर देने की धमकी दे दी है। डॉलर सारे रिकॉर्ड तोड़कर 190 पाकिस्तानी रुपए का हो चुका है। नेपाल की आर्थिक स्थिति भी नाज़ुक है।
भारतीय रुपया भी तेज़ी से गिर रहा है। पिछले दो-तीन दिनों के भीतर ही रुपए के दाम डॉलर की तुलना में 5 प्रतिशत से ज़्यादा गिर चुके हैं। मुद्रा व्यापारियों और अर्थशास्त्रियों का मानना है कि डॉलर 80 रुपए का होने जा रहा है। भारत अपनी खपत का 80 प्रतिशत तेल और गैस आयात करता है। इसलिए तेल की क़ीमतों में आने वाले तेज़ उछाल का सीधा असर भारत के भुगतान संतुलन पर और रुपए के दामों पर पड़ता है। रुपए के दाम गिरने से तेल का बिल और बढ़ता है जिससे बजट भी गड़बड़ाता है। इस बार भारत को खाने के तेल के भी ऊँचे दाम चुकाने पड़ रहे हैं। रुपए के दाम गिरने से विदेशी निवेशकों के निवेश के दाम भी गिरते हैं। दूसरी तरफ़ अमेरिका के बोंड सस्ते हो रहे हैं जिसकी वजह से उनमें ज़्यादा मुनाफ़ा है और जोखिम भी नहीं है। यही कारण है कि विदेशी निवेशक भारत से पैसा निकाल कर अमेरिकी बोंडों में लगा रहे हैं।
व्यापार घाटा बढ़ने और विदेशी निवेशकों की बिकवाली का असर भारत के विदेशी मुद्रा भंडार पर भी दिखाई दे रहा है जो घट कर 600 अरब डॉलर से नीचे आ गया है। रुपए की गिरावट और विदेशी निवेश का पलायन रोकने के लिए रिज़र्व बैंक ने ब्याज दरें बढ़ाई हैं।
लेकिन अर्थशास्त्रियों का मानना है कि उसका कोई ख़ास असर होने वाला नहीं है। ब्याज दरें बढ़ाने से भारत को निवेश के लिए आकर्षक बनाने और रुपए को मज़बूत करने के लिए सरकार को अपने व्यापार और बजट घाटों को कम करना होगा। फ़िलहाल भारत सरकार ने रेटिंग एजेंसियों को भरोसा दिला कर अपनी निवेश रेटिंग बचाने की कोशिशें की हैं। लेकिन यदि भारतीय अर्थव्यवस्था में विश्वास बहाल करना है तो बजट का संयम बनाए रखना, निवेश के लिए खुला और स्थिर माहौल बना कर रखना और महँगाई पर काबू रखना ज़रूरी है।
रुपए के दाम गिरने से भारत के निर्यातकों को ज़रूर फ़ायदा होगा और उनका व्यापार और मुनाफ़ा बढ़ सकता है। लेकिन आयातों के महँगा होने से नुक़सान भी होगा। भारत निर्यात की तुलना में आयात अधिक करता है। इसलिए रुपया गिरने से लाभ की तुलना में नुक़सान ज़्यादा होता है। रुपया गिरने से देश में महँगाई भी बढ़ती है जिसका सीधा असर आम आदमी की ज़िंदगी पर पड़ता है। बाकी दुनिया के महँगाई के संकट और भारत की महँगाई के संकट में एक बुनियादी फ़र्क है। भारत की महँगाई माँग की वजह से नहीं बल्कि तेल के संकट की वजह से है जो कि आयातित है। इसलिए बैंक को ब्याज दरें बढ़ाने के बजाए सरकार को तेल और गैस के आयात का और खाने के तेल के आयात का विकल्प तलाशना चाहिए। दलहल और तिलहन में आत्मनिर्भरता और खनिज तेल की जगह स्वच्छ ऊर्जा के तेज विकास से इस आयातित महँगाई का निदान हो सकता है।