डर के इस माहौल में कैसे सुधरेगी देश की आर्थिक स्थिति?

09:11 am Jul 02, 2019 | संजय कुमार सिंह - सत्य हिन्दी

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण 5 जुलाई 2019 को संसद में बीजेपी की नरेन्द्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला बजट पेश करेंगी। इससे पहले का बजट पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली पेश करते रहे, जो भले ही अच्छे वकील और राजनेता रहे हों लेकिन अर्थशास्त्री के रूप में उनकी कोई ख्याति नहीं थी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए यूपीए सरकार के बजट पर टिप्पणी की थी तो पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा था कि आर्थिक मामलों पर मोदी की जानकारी डाक टिकट के पीछे लिखने के बराबर है।

मोदी-जेटली की इस जोड़ी ने पाँच साल तक देश चलाया और अब हम आर्थिक स्थिति को देख-समझ चुके हैं। इसमें नोटबंदी जैसी ‘वीरता’ और जीएसटी जैसा यू टर्न शामिल है। यू टर्न तो एफ़डीआई का भी है पर उसका नकारात्मक असर कम ही हुआ होगा। इसलिए उसे अभी छोड़ देता हूँ। फिर भी, पाँच साल का अनुभव यही है कि बीजेपी सरकार के पास योग्य और सक्षम अर्थशास्त्री की भारी कमी है और ‘आरएसएस प्रमाणित’ अर्थशास्त्री तो शायद हैं ही नहीं।

भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बनाए गए अर्थशास्त्री जिस तरह सरकार से किनारा करते हुए गए उससे देश की आर्थिक स्थिति का अंदाजा लग जाता है और जो तसवीर उभरती है वह डरावनी भले न हो पर चिन्ताजनक तो है ही।

राजनीतिक दृष्टि से पूर्व वित्त मंत्री की चुनावी घोषणाएँ भी महत्वपूर्ण हैं और पहला साल होने के नाते भले ही उन्हें पूरा करना मजबूरी नहीं हो पर जब तक ‘एक देश एक चुनाव’ नहीं हो जाता है, देश में चुनाव तो लगे रहेंगे और पुरानी घोषणाएँ लागू न करने का राजनीतिक नुक़सान तो है ही। 
नोटबंदी भले ही आर्थिक रूप से नुक़सानदेह रही हो पर बीजेपी और नरेन्द्र मोदी ने उसका राजनीतिक लाभ उठा लिया तो उत्तर प्रदेश में पार्टी की सरकार बन गई और इससे पाँच साल की सरकार के अलावा दूसरे फायदे भी हुए ही। इसलिए, बजट को लेकर भी सरकार की समस्याएँ कम नहीं हैं। यह अलग बात है कि सरकार को राजनीतिक नुक़सान न हो पर बजट क्या और कैसा होगा यह रहस्य गंभीर है।

आर्थिक मंदी को दुरुस्त करने के लिए कुछ क्रांतिकारी करना बहुत ज़रूरी है। ऐसा क्रांतिकारी काम क्या हो सकता है यह बताना भले मुश्किल हो पर जो भी उपाय सुझाया जाए वह कम ज़रूर लगता है।

आप चाहें सहमत न हों पर पिछले दिनों एक ख़बर आई कि मेरठ के छोले-भटूरे वाले की बिक्री पर नज़र रखी गई और पाया गया कि उसका सालाना टर्नओवर 60 लाख है और इसलिए उसे जीएसटी में पंजीकरण कराना चाहिए पर यह उसने नहीं कराया है।जीएसटी पंजीकरण और उसकी ज़रूरत अलग मुद्दा है। पर सरकार को जीएसटी पंजीकरण कराने वालों की खोज ऐसे करनी पड़ रही है या इस मामले में सरकार की सख़्ती इतनी ज़्यादा है, यह संदेश आम कारोबारियों को हिला देने के लिए काफ़ी है। कम पढ़े-लिखे व्यापारी-कारोबारी भले ही साल में 40 लाख या उससे ऊपर का कारोबार करते हों पर जीएसटी से डरते हैं।

मेरी राय भी यही है कि भटूरे बेचने वाला जीएसटी पंजीकरण कराएगा तो उसके भटूरे महँगे हो जाएँगे, बिल काटने का झंझट होगा, इसके लिए कम से कम एक आदमी और मशीनें आदि भी रखनी पड़ेंगी। नई पीढ़ी के दबाव में साफ़-सुथरा काउंटर एसी के साथ बन जाए तो पूरे कारोबार का तेवर ही बदल जाएगा। फिर बिक्री की गारंटी नहीं रहेगी। जीएसटी रिटर्न और टैक्स जमा कराना अतिरिक्त सिरदर्द है सो अलग। इसके लिए उसे चार्टर्ड अकाउंटेंट की जरूरत पड़ेगी। 

कम पढ़ा-लिखा होने के कारण कारोबारी को जीवन भर यह डर सताएगा कि कहीं सीए ठग न ले, फंसा न दे। यह एक कम-पढ़े लिखे कारोबारी की स्थिति है। ऐसा डरा हुआ आदमी काम करके पैसे कमाएगा, नौकरी देगा या किस तरह गुजर-बसर करेगा

यह हालत अगर कम पढ़े लिखे कारोबारी-व्यापारी की है तो पढ़ा-लिखा कारोबारी भी जीएसटी, टीडीएस, आयकर आदि के लिए सीए के बिना काम नहीं कर सकता है। अपनी सेवा या उत्पाद की क़ीमत बढ़ाना (कई मामलों में 18 प्रतिशत तक) और सरकार के वसूली एजेंट का काम मुफ़्त में करना, बदले में सीए की सेवाएँ लेना और उससे व्यापार के राज की सारी बातें साझा करने की मजबूरी कारोबार के लिहाज से आदर्श स्थिति नहीं कही जाएगी। और इस कारण छोटे मध्यम कारोबार नहीं बढ़ेंगे। जो बढ़ सकते हैं वे भी नहीं। जब आदमी कमाएगा नहीं तो खर्च नहीं करेगा और हर कोई खर्च नहीं करेगा तो आर्थिक स्थिति नहीं सुधर सकती है।

जहाँ तक उद्योग, कारोबार और कारखानों की बात है, डर वहाँ भी है। पश्चिम बंगाल में तो हालात ऐसे बन गए हैं कि लोग कट मनी वापस माँग रहे हैं (और लोगों ने लौटाई भी है)। शुरू में तो यह राजनीतिक काम या सरकारी सुविधाओं के बदले लिए गए पैसे तक ही सीमित था पर क्या कारोबारी अपराधियों और दादा किस्म के लोगों को कमीशन नहीं देते हैं

मुझे नहीं लगता कि इसमें किसी तरह की कमी आई है। दूसरी ओर कमाई में कमी हुई है, कमाना मुश्किल हुआ है और चोरी-बेईमानी की संभावना बहुत कम कर दी गई है। अगर आप काला धन कमाएँगे नहीं तो देंगे कैसे सरकार ने जो उपाय किए हैं उससे काला धन कमाना तो बंद हो गया है पर देना बंद नहीं हुआ है। ऐसे में काले धन से चलने वाली अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित होना ही था। 

आप कह सकते हैं कि अब आयकर का रीफ़ंड बिना रिश्वत आ जाता है। ठीक है। पर कब आएगा यह पता ही नहीं है। जिसका नहीं आया उसका कुछ कर ही नहीं सकते। इसी तरह पहले टीडीएस नहीं कटता था तो चल जाता था। अब अगर काटना ज़रूरी है तो उसकी मुश्किलें हैं। कुल मिलाकर स्थिति ख़राब हुई है। 

सख़्ती और अनुपालन का झंझट बढ़ा है। डर भी है। पर काम उस हिसाब से आसान नहीं हुआ है। और ऐसा नहीं है कि बग़ैर रिश्वत आराम से काम होने लगा हो। दूसरी ओर, रिश्वत देने के लिए काला धन कहाँ है। यह कुछ वैसा ही है कि जब मैंने फ़्लैट ख़रीदा था तो दिल्ली में 100 प्रतिशत सफेद धन देकर फ़्लैट नहीं मिलते थे और मेरे पास काला धन नहीं था, इसलिए मुझे मजबूरी में ग़ाज़ियाबाद में फ़्लैट ख़रीदना पड़ा। अगर यह विकल्प नहीं होता है तो मैंने फ़्लैट नहीं खरीदा होता।

अब अगर लोगों के पास काला धन हो भी (मैं नहीं कह रहा हूँ) तो भी सख़्ती के कारण वे फ़्लैट नहीं ख़रीद सकते और सफेद धन है नहीं। इस तरह धन बिना उपयोग के पड़ा है और संपत्ति बिक नहीं रही है। इसे विकल्प कम होने की स्थिति भी कह सकते हैं।