पहले से ही आर्थिक मोर्चे पर परेशान सरकार के लिए कमज़ोर मानसून चिंताएँ बढ़ाने वाला है। मानसून की बारिश अब तक सामान्य से 43 फ़ीसदी कम हुई है। इसका साफ़ मतलब यह हुआ कि इसका असर खेती-किसानी पर होगा। यदि फ़सलें प्रभावित होंगी तो इसका सीधा असर कृषि की विकास दर और जीडीपी पर भी पड़ेगा। बता दें कि कृषि की स्थिति पहले से ही काफ़ी ख़राब है और इसकी वृद्धि दर सिर्फ़ 2.9 फ़ीसदी रही है। जीडीपी विकास दर भी मार्च तिमाही में गिरकर 5.8 फ़ीसदी पर आ गई है। इसका असर तो ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार पर भी पड़ेगा और बेरोज़गारी बढ़ने की आशंका रहेगी। हाल ही में सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 45 साल में रिकॉर्ड बेरोज़गारी है। यानी स्थिति और बदतर हो सकती है।
हालाँकि मौसम विभाग के अनुसार, मानसून के उत्तर में आगे बढ़ने की उम्मीद है क्योंकि चक्रवात ‘वायु’ का असर कम हो गया है जिसने मानसून को आगे बढ़ने से बाधित कर दिया था। अब तक मध्य प्रदेश, राजस्थान, पूर्वी उत्तर प्रदेश और गुजरात के कुछ हिस्सों सहित मध्य भारत तक मानसून को पहुँच जाना चाहिए था, लेकिन अभी महाराष्ट्र तक भी नहीं पहुँचा है। मानसून ने केरल में भी अपनी सामान्य शुरुआत से क़रीब एक हफ़्ते बाद 8 जून को प्रवेश किया था।
मौसम विभाग के अनुसार मध्य प्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और गोवा में 59 प्रतिशत वर्षा की कमी दर्ज की गई है, जबकि पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में 47% की कमी दर्ज की गई है। पूर्वी मध्य प्रदेश में 70 फ़ीसदी, छत्तीसगढ़ में 72 फ़ीसदी और महाराष्ट्र के विदर्भ में 87% कम बारिश हुई है। विदर्भ सूखे से प्रभावित क्षेत्र है और वहाँ से लगातार किसानों के आत्महत्या करने की ख़बरें आती रही हैं।
कमज़ोर अल नीनो की स्थिति में अभी भी मानसून पर छाया पड़ रही है। इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि बारिश जुलाई में सामान्य से भी कम हो सकती है। यानी फ़सलों की बुवाई पर भी इसका असर पड़ेगा।
अधिकतर खेती मानसून पर निर्भर
भारत के कृषि उत्पादन और पूरी अर्थव्यवस्था के लिए मानसून की बारिश काफ़ी ज़रूरी है। मानसून की देरी और कम बारिश कम होने से बुवाई में देरी हो सकती है और फ़सल उत्पादन कम हो सकता है। यह इसलिए क्योंकि खेती का अधिकतर हिस्सा मानसून की बारिश पर ही निर्भर है। इकोनॉमिक सर्वे 2017-18 के अनुसार देश में कुल खेती का सिर्फ़ 34.5 फ़ीसदी क्षेत्र ही सिंचित है, बाक़ी क्षेत्र मानसून की बारिश पर ही निर्भर है।
कृषि विकास दर सिर्फ़ 2.9 फ़ीसदी
कमज़ोर मानसून की ख़बर ऐसे समय पर आई है जब आर्थिक मोर्चे पर सरकार की हालत ठीक नहीं है। बेरोज़गारी 45 साल में सबसे ज़्यादा है। जीडीपी विकास दर मार्च में 5.8 फ़ीसदी पर आ गई और औद्योगिक उत्पादन दर बेतहाशा गिरी है। भारत ने डेढ़ साल में पहली बार दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था का रुतबा खो दिया, जबकि चीन आगे बढ़ गया। चीन की अर्थव्यवस्था ने मार्च तिमाही में 6.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है। देश की आर्थिक विकास दर घटने का मुख्य कारण कृषि और खनन क्षेत्र की वृद्धि दर में कमी है।
ऐसे में ख़राब मानसून होने से स्थिति और भी बदतर हो सकती है। कृषि, वानिकी और मत्स्य पालन क्षेत्र की वृद्धि दर वित्त वर्ष 2018-19 में 2.9 फ़ीसदी रही, जबकि पिछले साल यह पाँच फ़ीसदी थी। खनन व उत्खनन क्षेत्र की वृद्धि दर 1.3 फ़ीसदी रही जबकि उससे पिछले साल यह 5.1 फ़ीसदी थी।
मौसम में हो रहे बदलाव चिंताजनक
भारत में क़रीब आधी आबादी खेती पर निर्भर है। देश के कुल आर्थिक उत्पादन में खेती का हिस्सा क़रीब 17 प्रतिशत है। इस लिहाज़ से हाल के वर्षों में मौसम के व्यवहार में आए तमाम बदलाव चिंताजनक हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का कहना है कि मौसम के रुख़ में यह बदलाव लगातार और तेज़ी से हो रहा है और इसे रोकने के लिए तत्काल क़दम उठाने होंगे। मौसम की मार से खेती को और पेड़-पौधों को जो नुक़सान पहुँच सकता है, वह तो चिन्ता की बात है ही, लेकिन खेती में आने वाली गिरावट और समस्याओं का असर लोगों के जीवन पर आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक तौर पर पड़ता है, जिससे कई और समस्याएँ खड़ी हो सकती हैं।
राष्ट्रीय आर्थिक सर्वेक्षण 2018 में पिछले 60 वर्षों में मौसम के व्यवहार में आए बदलावों की चर्चा करते हुए कहा गया था कि औसत तापमान लगातार बढ़ रहा है और वर्षा में लगातार कमी होती जा रही है। चूँकि मौसम की मार का सबसे ज़्यादा ख़राब असर असिंचित इलाक़ों पर पड़ सकता है, इसलिए कृषि अनुसंधान परिषद ने सिंचाई के विस्तार के लिए बहुत तेज़ी से काम करने की सलाह दी है।