उर्जित पटेल का रिज़र्व बैंक के गवर्नर पद से का इस्तीफ़ा उनके और केंद्र सरकार के बीच चल रही तनातनी का दुखद परिणाम है। उनके जाने से रिज़र्व बैंक की स्वायत्तता को धक्का लगेगा और वह और कमज़ोर होगा।
रघुराम राजन का कार्यकाल समाप्त होने के बाद जब 4 सितंबर 16 में उर्जित पटेल को बैंक का गवर्नर बनाया गया था तो समझा गया था कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क़रीबी हैं और सरकारी निर्देशों का आँख मूंद कर पालन करेंगे। उनके आने के दो महीनों बाद ही सरकार ने नोटबंदी का फ़ैसला हुआ (जिसका रघुराम राजन विरोध कर रहे थे) और यह माना गया कि उर्जित पटेल अपने-आप कोई स्वतंत्र निर्णय न ले कर सरकारी नीतियों और आदेशों पर मुहर लगाने का ही काम करेंगे।
लेकिन उर्जित पटेल ने जल्दी ही इसे ग़लत साबित किया। उर्जित पटेल के कार्यकाल में देश ने कई घपले देखे। इनमें नीरव मोदी का मामला प्रमुख था। उससे पहले विजय माल्या कई बैंकों को करोड़ों का लोन चुकाए बिना ही देश से भाग गए थे। देश के कई बड़े बैंकों के क़र्ज़ डूब रहे थे। पटेल ने बैंकों के क़र्ज़ देने के तरीक़ों में सुधार लाने के लिए कई बंदिशें लगाईं और बैंकों से कहा कि वे अपने एनपीए (नहीं वसूल होने वाला क़र्ज़) को खाते में दिखाएँ ताकि बैंक की असली वित्तीय स्थिति ज़ाहिर हो। उर्जित पटेल ने क़र्ज़ न चुकाने वालों के ख़िलाफ़ वसूली की क़ानूनी कार्रवाई का समय भी घटा कर 91 दिन कर दिया जिससे कंपनियों का हित देखने वाली सरकार से भी उनके मतभेद हो गए थे।
ब्याज दर पर मतभेद
सरकार यह भी चाहती थी कि रिज़र्व बैंक कंपनियों को दिए जाने वाले क़र्ज़ पर ब्याज दर में कमी करे लेकिन पटेल के नेतृत्व में काम कर रहे रिज़र्व बैंक का मानना था कि ऐसा करने से महँगाई बढ़ सकती है और इससे अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। सरकार क़र्ज़ ले कर चुकाने में नाकाम छोटी और मंझोली कंपनियों के साथ भी रियायत चाहती थी लेकिन पटेल इसपर सहमत नहीं थे। उनके अनुसार बैंकों की स्थिति में सुधार के लिए इस मामले में सख़्ती ज़रूरी है।
पटेल और सरकार के बीच विवाद का एक और मुद्दा तब पैदा हुआ जब वित्त मंत्री ने उनसे रिज़र्व बैंक के पास जमा सरप्लस राशि में से पैसा माँगा ताकि उसको सरकारी योजनाओं में ख़र्च कर सके। सरकार का कहना था कि बैंक को इतनी अधिक सरप्लस रक़म रखने की ज़रूरत नहीं है जबकि पटेल और अन्य बैंक अधिकारियों का मत था कि इस रक़म में कोई कमी नहीं होनी चाहिए क्योंकि देश के आर्थिक संकट में पड़ने पर इसी जमा रक़म से हालात को बिगड़ने से रोका जा सकता है। पटेल और सरकार के बीच इसी तनातनी के बीच 19 नवंबर को रिज़र्व बैंक के बोर्ड की एक बैठक हुई जिसमें एक कमिटी बनाने का निर्णय हुआ जो यह तय करेगी कि रिज़र्व बैंक को कितना पैसा सरप्लस के तौर पर रखना चाहिए। लेकिन इसमें भी सरकार प्रमुख के तौर पर अपनी पसंद लादना चाहती थी।
उर्जित पटेल के बारे में पिछले कई दिनों से यह चर्चा चल रही थी कि वे इस्तीफ़ा दे देंगे। संभवतः उनके इस्तीफ़े में देरी इसलिए हुई कि उनको उम्मीद रही होगी कि बैंक और उनके बीच कोई बीच का रास्ता निकल आएगा। लेकिन हाल के दिनों की घटनाओं से प्रतीत होता है कि सरकार बैंक पर अपनी मर्ज़ी थोपने में सफल रही है। ऐसे में पटेल जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति के पास और कोई रास्ता नहीं बचा और उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया।