गेहूँ खरीद के अजीबोगरीब रुख को लेकर जिस ख़तरे की आशंका जताई जा रही थी, उसके संकेत अब साफ़ दिखने लगे हैं। गेहूँ की सरकारी खरीद का जो अनुमान पहले लगाया गया था उससे 50 फ़ीसदी कम ख़रीद की आशंका है। यह 13 साल में रिकॉर्ड होगा। खरीद कम होने का असर अभी से दिखने लगा है और खाद्य सुरक्षा के लिए पीडीएस के तहत कई राज्यों को दिए जाने वाले गेहूँ की जगह अब चावल दिए जाएँगे। तो क्या ये बड़ी समस्या के संकेत हैं? खाद्य सुरक्षा योजना के लिए भी गेहूँ पूरा क्यों नहीं हो रहा? आख़िर सारा गेहूँ गया कहाँ? इससे एक बड़ा सवाल यह भी खड़ा होता है कि क्या कुछ महीने बाद ही गेहूँ के दाम आसमान पर होंगे और क्या खाद्य महंगाई बढ़ने के भी संकेत हैं?
इन सवालों के जवाब से पहले जान लीजिए कि गेहूँ खरीद की स्थिति क्या है और किन वजहों से ऐसे हालात बने हैं।
सरकार ने दो दिन पहले ही मौजूदा रबी खरीद सीजन के लिए अपने गेहूँ खरीद अनुमान को घटाकर 19.5 मिलियन टन कर दिया है। यह पिछले 13 वर्षों में सबसे कम है। जबकि पहले गेहूँ खरीद का अनुमान 44.4 मिलियन टन का लगाया गया था। इसमें कहा गया है कि गेहूं का उत्पादन लगभग 105 मिलियन टन होने का अनुमान है, जो मूल अनुमान से लगभग 6% कम है। तो सवाल है कि जब गेहूँ का उत्पादन मामूली रूप से कम हुआ है तो सरकारी खरीद क़रीब आधी ही क्यों हो पाई?
केंद्रीय खाद्य सचिव सुधांशु पांडे ने कहा है कि खरीद में तेज गिरावट निजी खिलाड़ियों द्वारा भारी खरीद के कारण हुई है। तो यह भारी ख़रीद क्यों हुई? वजह अच्छी क़ीमत है। निजी खरीदार सरकारी दाम से भी ज़्यादा महंगा गेहूँ ख़रीद रहे हैं। सरकारी मंडियाँ खाली दिख रही हैं। तो आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है? क्या गेहूँ की पैदावार कम हुई है या फिर व्यापारी कालाबजारी के लिए गेहूँ खरीदकर जमा कर रहे हैं और क़ीमतें ऊपर चढ़ने पर महंगे दामों पर बेचेंगे? गेहूं खरीद के ऐसे हालात होने का मतलब क्या है?
रिपोर्टें हैं कि यूक्रेन युद्ध और उत्तरी अमेरिका में सूखा पड़ने के कारण गेहूँ की खरीद में ये तमाम बदलाव दिख रहे हैं। ऐसी रिपोर्टें हैं कि यूक्रेन के रूस के साथ युद्ध में फंसने से गेहूँ के इन दोनों प्रमुख निर्यातकों से गेहूं की आपूर्ति गिरी है। यूक्रेन पर रूसी आक्रमण ने वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित कर दिया है। गेहूं उत्पादन में रूस दुनिया में तीसरे स्थान पर है और यूक्रेन आठवें स्थान पर है। इससे दुनिया भर में गेहूँ की मांग में तेजी पकड़ने के आसार हैं।
समझा जाता है कि यूक्रेन और रूस के गेहूँ निर्यात में कमी को भारत ने पूरा करने के लिए क़दम उठाया है। तो क्या गेहूँ का निर्यात कर भारत में एक बड़ा जोखिम उठाया जा रहा है?
केंद्रीय खाद्य सचिव सुधांशु पांडे ने एक संवाददाता सम्मेलन में बुधवार को ही कहा है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए गेहूं की घरेलू मांग को पूरा करने के लिए कोई चिंता नहीं होगी। उन्होंने गेहूं के निर्यात पर कोई रोक लगाने की संभावना से भी इनकार किया क्योंकि किसानों को उनकी उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य से अधिक क़ीमत मिल रही है।
एक रिपोर्ट के अनुसार 15 अप्रैल को केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने घोषणा की थी कि दुनिया का सबसे बड़ा गेहूं आयात करने वाला देश मिश्र इस साल भारत से 1 मिलियन टन गेहूं का आयात करना चाहता है। भारत बढ़ी हुई वैश्विक मांग को भुनाने की कोशिश कर रहा है, जिसमें प्रमुख गेहूं-आयात करने वाले देशों में व्यापार प्रतिनिधिमंडल भेजे गए।
लेकिन इसी बीच गेहूँ की सरकारी खरीद में भारी कमी चिंता पैदा करने वाली है। रिकॉर्ड कम गेहूं खरीद की संभावना के बीच प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना यानी पीएमजीकेएवाई के तहत कुछ राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को गेहूं का आवंटन कम कर दिया गया। कम किए गए गेहूं के कोटे को चावल से पूरा किया जाएगा। संशोधित आवंटन के अनुसार, तीन राज्यों - बिहार, केरल और उत्तर प्रदेश को पीएमजीकेएवाई के तहत मुफ्त वितरण के लिए कोई गेहूं नहीं मिलेगा। इसके अलावा, आठ अन्य राज्यों - दिल्ली, गुजरात, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल का गेहूं का कोटा कम कर दिया गया है। बाक़ी 25 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए गेहूं आवंटन में कोई बदलाव नहीं किया गया है।
किसानों को उपज पर पहले से ज़्यादा पैसे मिलना तो ठीक है, लेकिन निजी ख़रीद बढ़ने पर एक नयी तरह की चिंता पैदा होने के आसार हैं।
विश्व बैंक के कमोडिटी मार्केट आउटलुक ने अनुमान लगाया है कि इस साल गेहूं की क़ीमतों में 40% से अधिक की वृद्धि होगी, जो मामूली रूप से रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुँच जाएगी। तो क्या इसी तरह की बढ़ी हुई क़ीमतों के लिए बड़े व्यापारी गोदामों में गेहूँ को इकट्ठा कर रहे हैं और समय आने पर इसे काफी महंगे दामों पर बेचेंगे? क्या इससे खाद्य महंगाई तेज़ी से नहीं बढ़ेगी? बता दें कि खाद्य मुद्रास्फीति को रोकने के लिए सरकारी स्टॉक काफी अहम होता है।
बाद में ऊँचे दाम पर गेहूँ के बिकने से एक और बड़ी समस्या खड़ी होने की आशंका है। आम तौर पर देखा जाता है कि जब कोई फ़सल की उपज एक सीजन में महंगी हो जाती है तो अगले सीजन में किसान दूसरी फ़सलों की बुवाई कम कर महंगी बिकने वाली उपज की फ़सल पैदा करने की कोशिश करते हैं। इससे दूसरी फ़सलों का रकबा कम हो जाता है और फिर उनकी क़ीमतें बेहद महंगी हो जाती हैं।
ऐसी आशंका है कि जब नवंबर में गेहूँ बोने का वक़्त आएगा तो गेहूँ की ऊँची फ़सल को देखते हुए किसान दूसरी फ़सल वाले रकबे में भी गेहूँ बो देंगे जिससे दूसरी फ़सलें कम हो सकती हैं। और ऐसे में तब खाद्य महंगाई फिर से मुँह बाए खड़ी हो सकती है। क्या यह चिंता सरकार के सामने नहीं होगी या यह कोई चिंता की वजह ही नहीं है?