एक्टिविस्ट डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या में दो दोषियों को आजीवन कारावास की सजा हुई है। हत्याकांड के 10 साल बाद यह सजा सुनाई गई। पुणे की एक विशेष यूएपीए अदालत ने दो आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाने के साथ ही तीन अन्य को बरी कर दिया।
डॉ. दाभोलकर एक्टिविस्ट, तर्कवादी और अंधविश्वास विरोधी योद्धा के रूप में पहचाने जाते थे। वह महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति यानी एमएएनएस के संस्थापक थे। उनकी 20 अगस्त 2013 की सुबह पुणे में वीआर शिंदे पुल पर दो बाइक सवार हमलावरों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। पूरे देश को झकझोर देने वाली इस हत्या की शुरुआत में पुणे सिटी पुलिस ने जांच की और बाद में जून 2014 से केंद्रीय जांच ब्यूरो यानी सीबीआई ने इसकी जांच अपने हाथ में ली। हत्या के दोषियों को सजा दिलाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी गई। इसके लिए बार-बार अदालत को हस्तक्षेप करना पड़ा। कई बार अदालत ने जाँच एजेंसियों को इसके लिए कड़ी फटकार तक लगाई।
बहरहाल, अदालत ने इस हत्याकांड में क़रीब 10 साल बाद सजा सुनाई। दो हमलावरों सचिन अंदुरे और शरद कालस्कर को आजीवन कारावास की सजा दी गई। ईएनटी सर्जन डॉ. वीरेंद्रसिंह तावड़े, मुंबई के वकील संजीव पुनालेकर और उनके सहयोगी विक्रम भावे को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। तावड़े, अंदुरे और कालस्कर फिलहाल जेल में हैं, भावे और पुनालेकर जमानत पर बाहर हैं।
दाभोलकर हत्याकांड के सभी आरोपी कथित तौर पर कट्टरपंथी संगठन सनातन संस्था से जुड़े थे। जिन आरोपियों पर हत्या का मुक़दमा चलाया गया उनमें ईएनटी सर्जन डॉ. तावड़े भी शामिल थे। इनके खिलाफ सितंबर 2016 में आरोपपत्र दायर किया गया था। दो कथित हमलावर अंदुरे और कालस्कर के खिलाफ फरवरी 2019 में आरोपपत्र दाखिल किया गया था। मुंबई स्थित वकील पुनालेकर और उनके सहयोगी भावे के खिलाफ नवंबर 2019 में आरोपपत्र दाखिल किया गया था। 2018 में सीबीआई ने मामले में आतंकवाद विरोधी कानून गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम यानी यूएपीए को लागू करने के लिए कदम उठाया था।
सीबीआई ने बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश के बाद 2014 में जांच अपने हाथ में ली और जून 2016 में हिंदू दक्षिणपंथी संगठन सनातन संस्था से जुड़े ईएनटी सर्जन डॉ. वीरेंद्रसिंह तावड़े को गिरफ्तार किया था। अभियोजन पक्ष के अनुसार तवाड़े हत्या के मास्टरमाइंडों में से एक था।
तब दावा किया गया था कि सनातन संस्था दाभोलकर के संगठन महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति द्वारा किए गए कार्यों का विरोध करती थी।
विशेष अदालत ने 15 सितंबर 2021 को मुक़दमे की शुरुआत करते हुए पांच आरोपियों के खिलाफ आरोप तय किए थे। सभी पांच आरोपियों ने अपने ऊपर लगे आरोपों में खुद को निर्दोष बताया था।
पुणे में दाभोलकर की हत्या के बाद फरवरी 2015 में गोविंद पानसरे और उसी साल अगस्त में कोल्हापुर में एमएम कलबुर्गी की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। गौरी लंकेश की सितंबर 2017 में बेंगलुरु में उनके घर के बाहर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। ये सभी तर्कवादी और एक्टिविस्ट थे। इन सभी की हत्या में कट्टर दक्षिण पंथियों का हाथ होना बताया गया।
कहा जाता है कि दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश का क़सूर बस इतना था कि वे हिंदू धर्म की उन मान्यताओं के ख़िलाफ़ बोलते थे जिन्हें वे दक़ियानूसी मानते थे। यह बात उनके क़ातिलों को पसंद नहीं आई लिहाज़ा उनको जान से मार दिया गया। ये चारों लोग समाज में प्रतिष्ठित थे। उनका बड़ा नाम था पर उन्हें हिंदू धर्म के ख़िलाफ़ बताया गया। लेकिन सच यह है कि ये सारे लोग हिंदू धर्म की दक़ियानूसी मान्यताओं के ख़िलाफ़ सुधार की बात करते थे।
इस बात को लेकर अदालतें भी जब तब सवाल उठाती रहीं। 2019 में सुनवाई के दौरान न्यायाधीश सत्यरंजन धर्माधिकारी व गौतम पटेल की खंडपीठ ने कहा था कि यह हत्या गैंगवार, पारिवारिक विवाद या संपत्ति विवाद की वजह से नहीं हुई है। इसनने कहा था कि महाराष्ट्र और कर्नाटक में एक के बाद एक चार ऐसे विचारकों की हत्याएँ एक सिलसिलेवार तरीक़े से हुई हैं जिनके विचार बहुसंख्यकों से भिन्न थे। इन हत्याओं के पीछे जो मक़सद नज़र आ रहा है वह है बहुसंख्यकों से हटकर व्यक्त किये गए विचारों को ख़त्म करने या यह बताने का कि इस तरह के विचार रखने वाले लोगों का यही अंजाम होगा। अदालत ने कहा था कि चार विचारकों की हत्या का परिणाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होता है। इसलिए राज्य सरकार को इस ख़तरे को समझना चाहिए। अदालत ने यह भी सवाल उठाया था कि क्या राज्य सरकार राज्य में ऐसा ही चलते रहने देना चाहती है?