एक गैर-जिम्मेदार व्यवस्था के घमंड की भेंट चढ़ता देश!
वर्तमान भारत में ‘गैर-जिम्मेदारी’ को ‘परिसंपत्ति’ के रूप में चिन्हित करने की परंपरा आकार ले रही है। भारतीय लोकतंत्र के लगभग हर स्तंभ में यह समस्या आ रही है। गुजरात उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति समीर दवे की बेंच ने एक बलात्कार पीड़िता की गर्भपात से संबंधित याचिका पर सुनवाई करते हुए पीड़िता से बोला, “पहले 14-15 साल की उम्र में शादी और 17 साल की होने से पहले ही बच्चे का जन्म देना सामान्य था।”
यह सही है कि यह बात उन्होंने अपनी मौखिक टिप्पणी में कही न कि अपने निर्णय में लेकिन क्या यह बात सच नहीं है कि न्यायालय और डाइनिंग रूम में अंतर होता है? हल्के फुल्के हंसी मजाक को तो समझा जा सकता है लेकिन ऐसी टिप्पणी निश्चित रूप से न्यायपालिका की छवि को मीलों पीछे ले जाती है। न्यायमूर्ति दवे शायद अभी भी अपनी ‘मौखिक टिप्पणी’ को अंतिम रूप नहीं दे पाए थे इसलिए उन्होंने आगे कहा कि “हम 21वीं सदी में जी रहे हैं, अपनी मां या परदादी से पूछिए, शादी करने के लिए 14-15 साल अधिकतम उम्र थी। बच्चा 17 साल की उम्र से पहले ही जन्म ले लेता था। लड़कियां लड़कों से पहले मैच्योर हो जाती हैं। आप इसे नहीं पढ़ेंगे लेकिन इसके लिए एक बार मनुस्मृति पढ़ें।”
पूरी टिप्पणी पढ़ने के बाद यह नहीं लगता है कि यह उच्च न्यायालय से आयी है, यह तो किसी ‘धार्मिक मठ’ से निकली हुई प्रतीत होती है जो किसी धर्म विशेष के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को लेकर जनता को आश्वस्त करना चाहती है। एक अभिलेख न्यायालय से मनुस्मृति पढ़ने की सलाह भी दुर्भाग्यपूर्ण है। एक ऐसी किताब जिसके आधार पर और जिसकी सहमति से सैकड़ों वर्षों तक दलितों का शोषण होता रहा जो किताब गर्व के साथ ‘अस्पृश्यता’ को वैधता प्रदान करती है और महिलाओं को उपभोग की वस्तु के रूप में चिन्हित करती हो उसे एक बलात्कार पीड़िता को पढ़ने के लिए कहना न सिर्फ असंवेदनशीलता से भरा हुआ है बल्कि यह न्यायालय के संविधान और न्याय की समझ पर भी प्रश्न उठाता है।
भारत के संविधान का ड्राफ्ट तैयार करने वाले संविधान के प्रमुख शिल्पी डॉ बीआर अंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को मनुस्मृति को इसलिए जलाया था क्योंकि यह वंचित वर्गों मुख्यतया महिलाओं और दलितों के ‘शोषण की किताब’ बन चुकी थी जबकि भारत का संविधान अनुच्छेद-17 के माध्यम से ‘अस्पृश्यता’ की समाप्ति की घोषणा करता है और अस्पृश्यता के अंत को मूल अधिकारों के रूप में चिन्हित करता है। सर्वोच्च न्यायालय जिसे उच्च न्यायालय पर अधीक्षण का अधिकार है तत्काल इस संबंध में वैसे ही हस्तक्षेप करना चाहिए जैसा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ‘मांगलिक कुंडली प्रकरण’ में किया गया था। जिन स्थानों पर न्याय और सत्य सर उठाकर चलते हों वहाँ से ऐसी संविधान विरोधी और महिला विरोधी टिप्पणियां आने से चिंता बढ़ने लगती है।
भारत के संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का अभिरक्षक बनाया है, उसकी जिम्मेदारी है कि कुछ भी ऐसा न हो जो प्रस्तावना के आदर्श और संविधान की मूल भावना को चोट पहुंचाए, कुछ भी ऐसा न हो जो सामाजिक न्याय की लड़ाई में बाधा बने। आखिर न्यायपालिका ही तो है जहां से भेदभाव की आशा नहीं की जाती। इसीलिए ऐसी टिप्पणी का सार्वजनिक रूप से वापस लेना अनिवार्य है, नहीं तो तमाम तथाकथित धर्म-गुरु इस ‘टिप्पणी’ को संवैधानिक पीठ के निर्णय की तरह पेश करके समाज में शोषण को बढ़ावा देना शुरू कर सकते हैं।
‘गैर-जिम्मेदार’ व्यवहार केन्द्रीय सत्ता के मूल लक्षण के रूप में भी सामने आया है जिसकी जड़ में वह आभासी विचार है जिसके अंतर्गत सत्तारूढ दल यह मानने लग जाता है कि संचार के साधनों पर कब्जा कर लेने के बाद सम्पूर्ण राष्ट्र के मन मस्तिष्क में वह हर उस विचार को आसानी से आरोपित कर देगा जो उनकी सत्ता को अनवरत काल तक जारी रख सके। जबकि वास्तविकता तो यह है कि लोकतंत्र में नागरिक अधिकारों और सरकारों की शक्ति का समायोजन कुछ इस तरह किया जाता है कि यह एक सुषुप्त ज्वालामुखी के ऊपर स्थित व्यवस्था बन जाती है। मतलब एक ऐसी व्यवस्था जो फिलहाल शांत है और हो सकता है कि वर्षों और दशकों तक शांत रहे लेकिन उसने लावा उगलने के अपने विचार को कभी त्यागा नहीं है।
पिछले कुछ सालों से देश की लगभग हर योजना, सड़क, ट्रेन और प्रोजेक्ट का उद्घाटन यथासंभव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया गया है। यद्यपि इसकी आलोचना की जा सकती है कि जब हर मंत्रालय का एक केन्द्रीय मंत्री उपलब्ध है तो भी रक्षा मंत्रालय से लेकर सड़क और ऊर्जा मंत्रालय तक सभी के उद्घाटन प्रधानमंत्री द्वारा ही क्यों किए जाते हैं। लेकिन इसमें ऐसी कोई बुराई नजर नहीं आती जिससे बाहर न आया जा सके। वह एक चुने हुए प्रतिनिधि हैं और सदन के नेता हैं, वह देश का प्रतिनिधित्व करते हैं और पूरा देश उनकी ओर आशावादी नजरों से देखता है, यही लोकतंत्र का नजरिया है।
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लेकिन लोकतंत्र सिर्फ शक्तियों का ढेर मात्र नहीं है बल्कि यह जिम्मेदारी की रीढ़ भी है जिसे समय समय पर नजर आना चाहिए, सीधा रहना चाहिए और प्रश्नों का सामना करना चाहिए। तमाम ‘प्रायोजित’ तरीकों को अपनाने के बावजूद लोकतंत्र के इस फ्रंट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरी तरह असफल रहे हैं।
बालासोर, ओडिशा में हुई इस सदी की सबसे भीषण ट्रेन दुर्घटना इसका ज्वलंत उदाहरण है। बालासोर में तीन ट्रेनें इस दुर्घटना का शिकार हो गईं। इसमें अबतक 288 लोगों की मौत हो चुकी है और लगभग 1200 लोग बुरी तरह घायल हैं। प्रधानमंत्री ने न स्वयं इस दुर्घटना की जिम्मेदारी ली और न ही अपने रेल मंत्री को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया। नैतिकता के आधार पर रेल मंत्री आश्विनी वैष्णव को स्वयं इस्तीफा दे देना चाहिए था या फिर पीएम मोदी को उनसे इस्तीफा ले लेना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य से जिम्मेदारी लेने के अलावा इस घटना में सब कुछ हुआ। लोगों की जानें गईं, सरकार ने कितना काम किया इसका प्रॉपेगेन्डा चलाया गया, तस्वीरें ऐसे वायरल की गईं जिनसे आभास हो कि ट्रेन दुर्घटना में किसी मुस्लिम या मस्जिद का हाथ है, रेल मंत्री जी के सिसकने का वीडियो भी वायरल हुआ और सबसे विचित्र बात सैकड़ों मौत के बीच न जाने क्यों रेलमंत्री ने ‘भारत माता की जय’ के नारे लगवाये। पूरा भारत अपने देश को प्यार करता है, आखिर कितनी मुश्किल से भारत को आजादी मिली थी लेकिन जब मौत का तांडव चल रहा हो, चीख पुकार से माहौल आंसुओं से भरा हो तब कोई भी नारा जायज नहीं हो सकता। मातम में आखिर कौन नारे लगाता है?
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सरकार की गैर-जिम्मेदारी यह कि उद्घाटन हर जगह करेंगे लेकिन जब जिम्मेदारी लेने का वक्त आएगा और कोई अनहोनी होने पर उसके संबंध में सवाल पूछा जाएगा तब अनंत खामोशी ओढ़ ली जाएगी। मेरी नजर में यह जिम्मेदार सरकार के लक्षण नहीं हैं।
भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर में चल रही जातीय हिंसा को एक महीने से भी अधिक का समय गुजर चुका है। पहाड़ी इलाकों में रहने वाली अल्पसंख्यक जनजाति कूकी और बहुसंख्यक मेइती समुदाय के बीच चल रहे इस हिंसक तनाव में 98 लोग मारे जा चुके हैं और सैकड़ों लोग घायल हैं। मणिपुर की 50% आबादी बहुसंख्यक मेइती से संबंधित है जोकि जनजाति के दर्जे की मांग कर रही है। इसी को लेकर दोनो समुदायों के बीच संघर्ष जारी है। मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह भी मेइती समुदाय से संबंध रखते हैं। यहाँ भाजपा की ‘डबल इंजन’ सरकार है। 4 जून शाम को पश्चिमी इम्फाल के इलाके में एक एम्बुलेंस में भीड़ ने आग लगा दी। इस एम्बुलेंस में 8 साल का एक बच्चा, उसकी 45 साल की माँ और 37 साल की एक रिश्तेदार को जिंदा जला दिया गया। एम्बुलेंस को एस्कॉर्ट कर रहे आईपीएस अधिकारी को भागकर अपनी जान बचानी पड़ी। मरने वाले बच्चे का पिता एक कूकी है और मरने वाली माँ मेइती समुदाय से। एम्बुलेंस जिस रास्ते से जा रही थी वह एक मेइती बाहुल्य क्षेत्र था इसके बावजूद हजारों की संख्या में लोगों ने एम्बुलेंस घेर कर उसमें आग लगा दी।
यह कहना मुश्किल है कि मणिपुर हिंसा में किस समुदाय की ज्यादा गलती है और किसकी कम लेकिन ‘पैटर्न’ यह बता रहा है कि देश के तमाम इलाकों की तरह यहाँ भी अल्पसंख्यक ही टारगेट हो रहे हैं। यह समय आरोप-प्रत्यारोप का तो नहीं हैं लेकिन लोगों को यह पता होना चाहिए कि राज्यों में इस तरह की हिंसा को रोकने के लिए भारत के संविधान में पर्याप्त उपाय किए गए हैं। संविधान का भाग-18 अनुच्छेद-355 के माध्यम से कहता है कि"संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति से प्रत्येक राज्य की रक्षा करे, साथ ही इस बात को भी सुनिश्चित करे कि प्रत्येक राज्य की सरकार संविधान के प्रावधानों के अनुसार कार्य करे।" अनुच्छेद-356 और 365 उन आधारों की व्याख्या करते हैं जिससे आंतरिक संघर्ष झेल रहे राज्य में केंद्र हस्तक्षेप करके सुरक्षा दायित्व निभा सके। यद्यपि एक अन्य पहलू यह भी है कि अनुच्छेद-355 का उपयोग देश के संघीय ढांचे को प्रभावित कर सकता है लेकिन आखिर कैसे अल्पसंख्यक कूकी आबादी का संरक्षण किया जाए विशेषकर तब जबकि भाजपा शासित राज्य सरकार इसे रोकने में पूरी तरह असक्षम रही है।
खबरों के अनुसार केंद्र सरकार अनुच्छेद-355 का इस्तेमाल 5 मई को कर चुकी है इसके बावजूद राज्य में हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है। यहाँ फिर से यह प्रश्न उठता है कि मणिपुर में हिंसा रोकने और आबादी को सुरक्षा प्रदान करने में असफल रहे देश के गृहमंत्री का इस्तीफा आखिर क्यों नहीं लिया जा रहा है?
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने मंत्रियों द्वारा उनके उत्तरदायित्व न निभा पाने की स्थिति में उनसे इस्तीफा क्यों नहीं मांग रहे हैं? आखिर कब तक मंत्री अपनी अपनी जिम्मेदारियों से बचेंगे?
ऐसा ही गैर-जिम्मेदाराना रवैया खेल मंत्री अनुराग ठाकुर का रहा है। कई दिनों से देश की शीर्ष महिला पहलवान खिलाड़ी कुश्ती महासंघ के प्रमुख ब्रजभूषण शरण सिंह की गिरफ़्तारी की मांग कर रही थीं लेकिन न सिर्फ उनकी बातों को अनसुना किया गया बल्कि नई संसद के उद्घाटन के दिन दिल्ली पुलिस द्वारा उन्हे अपमानित भी किया गया, यह बात देश में किसी को पसंद नहीं आयी इस घटना के खिलाफ गूंज पूरे देश से आयी। अब जाकर खेल मंत्री ने 15 जून तक खिलाड़ियों की मांगों को मानने का वादा किया है। पॉक्सो ऐक्ट में नामजद ब्रजभूषण की गिरफ़्तारी नहीं की गई है और खबर यह भी है कि जिस लड़की के बयान के आधार पर पॉक्सो लगाया था उसका बयान बदल दिया गया है। एक नकारात्मक छवि वाले ताकतवर व्यक्ति का गिरफ्तार नहीं किया जाना अंततः यही परिणाम लेकर आया। अपने मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली दुनिया की सबसे मशहूर खिलाड़ियों की शिकायत पर समय रहते कार्यवाही न कर पाने वाले मंत्री को पद पर क्यों बने रहना चाहिए?
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आखिर प्रधानमंत्री को देश की छवि की चिंता है या नहीं? एक व्यक्ति जो महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न का आरोपी है उसे पार्टी से हटाने में क्या दिक्कत हो सकती है? और एक व्यक्ति जो खेल मंत्री है, जो खिलाड़ियों का संरक्षण करने में विफल रहा उसका पद पर बने रहने का क्या नैतिक आधार है?
कार्यपालिका के गैर-जिम्मेदाराना रवैये से निपटने के लिए ‘चुनावी राजनीति’ है। लेकिन मीडिया द्वारा देश को धर्म और जाति के नाम पर भड़काने के खिलाफ कोई उपाय उपलब्ध नहीं हैं। मेनस्ट्रीम टीवी न्यूज चैनलों पर जिस तरह की बहसें चल रही हैं वो प्रतिदिन सैकड़ों वाइपर सांपों के विष के बराबर जहर देश में घोल रही हैं। ताज्जुब की बात तो यह कि देश में पहली बार जहर उगलने को अनौपचारिक सरकारी प्रश्रय प्रदान किया जा रहा है। एक तरफ हिन्दी पट्टी के अखबारों में राहुल गाँधी समेत तमाम अन्य विपक्षी दलों के नेताओं के खिलाफ चरित्र हनन का दौर चल रहा है तो दूसरी तरफ मणिपुर हिंसा जैसी खबरें अखबारों से गायब रहती हैं। हाल में एक टीवी ऐंकर द्वारा बुलंदशहर में शिवलिंग तोड़े जाने को बिना किसी सबूत के मुस्लिमों से जोड़ दिया गया। करोड़ों लोगों द्वारा यह कार्यक्रम देखा गया। लोगों में रोष-गुस्सा और न जाने क्या क्या भाव प्रकट हुए होंगे। अगले दिन बुलंदशहर पुलिस ने बताया किशिवलिंग तोड़ने के लिए चार शराबी जिम्मेदार थे और चारों मुस्लिम नहीं बल्कि हिन्दू थे जिन्होंने नशे की हालत में यह काम कर दिया। एक गैर-जिम्मेदार टीवी एंकर और उसके मालिक के खिलाफ क्यों न ‘राष्ट्रीय सुरक्षा कानून’ लगाया जाए? ऐंकर के अन्य कार्यक्रमों को भी देखा जा सकता है जहां भी संभव हुआ इसने हिन्दू-मुस्लिम लाइन में ही बात की, द्वेष फैलाने के लिए करोड़ों रुपये कमाने वाले इन ऐंकरों को रोका नहीं जाना चाहिए?
मीडिया की आजादी यदि मीडिया को ही खा जाने वाली है तो इसे विनियमित नहीं किया जाना चाहिए? ये एंकर और इनके जैसे कई और सिर्फ इसलिए घृणा फैलाने का इतना साहस जुटा पाते हैं क्योंकि उनके डिनर सत्ता के साथ बैठकर होते हैं संभवतया जिसका आश्वासन ही ‘हर हाल में सुरक्षा’ है। एक ‘गैर-जिम्मेदार सरकार’ एक ‘मृत मीडिया’ को अपनी उंगलियों पर चलाए इससे बुरी हालत किसी लोकतंत्र की नहीं हो सकती।
न्यायपालिका से ही आशा थी कि कार्यपालिका के गैर-जिम्मेदार रवैये और मेनस्ट्रीम मीडिया के विभाजनकारी दृष्टिकोण से सुरक्षा प्रदान करेगी लेकिन पीएचडी स्कॉलर और JNU के छात्र उमर खालिद के जेल में रहते हुए 1000 दिन बीत जाने पर यह आशा भी मरती-मिटती नजर आ रही है। 2020 से दिल्ली दंगों के आरोप में एक हजार दिनों से जेल में बंद उमर खालिद का ट्रायल भी शुरू नहीं हुआ। जब ब्रजभूषण पॉक्सो में नामजद होने के बावजूद जेल के बाहर रह सकता है, खुलेआमचैनल पर एक हत्या को कबूलने के बावजूद जेल के बाहर रह सकता है तो उमर खालिद जैसा स्कॉलर क्यों नहीं? खालिद तो इतना ताकतवर नहीं जितने ब्रजभूषण शरण सिंह हैं! इन सवालों के जवाब नहीं होंगे क्योंकि जवाब तो सवालों के होते हैं साजिशों के नहीं। साजिशें तो सिर्फ तब बोलती हैं जब उनके सामने से पर्दा हटता है।
कोविड के दौरान से देश देख रहा है कि न्यायालय सरकार की बातें मान रहे हैं। न्यायपालिका सरकार को यह एहसास दिलाने में नाकाम रही हैं कि न्याय देने का कार्य न्यायपालिका का है। जिस तरह सरकारी तर्कों को मानकर सर्वोच्च न्यायालय ने कोविड के दौरान यूपीएससी परीक्षार्थियों के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए इससे एक बानगी सामने आयी कि न्यायालय नागरिक हितों की बात सरकारी हितों से ऊपर नहीं रख सकता। जो न्यायालय स्वयं ऑनलाइन सुनवाई कर रहा था वह लाखों परीक्षार्थियों से आशा कर रहा था कि वह देश के कोने कोने में जाकर परीक्षा दें! क्यों? क्योंकि सरकार का पक्ष ही सर्वोच्च पक्ष मान लिया गया। और सरकार ने हमेशा की तरह बड़ी जिम्मेदारी से अपनी ‘गैर-जिम्मेदारी’ निभाई। भारत का लोकतंत्र सदमे में है, चुने हुए प्रतिनिधि उसकी बर्बादी का सामान खुलेआम इकट्ठा कर रहे हैं। सरकार की बात सुनती-मानती संस्था कभी न्याय नहीं दिला पाएगी। जिम्मेदारी तय करनी होगी पुलिस की, जांच कमेटियों की, मंत्रियों और सांसदोंसभी की, तब जाकर देश गैर- जिम्मेदार सरकारों के घमंड की भेंट चढ़ने से बच पाएगा।