एसवाईएल मुद्दा क्या है, हरियाणा के लिए जिन्दगी-मौत का सवाल क्यों

03:56 pm Apr 05, 2022 | सत्य ब्यूरो

हरियाणा में पानी की उपलब्धता पंजाब के मुकाबले कम है। यही वजह है कि दोनों राज्यों में सतलुज .यमुना लिंक (एसवाईएल) नहर का मुद्दा जीने-मरने का रहा है। हरियाणा की पैदाइश 1 नवंबर 1966 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कलम से हुई थी। लेकिन जब हरियाणा अस्तित्व में आया तो राजधानी चंडीगढ़ समेत पानी का मुद्दा और पंजाब के हिन्दी भाषी इलाकों को हरियाणा को सौंपे जाने का मामला लटका रहा। धीरे-धीरे यह राजनीतिक मुद्दा बन गया। चौधरी देवीलाल ने एसवाईएल के पानी के मुद्दे पर चुनाव तक जीता। यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि हरियाणा और पंजाब में जब भी विपरीत विचारधाराओं वाली सरकारें होती हैं तो अक्सर यह मुद्दा उठता है और लंबे समय तक बना रहता है। 

एसवाईएल का मुद्दा हरियाणा अब भी नहीं उठाता, अगर पंजाब ने पिछले शुक्रवार को चंडीगढ़ उसे सौंपे जाने की मांग विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके न की होती। पंजाब ने यह प्रस्ताव भी पारित नहीं किया होता अगर केंद्र की मोदी सरकार ने केंद्र शासित चंडीगढ़ में सेंट्रल सर्विस रूल्स न लागू किए होते। पंजाब ने इसे सीधे दखल माना। इसलिए पंजाब की आम आदमी पार्टी सरकार ने चंडीगढ़ का मुद्दा उछाल दिया तो हरियाणा ने आज एसवाईएल का मुद्दा उछाल दिया।

एसवाईएल नहर का मुद्दा कई दशकों से पंजाब और हरियाणा के बीच विवाद का विषय रहा है। पंजाब रावी-ब्यास नदी के पानी के अपने हिस्से के पुनर्मूल्यांकन की मांग कर रहा है, जबकि हरियाणा 35 लाख एकड़ फीट पानी के अपने हिस्से के लिए एसवाईएल नहर को पूरा करने की मांग कर रहा है।

हरियाणा के लिए एसवाईएल का मुद्दा बहुत ही महत्वपूर्ण है। दक्षिण हरियाणा का इलाका किसी नदी के अभाव में नहरी पानी से पूरी तरह वंचित है। एसवाईएल नहर पूरी होने पर इसका सबसे ज्यादा फायदा दक्षिण हरियाणा के भिवानी, चरखीदादरी, मेवात, महेन्द्रगढ़, गुड़गांव की प्यास बुझाई जा सकती है। गर्मी में हर साल गुड़गांव में पेयजल को लेकर प्रदर्शन होते हैं। हालांकि फरीदाबाद भी दक्षिण हरियाणा का पार्ट है लेकिन वहां यमुना का पानी रैनीवेल के जरिए लाकर कुछ हद तक कमी को पूरा किया गया है। इसके बावजूद गुड़गांव के बाद फरीदाबाद भी पेयजल संकट से जूझता रहता है। 

सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ था

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में निर्देश दिया था कि एसवाईएल का निर्माण हरियाणा और पंजाब अपने अपने इलाकों में करें। इस पर किसी तरह का आंदोलन छेड़ने की जरूरत नहीं है। 

इसके बाद दोनों पक्षों ने इस पर चुप्पी साध ली। नहर को बनाने के मुद्दे पर कोई प्रोग्रेस नहीं देखी गई। 

इस संबंध में हरियाणा के सीएम मनोहर लाल खट्टर का बयान अगस्त 2020 में देखा गया, जिसमें उन्होंने कहा कि एसवाईएल पर पंजाब को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करना चाहिए।15 जनवरी, 2002 को सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया था कि एसवाईएल नहर का निर्माण पूरा किया जाए।

एसवाईएल पर हरियाणा का बहुत स्पष्ट स्टैंड है कि एसवाईएल नहर का निर्माण और पानी की उपलब्धता का आपस में कोई संबंध नहीं है। पानी का आवंटन पानी की उपलब्धता के आधार पर उसी अनुपात के आधार पर किया जाएगा, जैसा 1981 के समझौते में प्रावधान किया गया था।

हरियाणा यह मानता है कि रावी, सतलुज और ब्यास नदियों का पानी पिछले 10 वर्षों से पाकिस्तान की ओर बह रहा था। केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) ने रावी से 0.58 एमएएफ (मिलियन एकड़ फीट) में इस प्रवाह को मात्राबद्ध किया है, जो धर्मकोट में रावी-ब्यास लिंक के निर्माण की वकालत करता है।

हरियाणा का काम पूरा

212 किमी. लंबी इस नहर का 121 किमी. हिस्सा पंजाब से होकर गुजरेगा जबकि बाक़ी 91 किमी. हिस्सा हरियाणा से। हरियाणा वाली तरफ का काम पूरा हो चुका है और पंजाब की ओर से भी काफी काम पूरा हो चुका था। लेकिन 1988-90 के दौरान आतंकवादियों ने नहर बना रहे कई मज़दूरों और इंजीनियरों को गोली मार दी थी। उसके बाद नहर का काम रुक गया था। 

8 अप्रैल, 1982 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एसवाईएल योजना की शुरुआत पंजाब के पटियाला जिले के कपुरई गांव से किया। एसवाईएल की ज़रूरत हरियाणा के किसानों को ज़्यादा थी लेकिन पंजाब के किसान इसलिए परेशान थे कि अगर हरियाणा को उसके हिस्से का पानी मिल जाएगा तो पंजाब के खेतों के लिए पानी कम पड़ जाएगा।  

विवाद को सुलझाने की दिशा में क़दम बढ़ाते हुए 24 जुलाई, 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष हरचंद सिंह लोंगोवाल के बीच एक समझौता हुआ, जिसके तहत नहर बनाने के लिए पंजाब की ओर से सहमति दे दी गई। लेकिन इसके कुछ दिनों बाद ही आतंकवादियों ने लोंगोवाल की हत्या कर दी थी। 

यह विवाद तब और भड़क गया जब 2004 में पंजाब की तत्कालीन अमरिंदर सरकार ने एक क़ानून बनाकर जल विवाद से जुड़े सभी समझौतों को रद्द कर दिया। इसके बाद शुरू हुआ हरियाणा के लोगों का आंदोलन और दोनों ओर से जमकर बयानबाज़ियां हुईं। हालांकि हरियाणा के सुप्रीम कोर्ट पहुंचने पर अदालत ने 2004 के क़ानून को असंवैधानिक बताते हुए यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दिया था। 

अक्टूबर, 2015 में हरियाणा सरकार एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंची और इस विवाद के समाधान के लिए संवैधानिक बेंच गठित करने के लिए कहा। नवंबर, 2016 में फ़ैसला हरियाणा के पक्ष में आया।