क्या हो यदि आपकी निजी जानकारियाँ कोई दूसरा इस्तेमाल कर ले? पासवर्ड, बैंक की जानकारी, बीमारी, आधिकारिक पहचान पत्र, आधार कार्ड, या राजनीतिक झुकाव जैसी जानकारी? और क्या हो यदि आपकी पूरी जानकारी सरकार मनमर्जी से इस्तेमाल करे? कुछ ऐसे ही सवाल खड़े होते हैं जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस ख़तरे के प्रति आगाह करें।
सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जस्टिस बी एन श्रीकृष्ण ने आगाह किया है कि केंद्र सरकार को ज़्यादा अधिकार और क़ानूनी छूट देना एक ख़तरनाक ट्रेंड है। इसके साथ ही उन्होंने संभावित "ऑरवेलियन स्टेट" की चेतावनी दी है। "ऑरवेलियन स्टेट" का मतलब है लोगों के कल्याण और मुक्त समाज को तबाह करने वाला राज्य। यानी ऐसे सख्त क़ानून वाला राज्य जिसमें लोगों पर हद से ज़्यादा निगरानी हो, ग़लत सूचनाएँ फैलाई जाएँ और प्रोपगेंडा चलाया जाए। समाज के हर तबक़े पर सरकार का नियंत्रण, अपने ही लोगों के निजी और सार्वजनिक जीवन पर सरकारी निगरानी और अनावश्यक ताकझाँक भी। जस्टिस बी एन श्रीकृष्ण की यह चेतावनी प्रिवेसी बिल के नाम से बुलाए जाने वाले प्राइवेट डाटा प्रोटेक्शन बिल को लेकर आई है। उनके नेतृत्व में ही इसके मूल विधेयक को तैयार किया गया था। बाद में सरकार ने उसमें बदलाव कर दिया। इसी बदलाव पर जस्टिस बी एन श्रीकृष्ण ने संसद की ज्वाइंट सेलेक्ट कमेटी को एक नोट लिखा है। उनकी यह चेतावनी इस लिहाज़ से काफ़ी अहम हैं कि निजी जानकारियों की सुरक्षा को लेकर चिंताएँ जताई जा रही हैं और इसके दुरुपयोग की संभावना है।
इस नोट में उन्होंने चेतावनी देने के साथ-साथ कई सवाल भी उठाए हैं और कड़ी टिप्पणी की है। नया विधेयक संवेदनशील व्यक्तिगत डाटा की परिभाषा तय करने के अधिकार जैसी कई शक्तियों को डाटा संरक्षण प्राधिकरण से हटाकर केंद्र सरकार को देता है। यह मूल मसौदे में रखे गए उस स्वतंत्र समिति के प्रावधान को भी हटा देता है जो डीपीए सदस्यों को नियुक्त करता। इसके बजाए अब सरकारी अधिकारियों को इसकी नियुक्ति का अधिकार देता है। इस प्रावधान को संबोधित करते हुए ही जस्टिस श्रीकृष्ण ने इसे "एक ख़तरनाक प्रवृत्ति" कहा है। 'द इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कहा है, ‘सरकारी निगरानी के लिए दी गई "अस्पष्ट" छूट निजता के अधिकार का उल्लंघन है और यह एक संभावित "ऑरवेलियन स्टेट" की शुरुआत है।
पूर्व जज जस्टिस श्रीकृष्ण की निजता के अधिकार संबंधी टिप्पणी काफ़ी मायने रखती है क्योंकि ख़ुद सुप्रीम कोर्ट इस पर ऐतिहासिक फ़ैसला सुना चुका है। 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने देश के प्रत्येक नागरिक को प्रभावित करने वाले अपने फ़ैसले में निजता के अधिकार को संविधान के तहत मौलिक अधिकार घोषित किया है। तत्कालीन चीफ़ चस्टिस जेएस खेहर की अध्यक्षता वाली नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने फ़ैसले में कहा था कि निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पूरे भाग तीन का स्वाभाविक अंग है।
निजता के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का यह फ़ैसला तब आया था जब सरकार आधार कार्ड पर तरह-तरह की दलीलें गढ़ रही थी। तब विभिन्न जन-कल्याण कार्यक्रमों का लाभ उठाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा आधार कार्ड को अनिवार्य करने को चुनौती दी गई थी।
कुछ याचिकाओं में कहा गया था कि आधार को अनिवार्य बनाना उनकी निजता के अधिकार का हनन है। नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने इस सवाल पर तीन सप्ताह के दौरान क़रीब छह दिन तक सुनवाई की थी कि क्या निजता के अधिकार को संविधान में प्रदत्त एक मौलिक अधिकार माना जा सकता है।
अब जो डाटा की सुरक्षा को लेकर विवाद है यह भी कुछ ऐसा ही मामला लगता है। क्योंकि डाटा की सुरक्षा विवाद में तीन हिस्सेदार हैं। आम व्यक्ति, सरकार और टेक्नोलॉजी से जुड़े कॉरपोरेट।
'विदेशी कंपनियों द्वारा लॉबीइंग'
इसी टेक्नोलॉजी से जुड़े कॉरपोरेट की ओर इशारा कर जस्टिस श्रीकृष्ण ने कहा है, 'विदेशी कंपनियों द्वारा लॉबीइंग के कारण डाटा को स्थानीय जगह पर रखने की आवश्यकता से समझौता किया गया है।'
बता दें कि सार्वजनिक सलाह लेने के बाद पूर्व न्यायाधीश के नेतृत्व में एक समिति ने जुलाई 2018 में इस विधेयक का पहला मसौदा जारी किया था। यह विधेयक व्यक्तिगत जानकारी जुटाने, रखने और इसको विनियमित करके व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा करने का देश का पहला प्रयास है। लेकिन इसके मूल मसौदे में बदलाव कर दिया गया है।
जस्टिस श्रीकृष्ण के मूल मसौदे में सभी व्यक्तिगत डाटा, यहाँ तक कि ग़ैर-संवेदनशील और नॉन-क्रिटिकल डाटा की एक प्रति भारत में सुरक्षित रखना संस्थाओं के लिए ज़रूरी था। सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा संशोधित विधेयक में व्यक्तिगत डाटा की कॉपी रखने की आवश्यकता को हटा दिया और सरकारी अनुमोदन के साथ संवेदनशील डेटा को विदेश में रखने की अनुमति दी गई। हालाँकि इसके बावजूद बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों ने बिल के दोनों रूपों में अब तक रखी गई शर्तों की आलोचना की है।
जस्टिस श्रीकृष्ण ने नोट में लिखा है कि व्यक्तिगत डाटा की एक प्रति रखने की ज़रूरत इसलिए थी कि कभी कम सूचना पर ऐसे डाटा तक पहुँचने की ज़रूरत पड़ सकती है। उन्होंने कहा है कि जब एक प्रति भारत में नहीं होगी तो विदेशों में रखे डाटा से इसे प्राप्त करने के लिए कम से कम 18 से 24 माह तक लगे जाएँगे।