अमीर और अमीर, गरीब और गरीब क्यों हो रहे हैं?

01:20 pm Dec 13, 2021 | आलोक जोशी

सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं

दिल पे रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है?

कोई चालीस साल पहले जनकवि अदम गोंडवी ने ये लाइनें लिखी थीं। लेकिन आज भी यह सवाल न सिर्फ़ जस का तस खड़ा है, बल्कि मामला और भी विकट हो गया है। वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट या विश्व विषमता रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत उन देशों में से एक है जहां आर्थिक विषमता या गैर बराबरी सबसे ज्यादा हो चुकी है। देश के दस परसेंट अमीरों की सालाना कमाई देश की कुल कमाई का सत्तावन परसेंट हिस्सा है। इनमें भी सिर्फ़ ऊपर के एक परसेंट लोग देश की बाईस फ़ीसदी कमाई पर काबिज हैं जबकि नीचे की आधी आबादी सिर्फ़ तेरह परसेंट कमाई पर ही गुजारा कर रही है। ये आँकड़े थोड़े और साफ़ समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि अगर आप महीने में बयालीस हज़ार रुपए कमाते हैं तो इस देश की अस्सी परसेंट आबादी आपसे नीचे है यानी आप टॉप बीस परसेंट लोगों में शामिल हैं। और बहत्तर हज़ार रुपए कमानेवाले तो दस परसेंट से भी कम हैं। और इन दस परसेंट लोगों की कमाई नीचे की आधी आबादी यानी कम कमाने वाले पचास परसेंट लोगों के मुक़ाबले बीस गुना है।

अब आप चाहें तो इन आँकड़ों में अपनी जगह देखकर खुश हो सकते हैं। या फिर इस चिंता में हिस्सेदार बन सकते हैं कि आखिर गैर बराबरी बढ़ने की वजह क्या है। जब अंग्रेज भारत से गए उस वक़्त देश के सबसे अमीर दस परसेंट लोगों के पास दौलत और कमाई में करीब आधा हिस्सा था। आज़ादी के बाद की नीतियों और दसियों साल की मेहनत से यह हिस्सा घटकर अस्सी के दशक में पैंतीस से चालीस परसेंट के बीच आया। यानी गरीब और अमीर के बीच की खाई कम होती हुई दिखी। लेकिन इस साल की रिपोर्ट दिखाती है कि यह आंकड़ा फिर बढ़कर सत्तावन परसेंट से ऊपर जा चुका है। यानी अब हाल अंग्रेजों के दौर से भी ख़राब है। और संपत्ति के मामले में तो आँकड़े और भी डरावने हैं।  

देश की कुल संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा सिर्फ़ एक परसेंट अमीरों के पास जमा हो चुका है जबकि दस परसेंट लोगों के पास करीब चौंसठ परसेंट संपत्ति है। नीचे की आधी आबादी के पास कुल छह परसेंट संपत्ति है। औसत लगाएँगे तो हर एक के खाते में छियासठ हज़ार रुपए के आसपास की रक़म आती है। 

और यह मत समझ लीजिए कि पांच लोगों का परिवार हुआ तो यह पांच गुना हो जाएगा। क्योंकि यह रिपोर्ट वर्किंग एडल्ट्स यानी कामकाजी बालिग लोगों को ही गिनती है। यानी यह किसी एक परिवार की पूरी संपत्ति भी हो सकती है और आधी भी। उसमें भी नीचे के लोगों के पास शायद कुछ भी नहीं निकलेगा क्योंकि इन पचास परसेंट लोगों में भी गरीब और ज्यादा गरीब के बीच की खाई काफी गहरी है।

यह एक विकट समय है। कोरोना का असर कमाई पर भी पड़ा है और संपत्ति पर भी। पूरी दुनिया में लोगों की कमाई में गिरावट आई है।

लेकिन इस गिरावट का आधा हिस्सा अमीर देशों और आधा ग़रीब देशों के हिस्से गया है। यानी गिरावट कमाई के हिसाब से नहीं हुई है। अमीर देशों पर इसका असर कम और ग़रीब देशों पर ज़्यादा दिखाई पड़ा है। इनइक्वलिटी रिपोर्ट के मुताबिक़ इसकी ज़िम्मेदारी मुख्य रूप से दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया पर आती है और उसमें भी सबसे ज़्यादा भारत पर। सीधे शब्दों में इसका अर्थ है कि भारत में लोगों की कमाई में सबसे तेज़ गिरावट आई है। हालत यह है कि सन 2020 के आँकड़ों में से अगर भारत का हिस्सा निकालकर देखा जाए तो दिखता है कि बाक़ी दुनिया में नीचे की आधी आबादी की कमाई में हल्की सी बढ़ोत्तरी हुई है। भारत में जो गिरावट आई है उसका ही असर है कि पूरी दुनिया में नीचे की आधी आबादी की कमाई भी और गिरती हुई दिखती है।

संक्षेप में कहा जाए तो अमीर और अमीर हो रहे हैं और गरीब और गरीब। यहां तक कि खुद को मिडल क्लास समझने वाला मध्यवर्ग भी गरीब ही होता जा रहा है। आर्थिक विषमता रिपोर्ट के लेखक इसके लिए अस्सी के दशक के बाद के उदारीकरण और आर्थिक सुधार की नीतियों को ज़िम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है कि जहाँ देश के सबसे अमीर एक परसेंट लोगों को इन नीतियों से काफी फायदा पहुंचा, वहीं मध्यवर्ग और गरीबों की तरक्की उनके मुक़ाबले बहुत कम रही और इसी वजह से ग़रीबी ख़त्म होना तो दूर उलटे और बढ़ रही है।

पुरानी कहावत है कि पैसा पैसे को खींचता है। उसका मुक़ाबला कैसे हो सकता है? जब ग़रीबों को सस्ते में अच्छी शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ मिलें तो फिर वो अपनी गरीबी के बंधनों को काटने के लायक बन पाते हैं।

पढ़ाई उन्हें इस लायक बनाती है और इलाज मिलने से यह भरोसा बनता है कि उनकी तरक्की की कहानी बीच में ही ख़त्म नहीं हो जाएगी। लेकिन इसके लिए सरकारों के पास इच्छाशक्ति भी होनी चाहिए और पैसा भी। इस रिपोर्ट में एक गंभीर चिंता सामने आई है कि पिछले कुछ वर्षों में कई देश तो अमीर होते गए, लेकिन उनकी सरकारें ग़रीब होती गईं। अमीर देशों में तो सरकारों के हाथ क़रीब क़रीब खाली ही हैं, यानी सारी संपत्ति निजी हाथों में ही है। कोरोना संकट ने यह तराजू और झुका दिया जब सरकारों ने अपनी जीडीपी का दस से बीस परसेंट तक कर्ज और उठा लिया। यह कर्ज भी उन्होंने निजी क्षेत्र से ही लिया यानी अब वो अपने देश के अमीरों को इतनी रक़म और चुकाएंगी। विकासशील देशों में अभी तक सरकार के पास पैसे भी हैं और वो ख़र्च भी कर रही हैं लेकिन मार्गरेट थैचर और रोनाल्ड रेगन के दिखाए जिस रास्ते पर अब पूरी दुनिया चल रही है वहाँ ज़्यादा दिन तक इन सरकारों के हाथ में भी कितना पैसा रह जाएगा कहना मुश्किल है। 

कमाई की खाई सिर्फ अमीर और गरीब के बीच ही नहीं है। दूसरी आधी दुनिया यानी महिलाओं की हिस्सेदारी का आँकड़ा भी उतना ही डरावना है। हालांकि हाल ही में भारत की आबादी में महिलाओं की हिस्सेदारी सुधरने का आँकड़ा आया है। लेकिन कमाई के मामले में महिलाओं के हाथ सिर्फ़ अठारह परसेंट हिस्सा ही लगता है। बाक़ी बयासी परसेंट मर्दों के कब्जे में है। हालाँकि 1990 के दस परसेंट के मुक़ाबले इस मोर्चे पर भारत में कुछ सुधार हुआ है लेकिन दुनिया के मोर्चे पर हम सिर्फ़ अरब देशों से ही बेहतर हो पाए हैं जहाँ यह आँकड़ा आज भी 15 परसेंट है। चीन को छोड़कर बाक़ी एशिया का औसत भी इक्कीस परसेंट है जबकि दुनिया का आँकड़ा पैंतीस परसेंट है।

यह रिपोर्ट दुनिया के जाने माने अर्थशास्त्री मिलकर तैयार करते हैं जिनमें थॉमस पिकेटी जैसा नाम भी शामिल है। इस बार रिपोर्ट की प्रस्तावना लिखी है नोबल विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी और एस्थर दूफ्लो ने। उनका कहना है कि सरकारों की नीतियों ने ही गैर बराबरी पर लगाम कसी थी, और नीतियों ने इसे बेलगाम छोड़ दिया है। यह रिपोर्ट एक बार फिर साफ़ करती है कि इसे सुधारने के लिए बड़े नीतिगत बदलाव की ही ज़रूरत होगी। उनका यह भी कहना है कि कई बार समाधान हमारे हाथ में ही होता है, या फिर उसे तलाशने का रास्ता आसान होता है। ज़रूरत इस बात की है कि इस रिपोर्ट को ध्यान से पढ़ा जाए, इसमें दिए गए सुझावों को जितनी दूर तक संभव हो पहुँचाया जाए और उनपर अमल करने का दबाव बनाया जाए। यह सब जल्दी करना ज़रूरी है। इससे पहले कि दुनिया की आर्थिक और दूसरी ताक़त भी एक छोटे से छोटे समूह के हाथों में इतनी केंद्रित हो जाए कि फिर उससे मुक़ाबला करना असंभव ही हो जाए।

(हिंदुस्तान से साभार)