राष्ट्रपति चुनाव में यशवंत सिन्हा की यूएसपी क्या? पिछड़ तो नहीं रहे?

03:51 pm Jul 13, 2022 | सत्य ब्यूरो

राष्ट्रपति चुनाव में अब सिर्फ़ पाँच दिन बाकी हैं। 18 जुलाई को होने वाले चुनाव के लिए एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू और विपक्ष के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा में किसका पलड़ा भारी है? द्रौपदी मुर्मू के मुक़ाबले यशवंत सिन्हा आख़िर कहाँ खड़े हैं? विपक्ष के उम्मीदवार की यूएसपी यानी अनूठी विशेषता क्या है जिससे वे चुनाव में सामने की उम्मीदवार को टक्कर दे सकें या जीत दर्ज कर सकें? क्या यशवंत सिन्हा के पास ऐसी कुछ यूएसपी है जैसी मुर्मू की है? जैसे कि मुर्मू आदिवासी हैं और यदि वह चुनी जाती हैं तो वह इस पद पर पहुँचने वाली पहली आदिवासी होंगी।

राष्ट्रपति चुनाव अभियान के लिए यशवंत सिन्हा की यूएसपी क्या है, यह जानने से पहले यह जान लें कि उनकी उम्मीदवारी किस स्थिति में तय हुई। 

जब राष्ट्रपति चुनाव की घोषणा होने वाली थी तो विपक्ष में इसको लेकर सुगबुगाहट हुई। विपक्षी दलों के नेताओं की अलग-अलग बैठकों में एक नाम पर सहमति बनाने की चर्चा चली। जब चुनाव की तारीख़ घोषित हो गई तो विपक्षी दलों में कई नाम आए। सबसे पहले नाम आया एनसीपी नेता शरद पवार का। हालाँकि शरद पवार ने उम्मीदवार बनने से इनकार कर दिया। इसी बीच विपक्षी दलों की ओर से पूर्व प्रधानमंत्री और जेडीएस के नेता एचडी देवगौड़ा का नाम चला। फारुख अब्दुल्ला, गोपाल कृष्ण गांधी का भी नाम चला था। रिपोर्टें आईं कि या तो इन सभी नामों पर सहमति नहीं बन पाई या फिर उन्होंने उम्मीदवार बनने से इनकार कर दिया। इसी बीच यशवंत सिन्हा का उम्मीदवार के तौर पर नाम आया।

जब इतने लोगों के नाम आने के बाद यशवंत सिन्हा का नाम तय भी हुआ तो उनका अभियान इसके ईर्द-गिर्द रहा कि वह विपक्ष की ओर से राष्ट्रपति के उम्मीदवार हैं। 'विपक्ष के राष्ट्रपति उम्मीदवार' में क्या वह गतिशीलता, रोचकता या नाटकीयता है जो 'पहली आदिवासी राष्ट्रपति' उम्मीदवार में है? वह पूर्व में बीजेपी नेता रहे हैं। अटल बिहारी की सरकार में मंत्री रहे थे। मोदी के पीएम बनने के बाद सिन्हा बीजेपी से अलग हो गए और मोदी सरकार की आलोचना करते रहे हैं।

बहरहाल, अब जो सवाल है वह यह है कि यशवंत सिन्हा चुनाव में किस आधार पर समर्थन मांग रहे हैं? वह अपने बयान में प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में संवैधानिक संस्थाओं की स्थिति की बात कर रहे हैं। सोमवार को ही जब वह राजस्थान पहुँचे थे तो उन्होंने कहा, 'पांच साल हम लोगों ने एक खामोश राष्ट्रपति देखा। कई मुद्दों पर प्रधानमंत्री को भी बोलना चाहिए। कम से कम राष्ट्रपति प्रधानमंत्री को बुलाकर देश के वर्तमान हालात पर चर्चा तो कर ही सकते हैं।' उन्होंने कहा कि 'राष्ट्रपति के एक संवैधानिक दायित्व का उतना पालन नहीं हुआ जितनी उम्मीद थी।' 

यशवंत सिन्हा ने बीजेपी और प्रधानमंत्री पर निशाना साधा है। उन्होंने कहा कि ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स जैसी एजेंसियों का इस्तेमाल लोगों को परेशान करने के लिए किया जा रहा है।

कुछ दिन पहले ही सिन्हा जम्मू कश्मीर पहुँचे थे और फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं से मिले थे। उन्होंने तमिलनाडु जैसे दक्षिण भारत के राज्यों में भी पहुँचकर विपक्षी दलों के नेताओं से समर्थन मांगा। इन सभी जगहों पर उन्होंने मोटे तौर पर यही रेखांकित किया है कि यदि वह राष्ट्रपति बनेंगे तो संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग नहीं होने देंगे। लेकिन क्या द्रौपदी मुर्मू जैसी उम्मीदवार से लड़ने के लिए यही काफी है?

द्रौपदी मुर्मू झारखंड की पहली महिला और आदिवासी राज्यपाल थीं। वह ओडिशा की रहनेवाली हैं। 1979 में भुवनेश्वर के रमादेवी महिला कॉलेज से बीए पास करने वाली द्रौपदी मुर्मू ने अपने पेशेवर करियर की शुरुआत ओड़िशा सरकार के लिए क्लर्क की नौकरी से की। तब वह सिंचाई और ऊर्जा विभाग में जूनियर सहायक थीं। बाद के सालों में वह शिक्षक भी रहीं। फिर उन्होंने राजनीतिक करियर की शुरुआत एक पार्षद बनकर की। इसके बाद वह आगे बढ़ती रहीं।

बहरहाल, मुर्मू के आदिवासी होने की वजह से कई विपक्षी दल भी उनको समर्थन देने की बात कह रहे हैं। ओडिशा में बीजेडी, झारखंड में जेएमएम और पश्चिम बंगाल में टीएमसी जैसे दलों को छोड़ भी दें तो महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना बीजेपी की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू को समर्थन करती नज़र आ रही है। यह वही उद्धव ठाकरे हैं जिनकी कुर्सी कथित तौर पर बीजेपी की वजह से चली गई, क्योंकि शिवसेना के ही बागी के साथ उसने सरकार बना ली। उद्धव खेमा ही आरोप लगाता रहा है कि बीजेपी ने महा विकास अघाडी सरकार को गिरा दिया।

बीजेपी की धुर विरोधी ममता की टीएमसी भी द्रौपदी मुर्मू को लेकर दुविधा में है। टीएमसी वह पार्टी है जो विपक्षी उम्मीदवार तय किए जाने को लेकर काफी सक्रिय रही थी।

क्या टीएमसी को डर है कि द्रौपदी मुर्मू का विरोध करने पर पश्चिम बंगाल में अगले साल होने वाले पंचायत चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले आदिवासी मतदाता नाराज़ हो सकते हैं? तो क्या यही वह डर है जो कई विपक्षी दलों को भी सता रहा है? क्या आदिवासी जनसंख्या या मतदाताओं के छिटकने की आशंका में ही विपक्षी दल द्रौपदी मुर्मू के समर्थन में आ रहे हैं? 

पूर्वोत्तर के राज्यों में आदिवासी बहुसंख्यक में हैं, लेकिन ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में भी आदिवासियों की जनसंख्या ठीकठाक है। झारखंड में आदिवासियों की आबादी 26.2 प्रतिशत तो छत्तीसगढ़ में 30.6 प्रतिशत है। ओडिशा में भी 22.8 फ़ीसदी आबादी आदिवासियों की है।

क्या इस तरह का अनुकूल माहौल यशवंत सिन्हा के साथ है? क्या ऐसे राजनीतिक हालात उनके पक्ष में हैं? इन सवालों का साफ़ जवाब तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा जब नतीजा आएगा।