सरकार को पैसे देने का विरोध क्यों किया था पूर्व आरबीआई गवर्नरों ने?

05:25 pm Aug 27, 2019 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

भारतीय रिज़र्व बैंक के पैसे के अतिरिक्त भंडार यानी सरप्लस रिज़र्व से 1.25 लाख करोड़ रुपए सरकार को देने के फ़ैसले से कई सवाल खड़े हो गए हैं। इसे सरकार की जीत और केंद्रीय बैंक के कामकाज में हस्तक्षेप के रूप में देखा जा रहा है। यह मुद्दा बीते साल भर से चल रहा है। पिछले साल अगस्त में यह मुद्दा ज़ोरों से उठाया गया और नंवबर-दिसंबर तक इस पर काफी बावेला मच गया था। वित्त मंत्रालय ने कहा था कि केंद्रीय बैंक अपने रिज़र्व में से 3.60 लाख करोड़ रुपए निकाल कर दे और इस पैसे का नियंत्रण बैंक और सरकार दोनों मिल कर करें।

सरकार का तर्क

उस समय वित्त मंत्रालय का काम अरुण जेटली देख रहे थे। उनका तर्क था कि भारतीय रिज़र्व बैंक दुनिया के सबसे अधिक कैपिटलाइज्ड केंद्रीय बैंकों में से एक है, यानी यह उन चुनिंदा बैंकों में शामिल है, जिनके पास सबसे ज़्यादा अतिरिक्त पैसे पड़े हुए हैं। यह पूरी दुनिया में स्वीकृत औसत रिज़र्व से ज़्यादा है। 

रिज़र्व बैंक के पास इसकी कुल संपत्तियों का 28 प्रतिशत रिज़र्व है जो पूरी दुनिया मे सबसे अधिक है। यह अमेरिका, ब्रिटेन, अर्जेंटीना, फ्रांस और सिंगापुर के रिजर्व बैंक से ज़्यादा है। 

सरकार का तर्क था कि आर्थिक पूंजी ढाँचा यानी बैंक का रिज़र्व और उसमें से पैसे निकाल कर सरकार को देने का जो अनुपात है वह बहुत ही दकियानूसी, पुराना और एकतरफ़ा है. उसमें जोखिम का सही आकलन नहीं किया गया है और सरकार की रजामंदी भी नहीं है।

इसके उलट रिज़र्व बैंक का कहना था कि उसके रिज़र्व से पैसे निकालने से आर्थिक स्थिरता का ख़तरा होगा। उसने यह तर्क भी दिया था कि सरकार की आमदनी नहीं बढ़ेगी, उसके पैसे नहीं बढ़ेंगे। उसके पास जो पैसे होंगे, वह बाहर से हस्तांरित किए गए पैसे होंगे। 

मालेगाम कमेटी

सरप्लस रिज़र्व का यह मामला इससे भी पुराना है। वाई. एच. मालेगाम की अध्यक्षता में बनी कमेटी ने 2013 में अपनी रपट में कहा था कि रिज़र्व बैंक को चाहिए कि वह अपनी परिसंपत्ति बढ़ाने के लिए और आपातकाल से निपटने के लिए फंड के लिए ज़रूरी पैसे रख कर पूरा पैसा केंद्र सरकार के दे दे, यानी इसे पूरा सरप्लस रिज़र्व ही दे देना चाहिए, क्योकि इसे इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। 

राकेश मोहन कमेटी

इसके पहले डिप्टी गवर्नर राकेश मोहन की अगुआई में बनी कमेटी ने अपनी रपट इस पर दी थी। उस कमेटी ने केंद्रीय बैंक के सरप्लस रिज़र्व से पैसे निकाल कर केंद्र सरकार को देने की प्रवृत्ति को ख़तरनाक बताया था और उसके ख़िलाफ़ चेतावनी दी थी। उस समिति का भी यही कहना था कि इससे देश की मौद्रिक स्थिरता पर बुरा असर पड़ेगा। 

बिमल जालान कमेटी

केंद्रीय बैंक के पूर्व गर्वनर बिमल जालान की अगुआई में 6 सदस्यों की एक कमेटी बनाई गई थी और उसे इस पर सुझाव देने को कहा गया था। बिमल जालान कमेटी ने भी यही कहा था कि सरप्लस रिज़र्व से पैसे निकाल कर केंद्र सरकार को दिए जाएँ। लेकिन इस कमेटी में राकेश मोहन भी थे और उन्होंने पहले की तरह इस बार भी इसका विरोध किया था। 

सुब्बाराव का विरोध

बीते साल रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव ने भी इसका यह कह कर विरोध किया था कि यह रिज़र्व बैंक पर सरकार का 'छापा मारना' है। उन्होंने कहा कि 'सरकार परेशान है, हमें सरप्लस रिज़र्व बैंक से पैसे निकालने के बारे में काफ़ी चौकन्ना रहना होगा।' 

दुनिया में कहीं भी, कोई भी सरकार केंद्रीय बैक के बैलंस शीट पर छापा मारे, यह अच्छी बात नहीं है। यह दिखाता है कि सरकार एकदम परेशान है।


डी. सुब्बाराव, पूर्व गवर्नर, रिज़र्व बैंक

उर्जित पटेल का इस्तीफ़ा

रिज़र्व बैंक के गवर्नर पद पर रहते हुए ही उर्जित पटेल ने सरप्लस रिज़र्व से पैसे देने का ज़ोरदार विरोध किया था। इस्तीफ़ा देते हुए उन्होंने इसकी वजह निजी कारण बताया था और वित्त मंत्रालय ने भी उनके कामकाज की तारीफ की थी, पर यह साफ़ था कि वह सरप्लस रिज़र्व के मुद्दे पर ही पद से हट रहे थे। उन्होंने इस्तीफ़े में केंद्रीय बैंक की स्वायत्ता पर ज़ोर दिया था और यह भी कहा था कि देश की मौद्रिक स्थिरता के मामले से जुड़े फ़ैसले रिज़र्व बैंक को ही करने चाहिए। 

उर्जित पटेल के कहने का मतलब साफ़ था, सरप्लस रिज़र्व से पैसे निकालने पर फ़ैसला केंद्र सरकार नहीं, रिज़र्व बैंक करे। इसके पहले वह सरप्लस पैसे सरकार को देने का विरोध यह कह कर चुके थे कि इससे मौद्रिक स्थिरता प्रभावित होगी।

उर्जित पटेल और राकेश मोहन सरप्लस रिज़र्व से पैसे निकाल कर केंद्र सरकार क देने के ख़िलाफ थे, लेकिन मालेगाम और बिमल जालान का मानना था कि सरप्लस रिज़र्व बैंक यानी अतिरिक्त पैसे का बेहतर इस्तेमाल किया जाना चाहिए। लेकिन यह बात तो सभी मानते हैं कि रिज़र्व बैंक से पैसे देने सें केंद्र सरकार की आमदनी तो नहीं बढ़ी क्योंकि मुद्रा प्रणाली में पैसे नहीं जुड़े, पहले से मौजूद पैसे ही यहाँ से वहाँ चले गए। 

पर्यवेक्षकों का कहना है कि इसके राजनीतिक निहितार्थ हैं। केंद्र सरकार फटेहाल है और देश की आर्थिक स्थिति बदहाल, लेकिन उसे संभालने के लिए सरकार के पास न पैसे हैं न कोई कार्य योजना। ऐसे में सरकार इस पैसे का इस्तेमाल दो जगहों पर कर सकती है। वह इसमें से 70 हज़ार करोड़ रुपये निकाल कर सरकारी बैंकों को दे सकती है। इसके अलावा बाकी बचे पैसे से वह ढाँचागत सुविधाओं के विकास की कुछ परियोजनाएँ शुरू कर सकती है। इससे सरकार को साफ़ राजनीतिक फ़ायदा यह होगा कि वह यह दावा कर सकेगी कि उसने अर्थव्यवस्था को संभाल लिया है। पर सिर्फ़ बैंकों में पैसे होने से अर्थव्यवस्था सुधरनी होती तो 2005 के ठीक बाद अमेरिकी अर्थव्यवस्था का जो हाल हुआ, वह नहीं हुआ होता। भारत सरकार कैसे मामला संभालेगी, देखना दिलचस्प होगा।