‘मेक इन इंडिया’ के ज़रिए देश को मैन्युफैक्चिरिंग यानी विनिर्माण क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना देने की घुट्टी पिलाने के सवा 10 साल बाद आखिरकार मोदी सरकार ने मान लिया कि इस मोर्चे पर वह विफल है। ताज़ा आर्थिक सर्वेक्षण में विनिर्मित वस्तुओं के मामले में चीन से आयात पर भारी निर्भरता पर जितनी गहरी चिंता जताई गई है वही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भारत को दुनिया का कारखाना बना देने के बड़बोले दावे की विफलता का कबूलनामा है। इससे साफ़ है कि सालाना दो करोड़ रोजगार देने और हरेक नागरिक के खाते में 15 लाख रुपए जमा करने के वायदे की तरह प्रधानमंत्री मोदी का मेक इन इंडिया संबंधी दावा भी जुमला साबित हुआ है।
गौरतलब है कि सितंबर 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने कलपुर्जों वाले शेर शुभंकर के नीचे खड़े होकर बड़े जोरशोर से ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम के ज़रिए विनिर्माण क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो जाने का सुनहरा ख्वाब दिखाया था। उसके बाद भारत में व्यापार करने संबंधी नियमों में ढील, पूंजी निवेश आकर्षित करने को उद्योगों को लगभग मुफ्त जमीन देने, पर्यावरण नियमों में ढील देने, उद्योगों को उत्पादन से जुड़ा इंसेंटिव सरकार द्वारा देने तथा कर्मचारियों की भविष्यनिधि का पैसा सरकार द्वारा देने सहित सरकारी खजाना डटकर लुटाया गया। दोनों हाथ से जनता का पैसा पूंजीपतियों पर लुटाने के बावजूद विनिर्माण में हमारे पराश्रित ही रहने की पोल आख़िरकार प्रधानमंत्री मोदी के मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनन्त नागेश्वरन ने ही खोल दी।
इसके अलावा कॉर्पोरेट टैक्स को 22 फ़ीसदी तक घटा देने के बावजूद निजी निवेश में तेजी नहीं आई। निजी निवेश 21 से 24 फीसदी के बीच अटका है, जबकि काॅरपोरेट का कुल मुनाफा साल 2022-23 और 2023-24 में 24 लाख 99000 करोड़ रुपए हुआ है। इन्हीं दो साल में व्यापारिक बैंकों ने काॅरपोरेट सेक्टर के कर्ज के 3,79,144 करोड़ रुपए बट्टे-खाते में डाल कर माफ कर दिए हैं। ताज्जुब ये कि बैंकों की इतनी मोटी राशि डूबने के बावजूद आर्थिक सर्वेक्षण उनके चिट्ठे को लगभग घाटारहित बता रहा है।
सर्वेक्षण में महंगाई के माली साल 2026 तक अधिक रहने के अनुमान मध्य एवं निचले तबक़े की चिंता बढ़ाने वाले हैं। सर्वेक्षण के अनुसार सेवाओं संबंधी मुद्रास्फीति यानी महंगाई बेरोकटोक जारी है। इससे साफ़ है कि सेवाओं के महंगी होने का सिलसिला 2026 के बाद भी जारी रह सकता है। सूक्ष्म, लधु एवं मझोले उद्योगों के लिए कठिन सरकारी नियमों में ढील देने की सिफारिश सर्वेक्षण में है। हालाँकि नोटबंदी, अंधाधुंध जीएसटी और कोविड महामारी से चैपट इस सबसे अधिक रोजगार देने वाले इन उद्योगों को पुनर्जीवित करने के लिए मोदी सरकार अब तक कोई ठोस उपाय नहीं कर पाई है।
अब इस क्षेत्र का विनियमन करने और आर्थिक आज़ादी देने का सुझाव इन उद्योगों में बड़े पूंजीपतियों की घुसपैठ की आशंका पैदा कर रहा है। सर्वेक्षण के अनुसार शेयर बाजार में निवेशकों की संख्या 11 करोड़ हो गई है और पिछले पांच साल में उन्हें 40 लाख करोड़ रुपए मुनाफा हुआ है। यहाँ सवाल है कि इतनी सारी दौलत आखिर गई कहां, क्योंकि उसके बाज़ार में आने और मांग बढ़ने का तो कोई बानक दिखाई नहीं दे रहा।
सरकार ने फिर कबूल किया है कि सब्जी, फल, दाल, तेल, अनाज आदि के महंगे होने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। रोजमर्रा ज़रूरत की इन वस्तुओं की महंगाई से जहां आम जनता त्रस्त है वहीं मोदी सरकार कबूल कर रही है कि पिछले दस साल में इनकी सप्लाई बढ़ाकर वह लोगों को राहत नहीं दे पाई।
बेरोजगारी के दंश से पीड़ित देश की कुल आबादी में 65 फीसदी युवाओं के लिए आर्थिक सर्वेक्षण की आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस एवं मशीन लर्निंग के हाथों बेरोजगारी बढ़ने संबंधी चेतावनी अत्यधिक चिंताजनक है।
गौरतलब है कि बीते दिसंबर में ही बेरोजगारी दर देश में सीएमआईई ने 8.2 फीसद आंकी है। अब मुख्य आर्थिक सलाहकार खुद चेता रहे हैं कि एआई से नई नौकरियां घट सकती हैं और पुरानी नौकरियों पर भी खतरा मंडरा सकता है।
इसके अलावा सर्वेक्षण में मोदी सरकार द्वारा जारी निजीकरण को रफ्तार देने के अनेक नए बहाने गढ़े गए हैं। इनमें सरकार के पास पैसे की कमी और निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ने से बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में तेजी आने जैसे बहाने प्रमुख हैं। साथ ही पीपीपी शैली यानी सरकारी और निजी भागीदारी को और बढ़ावा देने की ज़रूरत भी सर्वेक्षण बता रहा है। गौरतलब है कि राजमार्गों से लेकर बैंकों, हवाई अड्डों, बंदरगाहों और सरकारी कारखानों तक मोदी सरकार धड़ल्ले से निजी हाथों में सौंपना चाहती है, लेकिन 2024 आम चुनाव में वोटर द्वारा लोकसभा सीट 240 पर अटका कर बहुमत से वंचित कर देने के कारण सरकार ने फिलहाल ढील दी हुई है।
सर्वेक्षण के अनुसार राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन, राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन और पीएम-गति शक्ति जैसे सुविधा तंत्रों से प्रगति बढ़ी है। वित्तीय बाज़ार नियामकों से भी निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए सुधार करवाए गए हैं। इसके बावजूद कई प्रमुख क्षेत्रों में निजी उद्यम की भागीदारी सीमित होने को चिन्हित करके सर्वेक्षण उसे बढ़ाने की वकालत कर रहा है। इसके लिए सरकारों, वित्तीय बाजार के सेठों, परियोजना प्रबंधन विशेषज्ञों और योजनाकारों को निजी क्षेत्र से तालमेल बैठाने की सलाह सर्वेक्षण दे रहा है। इससे साफ़ है कि गोदी धन्नासेठों को देश के प्रमुख आर्थिक संसाधन सौंपने की मोदी सरकार की नीति आगे भी जारी रहेगी। फिर चाहे वित्त वर्ष 2025-26 में वास्तविक जीडीपी वृद्धि दर 6.3 से 6.8 प्रतिशत के बीच ही अटक जाए।