जनता की नज़र में सुप्रीम कोर्ट को विलन बनाने की कोशिश

05:14 pm Nov 27, 2018 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

भारतीय जनता पार्टी और इसके सहयोगी संगठन विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चुनाव के ऐन पहले राम मंदिर जैसे संवेदनशील मद्दे पर जनभावना उभारने के लिए सुप्रीम कोर्ट का इस्तेमाल कर रहे हैं। वे इसकी अवमाना कर रहे हैं, उस पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हमले कर रहे हैं, दबाव बना रहे हैं और खुली धमकी तक दे रहे हैं। यह सोची-समझी रणनीति के तहत हो रहा है। 

संघ परिवार की रणनीति सुप्रीम कोर्ट पर सिर्फ़ दबाव बनाने की नहीं है, वह उसके ख़िलाफ़ आम जनता को भड़का रहा है, उसे 1992 जैसी वारदात करने की धमकी दे रहा है। और यह सब गुपचुप नहीं, सार्वजनिक मंच से हो रहा है।

‘सरकार हस्तक्षेप करे’

रविवार को नागपुर में आयोजित विहिप की धर्मसभा में आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत बग़ैर किसी पूर्वयोजना के पहुँचे और सर्वोच्च अदालत पर हमला बोल दिया। उन्होंने अदालत को आड़े हाथों लेते हुए कहा, ‘राम मंदिर सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता में नहीं है तो सरकार इस पर क़ानून बनाए।’ यानी वे चाहते हैं कि जो मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, सरकार उसमें हस्तक्षेप करे और क़ानून बनाए।

मोहन भागवत, सरसंघचालक, आरएसएस

‘समाज सिर्फ़ क़ानून से नहीं चलता है’

उन्होंने इसकी  वजह बताते हुए कहा, ‘समाज सिर्फ़ क़ानून से नहीं चलता है, इसकी अपनी इच्छाएँ भी होती हैं।’ इसके ज़रिए आरएसएस प्रमुख यह साफ़ कह रहे थे कि समाज अदालत से ऊपर है और अदालत का फ़ैसला इसके अनुरूप न हो तो समाज ख़ुद निर्णय करे। यानी, वे खुल्लमखुल्ला लोगों से क़ानून अपने हाथों में लेने का संकेत दे रहे थे। यह रवैया उस संगठन का है जो अपने कैडरों के अनुसाशन पर गर्व करता है।

1992 जैसे कांड की धमकी

लेकिन बात यहीं नहीं रुकी। भागवत ने सुप्रीम कोर्ट ही नहीं, पूरे देश को हमले करने की खुलेआम धमकी दे डाली कि यदि उसके मनमर्ज़ी का फ़ैसला नहीं आया तो संघ परिवार से जुड़े कार्यकर्ता और समर्थक कुछ भी कर सकते हैं।

भागवत ने कहा, ‘साल 1992 में अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए आन्दोलन कर रहे लोगों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से मुलाक़ात की, पर उन्होंने इस पर ध्यान नहीं दिया। इसके बाद कारसेवकों को गुस्सा आ गया और फिर जो हुआ, वह हुआ।’

इन हिन्दूत्ववादी संगठनों के कहने पर अयोध्या में इकट्ठा हुए कारसेवकों ने 6 दिसंबर 1992 को चार सौ साल पुरानी मसजिद ढहा दी थी जबकि आंदोलन के नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष वादा किया था कि मसजिद को कोई क्षति नहीं पहुँचाई जाएगी। इन नेताओं ने बाद में कोर्ट में कहा कि मसजिद विध्वंस कारसेवकों ने किया जो उनके नियंत्रण से बाहर हो गए थे।

६ दिसंबर 1992 में कारसेवकों ने बाबरी मसजिद ढहा दी थी।

खुली अवमानना

साफ़ है कि हिन्दू राष्ट्र और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने वाले संगठन के प्रमुख देश की सबसे बड़ी अदालत के ख़िलाफ़ लोगों को भड़का रहे हैं, उसकी वजह बता रहे हैं और धमकी दे रहे हैं। यह काम उन्होंने किसी गोपनीय बैठक में किया हो, ऐसा नहीं है। उन्होंने यह धमकी सार्वजनिक मंच से दी है और टेलीविज़न चैनलों पर उसका सीधा प्रसारण हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि उन्होंने गुस्से में आकर भावनाओं में बह कर कह दिया है। 

मोहन भागवत ने सोची-समझी रणनीति के तहत सुप्रीम कोर्ट पर हमला बोला है। यह एक सुनियोजित साज़िश का हिस्सा है। कोशिश पूरी न्याय व्यवस्था को अप्रासंगिक बनाने और लोगों को उसके ख़िलाफ़ खड़ा करने की है। मक़सद है राम मंदिर निर्माण के नाम पर लोगों की भावनाओं को भड़काना।

अदालत का इस्तेमाल

रविवार को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को घेरने के लिए सुप्रीम कोर्ट और उसके जजों का इस्तेमाल किया। उन्होंने राजस्थान के अलवर में एक जनसभा में कांग्रेस पर ही सुप्रीम कोर्ट पर दबाव बनाने का आरोप मढ़ दिया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के एक राज्यसभा सदस्य ने उस समय के मुख्य न्यायाधीश को राम मंदिर मुद्दे पर डराने के लिए महाभियोग का सहारा लिया था। सच यह है कि इस साल अप्रैल में कांग्रेस के कपिल सिबल ने राज्यसभा में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के ख़िलाफ़ महाभियोग का नोटिस दिया था, जिसे सदन के अध्यक्ष वेंकैया नायडू ने अस्वीकार कर दिया था। नोटिस में महाभियोग के पाँच कारण बताए गए थे, पर राम मंदिर से उसका कोई लेना-देना नहीं था।

नहीं मानेंगे अदालत को

अयोध्या में आयोजित विहिप की धर्मसभा में परिषद के वरिष्ठ नेता चम्पत राय ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को नहीं मानने की बात खुलेआम कह दी। उन्होने कहा कि विवादित ज़मीन का बँटवारा नहीं होने दिया जाएगा और मुसलमानों को वहाँ मसजिद नहीं बनाने दी जाएगी। यह धमकी अहम इसलिए है कि साल 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2-1 के बहुमत से दिए गए अपने फ़ैसले में कहा था कि उस भूमि को रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और केंद्रीय सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड में बराबर-बराबर बाँट दिया जाए। 

सबरीमला-अदालत पर हमला

इन हिन्दुत्ववादी ताक़तों ने सियासी वजहों से जनभावना उभारने के लिए न्याय प्रक्रिया में पलीता लगाने की कोशिश इसके पहले भी की है। उस बार भी निशाने पर सर्वोच्च अदालत ही था और मामला भी धार्मिक ही था। अदालत ने 27 अक्टूबर को अपने एक फ़ैसले में केरल के सबरीमला मंदिर में हर उम्र की महिलाओं को प्रवेश करने की छूट दे दी। 

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने सबरीमला पर सार्वजनिक मंच से कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ऐसे निर्णय देती ही क्यों है, जिसे लागू करना मुमकिन नहीं है।’ उन्होंने खुले आम कहा कि इस फ़ैसले को लागू नहीं होने दिया जाएगा। बीजेपी ने इसके ख़िलाफ़ बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया और सरकार अदालत का निर्णय लागू नहीं कर सकी है।

मीठा-मीठा हप्प, कड़वा-कड़वा थू

लेकिन ऐसा नहीं है कि यह हिन्दूत्ववादी दल हर मामले पर सुप्रीम कोर्ट का विरोध ही करता रहा है। तीन तलाक़ मुद्दे पर न्यायिक प्रक्रिया के प्रति इसका समर्पण और सुप्रीम कोर्ट के प्रति अथाह सम्मान तो देखते ही बनता है।

तीन तलाक़ पर समर्थन

एक साथ तीन बार ‘तलाक़’ कह कर पत्नी को तलाक़ देने की प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक बताया था। बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं ने इसका खुल कर स्वागत किया था। इसके बाद सरकार एक अध्यादेश ले आई, जिसमें तीन तलाक़ को दंडनीय अपराध बना दिया गया। बाद में सरकार ने इस पर संसद की मुहर भी लगवा ली। उस मौके पर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा था, ‘इस निर्णय से मुसलिम महिलाओं को समाज में इज्ज़त से जीने का मौका मिलेगा।’ उन्होंने कांग्रेस पर कटाक्ष करते हुए कहा था, ‘यह उनके लिए आत्मनिरीक्षण का समय है, क्योंकि उन्होंने वोट बैंक राजनीति के तहत सदियों तक मुसलिम पुरुषों को औरतों के शोषण का अधिकार दे रखा था।’ 

इसी तरह राजीव गाँधी के समय शाह बानो मामले पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को उलटने के संविधान संशोधन कराने को लेकर बीजेपी ने कांग्रेस और राजीव गाँधी सरकार की खूब फ़जीहत की थी।

सर्वोच्च अदालत ने अपने निर्णय में कहा था कि मुसलिम महिलाओं को भी तलाक़ के बाद भरण-पोषण के पैसे उनके पतियों को देने होंगे। कई कट्टरपंथी मुसलिम संगठनों ने इसका विरोध किया था। राजीव सरकार ने इसे रोकने के लिए संविधान में संशोधन करवाया था।   लेकिेन इस बार अंतर यह है कि पूरी न्यायिक व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाया जा रहा है, सर्वोच्च अदालत को निशाने पर लिया जा रहा है और उसके निर्णय को नहीं मानने की बात कही जा रही है। बात यह तक बढ़ गई है कि सार्वजनिक मंच से सुप्रीम कोर्ट को 1992 जैसा कारनामा कर दिखाने की धमकी दी जा रही है।