मनरेगा के लिए फंड का संकट, सरकार आवंटन बढ़ा क्यों नहीं रही?
मनरेगा को लेकर मोदी सरकार की नीति क्या है? क्या नाम के लिए इस योजना को जारी रखना है? यानी न तो वह इसको बंद करना चाहती है और न ही इसको ठीक से चलने देना चाहती है? प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 में कहा था कि 'मनरेगा कांग्रेस की विफलता का जीता-जागता स्मारक है' और इसलिए उनकी सरकार इसको जारी रखेगी। तो क्या वह सच में यही नीति अपना रही है?
कम से कम मनरेगा को दिए जाने फंड को लेकर जो सरकार का रवैया है उससे तो यही सवाल उठता है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना यानी मनरेगा को 2024-25 के लिए अतिरिक्त बजट नहीं मिला है और इस वजह से श्रमिकों को मजदूरी देने में देरी हो रही है। ऐसी देरी तय समय से काफी ज़्यादा हो रही है। जबकि मनरेगा अधिनियम में साफ़ तौर पर कहा गया है कि दैनिक मजदूरी साप्ताहिक आधार पर दी जाएगी या किसी भी मामले में काम किए जाने के दिन से एक पखवाड़ा से ज़्यादा देर नहीं होना चाहिए।
लेकिन अब स्थिति ऐसी है कि फंड की कमी की वजह से मनरेगा के मज़दूरों को मज़दूरी नहीं मिल पा रही है। वैसे, फंड की जिस तरह की कमी आई है, उसकी आशंका पिछले साल के बजट में किए गए प्रावधान के बाद से ही जताई जा रही थी।
सरकार ने वित्त वर्ष 2024-25 के लिए मनरेगा के लिए 86,000 करोड़ रुपये आवंटित किए। यह पिछले वित्त वर्ष 2023-24 में योजना के वास्तविक व्यय 1.05 लाख करोड़ रुपये से 19,297 करोड़ रुपये कम था। बहरहाल, एक रिपोर्ट के अनुसार 2024 के अंतरिम बजट में सरकार द्वारा इस योजना के लिए आवंटित किए गए 86,000 करोड़ रुपये कम पड़ने के बावजूद केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने मंत्रालय के कई अनुरोधों के बाद भी योजना के लिए बजट में संशोधन नहीं किया।
पिछले साल योजना के लिए कम फंड के आवंटन पर आलोचना का जवाब देते हुए सरकार ने कहा था कि यह कार्यक्रम एक मांग आधारित योजना है और जब भी ज़रूरत होती है, अतिरिक्त आवंटन किया जाता है। इसके लिए वित्त वर्ष 2020-21 का उदाहरण दिया गया।
जब कोविड महामारी ने लोगों को गांवों की ओर पलायन को मजबूर किया और मनरेगा कार्य की मांग बढ़ गई थी तो सरकार ने 61500 करोड़ रुपये के मूल आवंटन को संशोधित कर 111500 करोड़ कर दिया था।
लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ है। द हिंदू ने सूत्रों के हवाले से रिपोर्ट दी है कि केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय को मनरेगा की मजदूरी के लिए 4,315 करोड़ रुपये की कमी पड़ रही है और इसके लिए फंड ट्रांसफर ऑर्डर तक तैयार कर दिया गया है। इसके अलावा भी केंद्र पर मनरेगा का बकाया है। केंद्र पर मैटेरियल मुहैया कराने वालों का केंद्र के हिस्से का 5,715 करोड़ रुपये की देनदारी है। केंद्र मनरेगा कार्यों के लिए उपयोग की जाने वाली सामग्रियों की लागत का 60% ख़र्च देता है और बाक़ी 40% राज्य देते हैं। सामग्री मुहैया करने में देरी का आगे की परियोजनाओं पर बेहद बुरा असर पड़ता है। जब भुगतान में लगातार देरी होती है, तो कच्चा माल आपूर्ति करने में स्थानीय विक्रेता आनाकानी करते हैं और इस तरह योजना प्रभावित होती है।
अंग्रेज़ी अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार कार्यक्रम पर बारीकी से नज़र रखने वाले शिक्षाविदों और एक्टिविस्टों ने कहा है कि कम बजटीय आवंटन से मनरेगा में काम मांगना कम हो जाता है। ग्रामीण विकास पर संसदीय स्थायी समिति ने फरवरी 2024 में पेश अपनी रिपोर्ट में भी इस समस्या को उठाया था। समिति का मानना है कि जमीनी स्तर पर मनरेगा के सुचारू कार्यान्वयन के लिए धन की कमी एक बड़ी बाधा है जो योजना के प्रदर्शन के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
मनरेगा हर ग्रामीण परिवार को न्यूनतम वेतन के साथ 100 दिन के रोज़गार की गारंटी देता है। कहा जाता है कि मनरेगा भारत में ग्रामीण रोजगार के लिए एक क्रांतिकारी क़दम है। अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार विजेता जोसेफ़ स्टिग्लिट्ज़ ने कहा था, 'मनरेगा भारत का एकमात्र सबसे बड़ा प्रगतिशील कार्यक्रम और पूरी दुनिया के लिए सबक़ है।' जब 2008 में वैश्विक आर्थिक संकट आया था, इसने भारत को आर्थिक मंदी से उबरने में मदद की थी। यही स्थिति कोविड काल में भी हुई थी जब ग्रामीण मज़दूरों के लिए मनरेगा वरदान साबित हुआ।
(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है।)