चढ़ूनी हुए नाराज़; आंदोलन से लगे किसान नेताओं की सियासी ख़्वाहिशों को पंख?

01:43 pm Aug 09, 2021 | सत्य ब्यूरो

कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे किसान नेताओं के बीच क्या किसी तरह की दरार पड़ रही है और इस दरार की वजह क्या इनकी सियासी महत्वाकांक्षा है। दरार की बात हरियाणा के किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी के बयानों से समझी जा सकती है। 

भेदभाव का आरोप 

चढ़ूनी ने एक वीडियो जारी कर रहा है कि संयुक्त किसान मोर्चा में पहले दिन से उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि संयुक्त किसान मोर्चा में तानाशाही चल रही है और वे इसे सिर्फ़ इसलिए बर्दाश्त कर रहे हैं कि किसान मोर्चा न टूटे। चढ़ूनी ने कहा कि पंजाब के 32 किसान संगठनों को उनसे बहुत ज़्यादा दिक़्कत है। 

चढ़ूनी का हमला

चढ़ूनी ने कहा कि पंजाब में चुनाव लड़ने की बात पर उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई कर दी गई लेकिन योगेंद्र यादव के समर्थकों ने उत्तर प्रदेश के जिला पंचायत चुनाव में संयुक्त किसान मोर्चा के समर्थन की बात कहकर चुनाव लड़ा, लेकिन यादव के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं हुई। उन्होंने राकेश टिकैत पर भी आरोप लगाए। 

हालांकि चढ़ूनी ने कहा कि वह संयुक्त किसान मोर्चे के हर फ़ैसले का स्वागत करेंगे और आंदोलन में पहले से भी ज्यादा काम करेंगे। चढ़ूनी ने कहा कि वे अब संयुक्त किसान मोर्चे की बैठक में नहीं जाएंगे। 

सवाल यही है कि किसान आंदोलन से क्या चढ़ूनी सहित कुछ और किसान नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा हिलोरे मारने लगी हैं। इस पर ही बात करते हैं।

मीडिया में मिली जगह 

यह बात सच है कि किसान आंदोलन आज मोदी सरकार के लिए गले की फांस बन गया है। इसके नेताओं को मेन स्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया और अख़बारों में जबरदस्त जगह मिल रही है। जब मीडिया किसी को हीरो बना देता है, आपके पीछे सैकड़ों लोगों का जत्था चलता है तो किसी को भी नेता होने जैसी फ़ीलिंग आने लगती है। 

योगेंद्र यादव 

कुछ ऐसा ही शायद किसान नेताओं के साथ भी हो रहा है। इस आंदोलन के एक चेहरे योगेंद्र यादव गुड़गांव से लोकसभा का चुनाव लड़ चुके हैं, आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में रहे हैं और अन्ना आंदोलन से भी वह काफ़ी चर्चित हुए थे। वे स्वराज इंडिया नाम से पार्टी चलाते हैं और 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी उतार चुके हैं। 

गुरनाम सिंह चढ़ूनी 

गुरनाम सिंह चढ़ूनी तो खुलकर पंजाब में चुनाव लड़ने की बात कर ही चुके हैं। हरियाणा के कुरूक्षेत्र जिले के बाशिंदे चढ़ूनी पिछले दो दशक से किसान राजनीति में सक्रिय हैं और यमुना नगर, कैथल, अंबाला सहित कुछ और जिलों में उनका असर भी है। 

हिंदी और पंजाबी में अपनी बात को अच्छे ढंग से कहने वाले चढ़ूनी ने 2019 में लाडवा सीट से विधानसभा का चुनाव भी लड़ा था। चढ़ूनी की पत्नी बलविंदर कौर 2014 में आम आदमी पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ चुकी हैं। तब चढ़ूनी ने ख़ुद टिकट मांगा था लेकिन पार्टी ने उनकी पत्नी को मैदान में उतारा था।

इस साल की शुरुआत में चढ़ूनी की ओर से दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में बैठक बुलाई गई थी। इस बैठक में कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह और उदित राज भी शामिल हुए थे। तब संयुक्त किसान मोर्चा ने नाराज़गी जताई थी। चढ़ूनी राकेश टिकैत और एक और किसान नेता शिवकुमार कक्का पर हमला बोलते रहे हैं। 

राकेश टिकैत

अब बात करते हैं राकेश टिकैत की। राकेश के पिता महेंद्र सिंह टिकैत देश की किसान राजनीति का बड़ा नाम थे और राकेश टिकैत विरासत में मिली किसान राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं।  लेकिन राकेश टिकैत की भी सियासी ख़्वाहिशें हैं। टिकैत दो बार चुनाव लड़कर हार चुके हैं। लेकिन इस आंदोलन से वह एक मजबूत किसान नेता के रूप में उभरे हैं, जबकि अब तक वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक ही सीमित थे।

ऐसे में हो सकता है कि सोशल मीडिया पर लाखों व्यूज़ बटोर रहे टिकैत छह महीने बाद होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में किसी सीट से उतर जाएं क्योंकि टिकैत जानते हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान बीजेपी से नाराज़ हैं और टिकैत आरएलडी के टिकट पर चुनाव लड़ भी चुके हैं। इसके अलावा जातीय समीकरण भी यहां उनके हक़ में हैं। 

इन तीनों नेताओं के फ़ेसबुक पेज और ट्विटर हैंडल को देखिए, किसी राजनेता के पेज और हैंडल की ही तरह ये इन्हें अपडेट करते हैं। इससे भी पता चलता है कि ये सुर्खियां लूटने की कोशिश में हैं।

इन तीनों नेताओं के अलावा पंजाब के कुछ किसान संगठन जो इस आंदोलन में शामिल हैं, उनके भी पंजाब के अलग-अलग राजनीतिक दलों से जुड़ाव की बातें सामने आती रही हैं। 

इन तीनों ही नेताओं की सक्रियता को देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर किसान आंदोलन और जोर पकड़ गया तो ये अपनी सियासी ख़्वाहिशों को पूरा करने के लिए चुनाव मैदान में उतर सकते हैं। 

इसमें कुछ ग़लत भी नहीं है कि लेकिन किसान आंदोलन की क़यादत कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा को ख़ुद को इस आरोप से बचाना है कि उसका आंदोलन राजनीतिक है, इसलिए वह इस संगठन में रहकर राजनीति करने की इजाजत नहीं दे सकता।