नेपाली सत्ता प्रतिष्ठान के शीर्ष पर बैठे प्रधानमंत्री के. पी. ओली ने जब यह एलान किया कि कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा नेपाल का हिस्सा हैं और उन्हें हर हाल में वापस लाकर रहेंगे तो कई सवाल खड़े हुए। सबसे बड़ा सवाल तो भारत की उस नाकाम कूटनीति से जुड़ा हुआ है, जो अपने छोटे पड़ोसी का विश्वास जीतने में असफल है। इसके साथ ही मौजूदा विदेश नीति पर भी सवाल उठता है, जिसकी प्राथमिकता में पहले से मजबूत रिश्ते वाले देश कहीं नहीं है। दरअसल यह इस ओर भी संकेत करता है कि किस तरह भारत की विदेश नीति दिशाहीन और लुंजपुंज है, जिससे नेपाल भी नहीं संभलता है।
पर सबसे पहले यह जानने की कोशिश करते हैं कि आख़िर विवाद क्या है, किस बात पर है और उसकी जड़ कहाँ है।
क्या है कालापानी
कालापानी दरअसल एक घाटी है, जो उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ज़िले में स्थित है और भारत-चीन-नेपाल की सीमा पर है। यह तीन देशों को भौगोलिक रूप से जोड़ती है और उन्हें राजनीतिक व कूटनीतिक रूप से अलग भी करती है। यह दरअसल काली, महाकाली और शारदा नदियों और उनमें गिरने वाली दूसरी कई छोटी नदियों को मिला कर बनने वाली घाटी है।इसके उत्तर में और ऊंचाई पर स्थित है लिपुलेख, जो बहुत ही संकीर्ण दर्रा है। उस दर्रे से ही मानसरोवर तक जाने के लिए एक सड़क बनाने पर चीन और भारत के बीच सहमति बनी थी। यह दर्रा जिस गुंजी गाँव से होकर गुजरता है, वह नेपाल में है। नेपाल का कहना है कि कालापानी ही नहीं लिपुलेख भी उसका है।
सुगौली समझौता
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में ही नेपाल के शक्तिशाली और महत्वाकांक्षी शासक पृथ्वी नारायण शाह ने अपने राज्य के विस्तार के लिए सेना भेजी, जिसे उस समय भारत में मौजूद ब्रिटिश सेना ने रोका। दोनों में 1816 में सुगौली समझौता हुआ।
इस समझौते के तहत काली नदी को भारत और नेपाल के बीच की सीमा रेखा माना गया। बवाल की जड़ यह फ़ॉर्मूला ही है। किसी भी नदी की तरह यह नदी भी अपना रास्ता बदलती रहती है और इस तरह दोनों देशों के बीच की सीमा भी।
नेपाल का दावा
नेपाल ने सुगौली समझौते के तुरन्त बाद यानी 1817 में अंग्रेजों से यह दावा किया कि काली नदी का उद्गम दक्षिण पश्चिम में स्थित कुठी यांक्ती है, लिहाज़ा लिपुलेख पर उसका नियंत्रण होना चाहिए। अंग्रेजों का कहना था कि काली भारतीय नाम है। यह उस जगह के नाम पर है, जो दो नदियों के मिलने के स्थान से बहुत पहले है और भारत में है।अंग्रेजों का यह भी कहना था कि काली नदी बायन्स नामक इलाक़े के बीच से गुजरती है। यह बायन्स मुग़ल काल में एक परगना (उपज़िला) था और मुग़लों के अधीन था। जिस गुंजी गाँव को मानसरोवर का द्वार माना जाता है वह इस बायन्स परगना में ही था।
अंग्रेज़ों ने सुगौली समझौते के तहत काली नदी के पूर्व का इलाक़ा नेपाल को दे दिया। अंग्रेज़ों ने 1860 में कालापानी में अपनी सैनिक चौकी स्थापित कर ली, जो उनके भारत छोड़ने तक बनी रही।
भारत-नेपाल समझौता
भारत और नेपाल के बीच 1950 में समझौते पर दस्तख़त हुआ, जिसमें पहले के तमाम समझौतों को मान लिया गया। इसके बाद 1954 में भारत और चीन में एक समझौता हुआ, जिसमें दोनों देशों ने लिपुलेख को भारत का हिस्सा माना।
भारत और चीन के बीच 1962 के युद्ध के समय नई दिल्ली ने लिपुलेख को सील कर दिया ताकि चीनी सेना उस रास्ते दाखिल न हो सके।
भारत और नेपाल के बीच 1998 में समझौता हुआ, जिसमें कालापानी समेत तमाम सीमा विवादों का निपटारा बातचीत के जरिए करने की बात कही गई। अब आज क्या हो गया, सवाल यह उठता है।
मौजूदा संकट
भारत के चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ़ मनोज मुकुंद नवराने ने संकेतों में कहा है कि नेपाल चीन की शह पर यह विवाद खड़ा किए हुए है। उन्होंने यह भी कहा कि लिपुलेख भारत का हिस्सा है।
सवाल यह है कि यह स्थिति ही क्यों आई कि चीन के कहने पर भारत का सदियों पुराना दोस्त उसे आँखें तरेरने लगा। यही भारत की नाकाम कूटनीति की पोल खोलता है।
बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव
बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव के तहत चीन ने नेपाल को उसमें शामिल होने का न्योता दिया और उसके लिए रेल से लेकर सड़क मार्ग तक बनाने की पेशकश की। नेपाल उसमें शामिल हो गया। अब तिब्बत से लेकर उत्तर प्रदेश से सटे नेपाल की सीमा के अंदर कुछ किलोमीटर दूर तक की रेल लाइन की योजना तैयार है। इसी तरह तिब्बत के ल्हासा से लेकर बिल्कुल भारतीय सीमा के पास तक सड़क बनाने की योजना है।
बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव न एक दिन में बना और न ही नेपाल उसमें गुपचुप शामिल हुआ। यह सबको पता था, भारत को भी। सवाल यह है कि भारतीय कूटनीति ने उसे रोकने के लिए क्या किया।
मुफ़्त में कुछ नहीं
ये दोनों परियोजनाएँ नेपाल को मुफ़्त में नहीं मिलने जा रही हैं, जैसे चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा इसलामाबाद को मुफ़्त में नहीं मिल रहा है। इन दोनों परियोजनाओं से नेपाल पर जो आर्थिक बोझ पड़ेगा वह उससे कभी बाहर नहीं निकल पाएगा। जैसे चीन ने श्रीलंका का हम्बनटोटा बंदरगाह 8 अरब डॉलर में तैयार किया और पैसे न होने पर कोलंबो ने उसे वह बंदरगाह 99 साल के लीज पर दे दिया, वैसा ही कुछ नेपाल को भी करना पड़ेगा।लेकिन भारत की कूटनीति को इसकी परवाह नहीं थी। इसकी नींव पड़ी नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने थोड़े दिन बाद ही, जब नई दिल्ली ने नेपाल की अंदरूनी और बिल्कुल राज्य के स्तर पर होने वाली राजनीति में दखलअंदाजी की।
नेपाल की नाकेबंदी
भारत ने 23 सितंबर, 2015 को नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी कर दी, पेट्रोलियम उत्पादों समेत तमाम चीजों का नेपाल जाना बंद हो गया। नेपाल का जन जीवन बिल्कुल ठप हो गया। और ऐसा कई हफ्तों तक रहा।इसकी वजह क्या थी
भारत की सीमा से सटे नेपाल के इलाक़े में भारतीय मूल के लोगों का विशाल बहुमत है। उन्होंने अलग पहचान की माँग की और इलाक़ाई स्वायत्तता तक की माँग करने लगे। नेपाल सरकार उनकी माँगों को सुनने और उस पर बात करने को तैयार थी, लेकिन वह स्वायत्तता जैसी किसी चीज पर कोई बात करने को तैयार नहीं थी।भारत इसे अपने पड़ोसी देश का अंदरूनी मामला मान कर छोड़ सकता था, वह अपने पड़ोसी देश का सम्मान कर सकता था।
नई दिल्ली को यह नागवार गुजरा कि नेपाल जैसा ‘पिद्दी’ सा देश उसकी बात को नहीं मानता है। यह नाकेबंदी अक्टूबर 2015 से फरवरी 2016 तक यानी 135 दिन तक चली।
चीन से नेपाल की नज़दीकी
इस आर्थिक नाकेबंदी के दौरान एक बेहद अहम घटना हुई। नेपाल पेट्रोलियम ने 28 अक्टूबर को पेट्रो चाइना के साथ एक क़रार किया और चीनी कंपनी ने नेपाल को 130,00,000 लीटर तेल मुफ़्त में उपहार स्वरूप दे दिया। इसके अलावा चीन और नेपाल में दूसरे व्यापारिक समझौते भी हुए।
बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव की नींव उसी समय पड़ी और लगभग उसी समय नेपाल ने चीन के साथ जाने का मन बना लिया। एक तरह से भारत ने अपने पुराने दोस्त को धक्का देकर चीन की गोद में उतार दिया, सिर्फ अपनी श्रेष्ठता बोध, ईगो, बाँह मरोड़ने की मानसिकता और ग़लत कूटनीतिक समझ के कारण।
मोदी की नेपाल यात्रा
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मई 2018 में नेपाल का दौरा किया, काठमांडो के पशुपतिनाथ मंदिर में भगवान के दर्शन किए, नेपाल को याद दिलाया कि वह कुछ दिन पहले तक दुनिया का एक मात्र हिन्दू राष्ट्र था। वह तो ख़ैर हिन्दू हितों की बात और उसकी राजनीति करने वाले महान नेता हैं ही।मोदी के इस नेपाल यात्रा के दौरान आर्थिक नाकेबंदी से हुए नुक़सान को पाटने की कोई कूटनीतिक या आर्थिक कोशिश नहीं हुई, भारत ने कोई बहुत बड़ा एलान नहीं किया, कोई बड़ी राहत नहीं दी। दोनों प्रधानमंत्रियों के बीच बैठकें हुई, शिष्ट मंडलों के बीच बातचीत हुई, पर वे बैठकें शिष्टतावश और कोरी औपचारिकता थीं।
दरअसल, वह यात्रा दोतरफा रिश्तों को मजबूत करने के लिए थी ही नहीं, इसलिए भारतीय प्रधानमंत्री खाली हाथ गए थे। वह यात्रा थी भारत के अपने वोटरों के लिए, अपने कंस्टिच्युएन्सी के लिए, जिसे दिखाना था कि देखो मोदी जी का डंका बज रहा है।
उनका कैसा जलवा है कि नेपाल सारी कड़वाहट भूल कर पलक-पाँवड़े बिछाए खड़ा है। भारतीय कूटनीति का तो मानना था ही कि नेपाल की भला क्या औकात!
भारत ने मौका गँवाया
लेकिन उस यात्रा से आर्थिक नाकेबंदी से बनी खाई और चौड़ी हो गई। नेपाल ने यह मान लिया कि भारत को उसकी परवाह नहीं। वहां सक्रिय भारत विरोधी या चीन समर्थक लॉबी के लिए इससे बेहतर मौका भला और क्या हो सकता था।मोदी की यह यात्रा उनकी उस नीति की भरपाई नहीं कर पाई, जिस वजह से नेपाल को उनके शासनकाल में ही घोर दुख उठाना पड़ा था।
आज यदि चीन नेपाल के पीछे खड़ा भी है तो भारत क्या करेगा क्या मोदी सरकार नेपाल को दुलारने-पुचकारने की कोशिश करेगी, उससे बराबरी के स्तर पर बातचीत करने के लिए वार्ता मेज पर बुलाएगी या धौंस पट्टी जमाएगी
भारत ने दिए कड़ाई के संकेत
इस बात की पूरी संभावना है कि भारत नेपाल से एक बार फिर कड़ाई से पेश आए। इसका संकेत तो भारत ने दे ही दिया है, वर्ना भारत के चीफ़ ऑफ आर्मी स्टाफ को विदेश नीति के मुद्दे पर क्यों बोलना चाहिए सेनाध्यक्ष का बोलना क्या यह संकेत नहीं देता है कि भारत अपरोक्ष रूप से नेपाल को धमकी दे रहा हैइसलिए लिपुलेख और कालापानी का मामला तुरन्त शांत नहीं होगा, यह तो साफ़ है। भारत अभी भी बराबरी का व्यवहार कर प्रैक्टिकल विदेश नीति अपनाएगा या पुराने राह पर चलेगा, यह अहम है। लेकिन इसका संकेत तो मोदी सरकार की कार्यशैली से ही मिल जाता है।