नागरिकता संशोधन विधेयक को केंद्रीय कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। विधेयक के तहत अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू, पारसी, सिख, जैन और ईसाई प्रवासियों को 12 साल के बजाए 6 साल भारत में रहने पर ही यहाँ की नागरिकता मिल जाएगी। इसके लिए उन्हें किसी दस्तावेज़ को दिखाने की ज़रूरत भी नहीं होगी। अब इस विधेयेक को संसद में पेश किया जाएगा।
हिंदू आप्रवासियों को नागरिकता देने की बात
केंद्र में सरकार बनाने के बाद बीजेपी ने बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, म्यांमार जैसे देशों से असम में आने वाले ग़ैर मुसलिम, ख़ासकर हिंदू आप्रवासियों को नागरिकता देने की बात की। इसके पीछे बीजेपी का कहना था कि इन देशों में हिंदुओं समेत दूसरे अल्पसंख्यकों का काफ़ी उत्पीड़न होता है, जिसके कारण वे भागकर भारत में शरण लेते हैं और मानवीय आधार पर ऐसे शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जानी चाहिए। इन देशों से आए मुसलिम शरणार्थियों को इस नागरिकता क़ानून से बाहर रखने के पीछे तर्क यही है कि इन मुसलिम देशों में धर्म के आधार पर मुसलमानों का उत्पीड़न नहीं हो सकता। इसीलिए सिटिज़नशिप विधेयक लाया गया, जिसमें इन देशों से आए हिंदू, सिख, जैन, पारसी, ईसाईयों को नागरिकता देना तय किया गया।
विधेयक पास कराने में जुटी सरकार
मंगलवार को आयोजित बीजेपी संसदीय दल की बैठक में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि नागरिकता विधेयक मोदी सरकार की प्राथमिकता सूची में सबसे पहले है। राजनाथ सिंह ने पार्टी के सांसदों से कहा था कि जब सदन में इस विधेयक को पेश किया जाए तो सभी सांसद सदन में मौजूद रहें।
पूर्वोत्तर में है आक्रोश
नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर पूर्वोत्तर में बेहद आक्रोश है। इस मुद्दे पर पूर्वोत्तर के कई राजनीतिक दलों ने बीजेपी से नाता तोड़ लिया था। पूर्वोत्तर के लोगों का कहना है कि इससे वहां के मूल निवासियों की संख्या में कमी आएगी और आबादी का संतुलन बिगड़ जाएगा। एनडीए शासित राज्यों में नगालैंड तीसरा राज्य है जिसने खुले तौर पर इस विधेयक का विरोध किया है। इससे पहले मिज़ोरम और मेघालय की सरकारें विधेयक का पुरजोर विरोध कर चुकी हैं। त्रिपुरा में बीजेपी के कई नेता इस मुद्दे पर पार्टी छोड़ चुके हैं। असम गण परिषद ने कहा था कि इस विधेयक के क़ानून बनने के बाद बांग्लादेशी हिंदुओं के आने से असम बर्बाद हो जाएगा।