एक्टिविस्टों पर यूएपीए: दिल्ली हाई कोर्ट का फ़ैसला सबसे अच्छा- जस्टिस गुप्ता

01:17 pm Jul 25, 2021 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

दिल्ली हाई कोर्ट ने देवांगना कालिता, नताशा नरवाल और आसिफ़ इक़बाल तन्हा को ज़मानत देते हुए यूएपीए पर जो टिप्पणी की थी उसकी सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज दीपक गुप्ता ने जमकर तारीफ़ की है। जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा, 'मैं बहुत खुश हूँ कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने फ़ैसला सुनाया। यह बहुत अच्छी तरह से लिखा गया निर्णय है। यह यूएपीए के संबंध में अपनाए जाने वाले दृष्टिकोण का सबसे अच्छा विश्लेषण हो सकता है।'

इसके साथ ही जस्टिस गुप्ता ने इस पर खेद व्यक्त किया कि कुछ न्यायाधीशों को अभी भी यह नहीं पता है कि आतंकवाद क्या है और राजद्रोह क्या है। उन्होंने कहा कि 'कैसे यूएपीए ने लोगों को वर्षों तक कैद में रखा है, जहाँ पुलिस सहित हर कोई अच्छी तरह से जानता है कि कोई मामला नहीं बनता है। यूएपीए लागू किया जाता है क्योंकि अदालतें ज़मानत देने के लिए अनिच्छुक हैं या उन्हें लगता है कि वे ज़मानत नहीं दे सकते'। वह यूएपीए यानी ग़ैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम और राजद्रोह जैसे सख़्त क़ानून और इनके ग़लत इस्तेमाल को लेकर बोल रहे थे। 

जस्टिस दीपक गुप्ता ने यह टिप्पणी शनिवार को एक वेबिनार में की। न्यायिक जवाबदेही और सुधार अभियान (सीजेएआर) द्वारा 'डेमोक्रेसी, डिसेंट एंड ड्रैकोनियन लॉज़- क्या यूएपीए और सेडिशन की हमारी क़ानून की किताबों में जगह है' विषय पर वेबिनार आयोजित किया गया था। 

इसी दौरान वह यूएपीए के प्रावधान, इस्तेमाल और इस क़ानून की समझ को लेकर जस्टिस गुप्ता ने टिप्पणी की। यूएपीए के कठोर प्रावधानों के उदाहरण के रूप में फादर स्टेन स्वामी के मामले का उल्लेख करते हुए जस्टिस गुप्ता ने कहा कि यूएपीए की धारा 48 (डी) बड़ी अदालतों की ज़मानत देने की शक्ति को प्रभावी ढंग से छीन लेती है, आरोपी व्यक्तियों को न्यायिक समीक्षा की शक्ति से इनकार करती है जो असंवैधानिक है।

जस्टिस गुप्ता ने कहा, 'क़ानून की अस्पष्टता सरकारी एजेंसियों को लोगों पर आरोप लगाने की अनुमति देती है। आज़ादी के 70 साल बाद भी हमारे न्यायाधीशों को यह नहीं पता कि देशद्रोह क्या है, आतंकवाद क्या है।' इसी दौरान यूएपीए को लेकर दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले की तारीफ़ की।

जस्टिस गुप्ता ने कहा, "इस मामले में दिल्ली हाई कोर्ट का फ़ैसला उल्लेखनीय है। उसने कहा कि यूएपीए के तहत कोई मामला नहीं बनता है। उन्हें 43डी में जाने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि कोई आतंकवादी गतिविधि नहीं है। अदालत ने कहा कि आरोपी सीएए के ख़िलाफ़ कुछ विरोध प्रदर्शन, 'चक्का-जाम' आयोजित कर रहे थे तो यूएपीए लगाने का सवाल ही कहाँ है!"

दिल्ली हाई कोर्ट ने 15 जून को देवांगना कालिता, नताशा नरवाल और आसिफ़ इक़बाल तन्हा को जमानत दे दी थी। इन तीनों के ख़िलाफ़ पिछले साल उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों को लेकर यूएपीए क़ानून के तहत मुक़दमा दर्ज किया गया था।

देवांगना और नताशा पिंजड़ा तोड़ आंदोलन की कार्यकर्ता हैं जबकि आसिफ़ जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के छात्र हैं। उत्तर-पूर्वी दिल्ली में पिछले साल 23 फरवरी को दंगे शुरू हुए थे और ये तीन दिन तक चले थे। इस दौरान यह इलाक़ा बुरी तरह अशांत रहा था और दंगाइयों ने वाहनों और दुकानों में आग लगा दी थी। 

जस्टिस दीपक गुप्ता

इस मामले में दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और जस्टिस एजे भामभानी की बेंच ने इन्हें जमानत देते वक़्त कहा था, 'ऐसा लगता है कि सरकार के मन में असंतोष की आवाज़ को दबाने को लेकर चिंता है। संविधान की ओर से दिए गए प्रदर्शन के अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच का अंतर हल्का या धुंधला हो गया है। अगर इस तरह की मानसिकता बढ़ती है तो यह लोकतंत्र के लिए काला दिन होगा।'

उन मामलों में दिल्ली पुलिस ने किस आधार पर यूएपीए के तहत केस दर्ज किए थे वह देवांगना कालिता के मामले से भी समझा जा सकता है। दिल्ली पुलिस ने देवांगना कालिता पर आरोप लगाया था कि जब लोग जाफ़राबाद मेट्रो स्टेशन पर सीएए और एनआरसी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे तो देवांगना वहाँ मौजूद थीं और उसने लोगों को उकसाया था। पुलिस का कहना था, '5 जनवरी 2020 की एक वीडियो क्लिप है जिसमें देवांगना कालिता सीएए-एनआरसी के ख़िलाफ़ भाषण देती दिख रही हैं। इसके अलावा उनके ट्विटर के वीडियो लिंक से भी यह पता चलता है कि वह 23 फ़रवरी, 2020 को वहाँ मौजूद थीं।'

यूएपीए और राजद्रोह क़ानूनों के ग़लत इस्तेमाल को लेकर ही जस्टिस दीपक गुप्ता ने अब पूछा है कि 'क्या हम अपनी इंसानियत खो रहे हैं?' उन्होंने ऐसे प्रावधानों को लेकर सवाल उठाए जो गंभीर चिकित्सा स्थिति वाले व्यक्तियों की ज़मानत पर रिहाई की अनुमति नहीं देते हैं।

जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा, 'समय आ गया है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्रोह) को असंवैधानिक क़रार दिया जाए।' 

बता दें कि क़रीब 10 दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने पूछा है कि देश के आज़ाद होने के 75 साल बाद भी क्या राजद्रोह के क़ानून की ज़रूरत है। अदालत ने कहा है कि वह इस क़ानून की वैधता को जांचेगी। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने कहा कि इस क़ानून को लेकर विवाद यह है कि यह औपनिवेशिक है और इसी तरह के क़ानून का इस्तेमाल अंग्रेजों ने महात्मा गांधी को चुप कराने के लिए किया था। इस मामले में दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने कहा कि यह क़ानून संस्थानों के काम करने के रास्ते में गंभीर ख़तरा है और इसमें ऐसी असीम ताक़त है जिनका ग़लत इस्तेमाल किया जा सकता है।