ऋषि सुनाक का प्रधानमंत्री बनना अगर दिवाली के दिन की शुभ ख़बर है तो उसके आगे-पीछे भी जानना चाहिए। और अभी डेढ़ महीने पहले इसी ब्रिटिश प्रधानमंत्री की रेस में हारे भारतीय मूल के सुनाक अगर दोबारा अपने कंजर्वेटिव पार्टी के सांसदों का भरोसा जीतने में सफल रहे हैं तो इसलिए कि उन्होंने अर्थव्यवस्था को लेकर कभी झूठ का सहारा नहीं लिया जबकि बिगड़ती हालत में वह बोरिस जॉनसन सरकार के वित्त मंत्री थे। बोरिस जॉनसन की विदाई अपने कुछ साथियों के आचरण से ज़्यादा झूठ पकड़े जाने और बिगड़ते आर्थिक हालात के चलते हुई। ब्रिटेन सदी की सबसे ऊँची मुद्रास्फीति दर झेल रहा है।
पिछली बार ऋषि सुनाक को पराजित करने वाली लीज ट्रस की विदाई भी उनके भरोसेमंद वित्त मंत्री द्वारा पेश ग़लत क़दम वाले मिनी बजट और फिर महंगाई को लेकर झूठ बोलने के चलते हुई। महंगाई वैसे ही बहुत ज्वलनशील पदार्थ है। उसमें झूठ का तड़का लग जाए तो उसमें जाने कौन न जल जाए। ब्रिटेन ही अकेला उदाहरण नहीं है। यूरोप में ही कई बदलाव हो गए। दुनिया भर में महंगाई है और इस आधार पर अनेक लोग मंदी की आहट सुन रहे हैं। महंगाई से मांग गिरती है, मांग से उत्पादन गिरता है, उत्पादन गिरने से बेरोजगारी बढ़ती है और अर्थव्यवस्था को मंदी दबोच लेती है।
अमेरिका भी महंगाई से त्रस्त है। लेकिन वह एक तरह से इसे संभालने की कोशिश कर रहा है (सुनाक भी वही सब करने वाले हैं)। बैंक दरों में बार-बार की बढ़ोतरी करके अमेरिका मुद्रा की आपूर्ति घटाते हुए क़ीमतों पर अंकुश लगाने की कोशिश कर रहा है। बार-बार इसलिए कि वह एक बार की प्रतिक्रिया देखकर ही दूसरा क़दम उठाना चाहता है। इसके चलते दुनिया भर के मुद्रा बाजार में धन की कमी महसूस हो रही है- हमारे बाजार भी उससे प्रभावित हैं। बल्कि हमारे यहाँ खेती के उत्पादन से लेकर सेवा क्षेत्र और कारखाने के उत्पादन तक की स्थिति मोटा-मोटी ठीक है। लेकिन कहीं न कहीं बाहरी दबाव को संभालने की अकुशलता और आर्थिक/वित्तीय फ़ैसलों की जगह राजनैतिक मसलों को ध्यान में रखकर किए जाने वाले फ़ैसले हमारी स्थिति भी बिगाड़ रहे हैं।
वैश्विक मुद्रास्फीति के साथ तेल की क़ीमतें और डॉलर का बढ़ता मोल भी हमारी अर्थव्यवस्था पर दबाव बना रहा है। भूमंडलीकरण के बाद से हमारी अर्थव्यवस्था/जीडीपी में विदेश व्यापार का हिस्सा 15 फीसदी तक पहुँच गया है। तो हम बाहर की हलचल से अछूते नहीं रह सकते।
अमेरिका और यूरोप के बदलाव तो हमें और भी प्रभावित करते हैं। अमेरिका बड़े देशों में हमारा व्यापार का सबसे बड़ा भागीदार है। और ऐसा भागीदार है जिसको हम निर्यात ज़्यादा करते हैं। लेकिन हाल के समय में हमारा निर्यात गिरने लगा है।
मुद्रास्फीति के चलते हमारे सामान की मांग कम हो गई है। दूसरी ओर तेल का बिल संभाले नहीं संभल रहा है और सरकार किफायत करना जानती नहीं।
और खेती के अनाज से भरे गोदाम का कुछ हिस्सा मुनाफे वाली दर से बेचने का अवसर आया तो सरकार ने चावल-गेहूं के निर्यात पर रोक लगा दी। बाद में चीनी को भी इसी सूची में शामिल किया गया। और जब महंगाई और रिजर्व बैंक द्वारा लागू लक्षित मुद्रास्फीति का सूचकांक लाल सिग्नल देता रहा तब रिजर्व बैंक ने बैंक दरों में बढ़ोतरी नहीं की। जब चीजें कुछ बेहतर लगीं तो रेट बढ़ाए गए। और माना गया कि निर्यात रोकना, बैंक दर बढ़ाना और पेट्रोलियम पदार्थों की कीमत में पहली बार हल्की कमी करने का फ़ैसला राज्यों के चुनाव के मद्देनजर लिया गया।
सरकार चुनाव से डरे और वह महंगाई के सवाल पर चौकस रहे, यह अच्छी बात है। लेकिन अपने यहाँ की यह चौकसी भी राजनैतिक लगती है क्योंकि स्वायत्त रिजर्व बैंक भी सरकार की इच्छा के अनुसार ही चलता दिखता है। लेकिन उससे ज़्यादा चिंता की बात यह है कि सरकार महंगाई से लड़ने की जगह महंगाई के आँकड़ों से लड़ती नज़र आती है। उसने विश्वसनीय आँकड़े जुटाने का काम तो काफी हद तक ठप्प ही कर दिया है और जिस तरह से आँकड़े जुटाए और बताए जाते हैं उनकी विश्वसनीयता संदिग्ध है। 2017-18 में आखिरी उपभोग सर्वेक्षण हुआ था तो उसके सारे आंकड़ों पर सरकार ने ही रोक लगा दी थी। यही कारण है कि अभी भी आईएमएफ़ और विश्व बैंक समेत सारे अध्ययन उससे पहले हुए 2011-12 के उपभोग सर्वेक्षण को ही आधार बनाते हैं। बाद में 17-18 वाले सर्वेक्षण के लीक हुए आंकड़ों से जाहिर हुआ कि गरीबों का अनुपात 2011-12 के 31 फ़ीसदी से बढ़कर 2017-18 में 35 फीसदी हो गया है अर्थात गरीबों की संख्या में 5.2 करोड़ की वृद्धि हो गई है।
आवधिक श्रम बल सर्वे के उपभोग के आँकड़ों को आधार बनाकर संतोष मल्होत्रा और ययाति परिदा ने निष्कर्ष निकाला था कि गरीबों की संख्या में 7.8 करोड़ की वृद्धि हो गई थी।
यह काम मूलत: चुनाव को ध्यान में रखकर किया जाता है लेकिन नुक़सान अर्थव्यवस्था और देश को होता है। जब भरोसे लायक आँकड़े मिलेंगे नहीं तो ग़लती और गड़बड़ी के उपचार के सही क़दम उठाने मुश्किल होंगे। फिर हड़बड़ी में चावल-गेहूँ का निर्यात रोकने जैसे क़दम उठाए जाएंगे। और जो जानकारियाँ रिसकर आ रही हैं वे बताती हैं कि महंगाई बेहिसाब बढ़ी है। इकोनॉमिक टाइम्स का अनुमान है कि जनवरी से अब तक ज़रूरी उपभोग की चीजों की क़ीमतों में औसत 22 फ़ीसदी अर्थात लगभग चौथाई की वृद्धि हो चुकी है। एक सीनियर पत्रकार पुष्प रंजन ने फ़ेसबुक पर पिछली दिवाली और इस दिवाली में सिर्फ़ खुद से खरीदी चीजों की क़ीमत बताई है तो डेढ़ गुने तक का फर्क दिखता है।
खाने के तेल, दलहन और घरेलू सामानों की महंगाई कुछ ज़्यादा ही है। सब्जी, फल वगैरह की महँगाई को मौसमी कह सकते हैं लेकिन इनकी महंगाई को नहीं। लेकिन सरकार द्वारा एक तरफ़ आँकड़े छुपाने और दूसरी तरफ़ आर्थिक सवालों पर भी राजनैतिक फ़ैसले लेने का प्रभाव बहुत उल्टा हुआ है। अनाज निर्यात रोकने के फ़ैसले के चार महीने के अंदर ही उस मोर्चे पर हाहाकार की स्थिति आ गई है। सरकारी खरीद काफी कम हो गई है और मौसम की मार ने तैयार फ़सल का भी नुक़सान कर दिया। फिर वोट दिलाने वाले लोक लुभावन मुफ़्त अनाज योजना ने सरकारी गोदाम खाली करने शुरू कर दिए हैं। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट है कि गेहूं और चावल का भंडार पाँच साल के न्यूनतम स्तर पर आ गया है। गेहूँ का स्टॉक तो न्यूनतम भंडार की ज़रूरत के क़रीब आ गया है। इसलिए इस बार के विधानसभा चुनाव तक तो मुफ़्त अनाज योजना चल सकती है लेकिन उसके बाद नहीं। सच को छुपाना मुश्किल है। और महंगाई जैसे ज्वलनशील को परदे में रखने की कोशिश और ख़तरनाक है। उसे रोकने की कोशिश तो होनी ही चाहिए, आँकड़े रोकने की नहीं।