भारत का मौजूदा इसलामोफ़ोबिया स्वाभाविक और स्वतःस्फूर्त है?

07:29 am Dec 21, 2019 | विजयशंकर चतुर्वेदी - सत्य हिन्दी

अगर हम कहें कि सोशल मीडिया, ख़ास तौर पर ट्विटर पर लगभग हर रोज़ इसलामोफ़ोबिया से संबंधित कोई न कोई हैशटैग ट्रेंड करता है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) पारित होने के बाद शुरू हुए देशव्यापी आंदोलनों की काट निकालने के लिए आजकल सोशल मीडिया पर मुसलिम विरोधी सामग्री की बाढ़ आई हुई है।

अधिकतर पोस्ट फ़ेक एकाउंट्स से जारी की जा रही हैं, जिनमें मुसलमानों और उनके साथ खड़े होने वाले हर व्यक्ति और दल को देश का दुश्मन और राष्ट्रविरोधी क़रार दिया जा रहा है।

क्या कर रहा है ट्रेंड

पिछले दिनों यूपी में एक हिंदू नेता कमलेश तिवारी की हत्या के बाद तो आलम यह हो गया था कि पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब की शान की गुस्ताख़ी करते हुए गालियों वाले हैशटैग ट्रेंड करने लगे। कल्पना कीजिए कि अगर आक्रोश में आकर मुसलमान भी हिंदू-देवताओं को गालियाँ देने वाले हैशटैग चलाने लगते तो कैसी भीषण स्थिति बन जाती!

सीएबी के क़ानून बन जाने के ठीक बाद से ही भारत में वॉट्सऐप पर एक के बाद एक सैकड़ों घृणित मैसेज घुमाए जा रहे हैं, ट्विटर व फेसबुक पर पोस्ट के साथ-साथ गलीज़ मीम बनाकर फैलाए जा रहे हैं।

लेकिन अपमान झेलने वाला पक्ष पहले की ही तरह अब भी संयत बना हुआ है, और ऐसा पैगंबर मुहम्मद की सीखों की वजह से हो रहा है। 

कुरान क्या कहता है

पैगंबर ने सिखाया था कि नफ़रत का जवाब नफ़रत नहीं, बल्कि प्रेम और दया ही हो सकती है। इसलाम दूसरे धर्म या उनके देवी-देवताओं की अवमानना की इजाज़त नहीं देता। जो मुसलमान ऐसा करेगा वह दोजख़ में जाएगा। भड़काने वाले तो रोज़ ही मुसलमानों को रास्ते से भटका कर उनको दोजख़ में भेजने की योजना बनाते हैं, लेकिन कुरान शरीफ (3:54) कहती है :  ‘… और ईमान न लाने वालों ने योजना बनाई, लेकिन अल्लाह की मर्ज़ी कुछ और ही थी और अल्लाह से श्रेष्ठ योजनाकार कोई दूसरा नहीं है।’ 

हर दिन किसी न किसी धार्मिक या सामाजिक मुद्दे पर मुसलमानों को उकसाने की योजना बनाना किसी एक व्यक्ति या कई असंगठित व्यक्तियों के वश की बात नहीं है। इसके पीछे बाक़ायदा एक अजेंडा काम कर रहा है, और वह है हिंदू-मुसलिम समाज के बीच वैमनस्य की खाई को इतना वीभत्स करना कि लाख सब्र करने की कोशिशों के बावजूद चहुंदिस हिंसा का ताण्डव मच जाए।

इस रणनीति का उद्देश्य अब महज वोटों का ध्रुवीकरण करके सत्ता पर कब्जा कर लेने अथवा चौतरफा सरकारी विफलताओं से ध्यान भटकाने के घिसे-पिटे बुद्धिविलास तक सीमित नहीं रह गया है। इसका लक्ष्य एक धर्म विशेष के लोगों के प्रति स्थायी घृणा पैदा करके एक धर्म विशेष की सत्ता कायम करना है।

सत्ता का संरक्षण

इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सत्ता का संरक्षण, प्रचुर धन और अत्याधुनिक तकनीक और क़ानूनों का सहारा मुहैया कराया जाता है। अनुच्छेद 370, ट्रिपल तलाक और धर्म-विशेष के साथ भेदभाव करने वाले सीएबी का कानून बनना इसका हालिया उदाहरण है।

लेकिन स्पष्ट है कि भारतीय समाज, जिसमें सभी धर्मों के लोग शामिल हैं, अभी इतना विभाजित और पशुवत नहीं हुआ है कि उस लक्ष्य की पूर्ति हो जाए। वह ऐसे विभेदनकारी क़ानूनों और इसलामोफ़ोबिया फैलाने के ख़िलाफ़ डट गया है। षड्यंत्रकारियों की बौखलाहट की मूल वजह यही है। पिछले दिनों हमने देखा कि इसलामोफ़ोबिया से संबंधित गाली-गलौज वाले हैशटैगों के जवाब में समावेशी भारतीय समाज की ओर से #MercifulProphet, #ProphetofCompassion, #ProphetMohammad, #MyProphetMyPride जैसे भारी प्रतिसादपूर्ण हैशटैग चलाए गए।

दुर्भाग्य यह रहा कि इन हैशटैग पर भी मन में घृणा रखने और पद-पैसे के लालच में घृणा फैलाने वालों ने पैगंबर और इसलाम के ख़िलाफ़ ज़हर उगला, जबकि इसलाम  को मानने वाले और शांतिप्रिय हिंदू-सिख-ईसाई खामोशी से पैगंबर की सीखों का हवाला देते रहे।

नतीजा निकला उल्टा

मुसलमानों का बहिष्कार कराने के इरादे से ट्विटर पर चलने वाले हैशटैगों से कथित हिंदुत्ववादियों का कितना फ़ायदा हुआ यह आँकना कठिन है, लेकिन इतना तय है कि जो लोग इसलाम और पैगंबर मुहम्मद के बारे में कुछ नहीं जानते थे, या उल्टी बातें जानते थे, उनके दिमाग का जाला काफी हद तक साफ हो गया।

हम नहीं जानते थे कि सैकड़ों फिल्मों में दोहराया गया डायलॉग- मजदूर का पसीना सूखने से पहले उसकी मजदूरी अदा हो जानी चाहिए, पैगंबर की दी हुई सीख है। झूठ और प्रोपगंडा के बल पर फैलाए गए जिहाद के मायनों से इतर हम नहीं जानते थे कि खुद की आत्मा, अपने अंदर की बुराई से लड़ने को पैगंबर ने महानतम जिहाद करार दिया है।

पैगंबर की सीख!

पैगंबर ने यह भी कहा था कि जो मनुष्य के प्रति कृतज्ञ नहीं हो सकता वह ख़ुदा के प्रति कभी कृतज्ञ नहीं हो सकता। आपने यह भी सिखाया कि जिस घर में किसी अनाथ को भी प्यार और दयालुता की नज़र से देखा जाता है उससे श्रेष्ठ कोई घर हो ही नहीं सकता। यह भी फरमाया कि भूखे पड़ोसी की मौजूदगी में अपना पेट भर लेने वाला सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता। लोगों को लगा कि अरे! यही तो वेदों और उपनिषदों का सार है। यही तो बांग्ला का महाकवि चंडीदास कहते थे- ‘सबार ऊपरे मानूष सत्यो, ताहार ऊपर नेई’.

हिन्दू-मुसलिम एकता!

लेकिन यदि हिंदू और मुसलिम अपने-अपने धर्म का असली सार और उनके बीच की समानता समझ गए तो श्रेष्ठता का झगड़ा कैसे लगेगा

इतिहास गवाह है कि जब-जब ये दोनों धर्मानुयायी एकसार होने के क़रीब आए तब-तब नफ़रत का पलीता लगाया गया। बाबरी ढाँचे का ढहाया जाना ऐसी ही एक ऐतिहासिक कोशिश थी।

सोशल मीडिया की भूमिका

सोशल मीडिया पर व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी का नाम ऐसे ही चलन में नहीं आया, जहाँ एक-दूसरे के धर्मों के प्रति ग़लत जानकारियाँ बाँटी जाती हैं और खलनायकों का हवाला देकर लोगों के मन में भ्रांतिपूर्ण धारणाएं स्थापित की जाती हैं!

दोनों तरफ की गाली-गलौज से उन लोगों को भी ठेस पहुंचती है जो ज़रूरी तौर पर धार्मिक नहीं होते। लेकिन यह समझ लेना कि मुसलमानों से नफ़रत करने और फैलाने का अजेंडा चलाने वाले संगठित लोग शांतिप्रिय भारतीयों के हैशटैग पढ़ कर शरमा जाएँगे, महज एक खामखयाली है।

जिस प्रकार आप किसी सेवा प्रदाता की ग्राहक सेवा के आईवीआर पर अपना गुस्सा नहीं उतार सकते, क्योंकि वह एक रिकॉर्ड की हुई आवाज़ होती है, उसी तरह आईटी सेल्स की इन जीती-जागती मशीनों को लज्जित नहीं कर सकते क्योंकि ये अपना ज़मीर बेच चुकी हैं। नफ़रत के ये सौदागर दूसरे धर्म की पहचान ओढ़ने से भी नहीं हिचकते और भड़काऊ प्रतिक्रिया तथा हिंसक तसवीरें व वीडियो शेयर करके आग में घी डालने की कोशिश करते हैं। अच्छे-ख़ासे आदमी को कुतर्कों की गंदगी में लथेड़ देते हैं और भाषायी कीचड़ का आनंद उठाते हैं।

सोशल मीडिया पर सक्रिय विवेकवान भारतीय शायद इन चिकने घड़ों की हकीक़त और समझाने-बुझाने की व्यर्थता को समझ चुके हैं, इसलिए इस बार इसलामोफ़ोबिया फैलाने वालों को मुंहतोड़ जवाब देने से बच रहे हैं। बहुरूपियों से आभासी दुनिया में उलझने की बजाए जनता सड़कों पर दो-दो हाथ करने के लिए उतर चुकी है।