आतंकनिरोधी क़ानून, यूएपीए और राजद्रोह के प्रावधानों का इस्तेमाल कर जिस तरह विरोधियों को निशाने पर लिया जा रहा है और असहमति की आवाज़ों को कुचला जा रहा है, उस पर न्यायपालिका में चिंता बढ़ती जा रही है।
सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ ने एक कार्यक्रम में भाग लेते हुए इस पर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि असहमति को कुचलने के लिए आतंकनिरोधी क़ानूनों का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।
चंद्रचूड़ ने कहा, 'मैंने अर्णब गोस्वामी बनाम राज्य के फ़ैसले में कहा था कि अदालतों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आतंकनिरोधी क़ानूनों समेत तमाम आपराधिक क़ानूनों का इस्तेमाल निजी आज़ादी के उल्लंघन को रोकने के लिए पहली रक्षा पंक्ति के रूप में किया जाना चाहिए।'
उन्होंने अमेरिकी बार एसोसिएशन के एक कार्यक्रम में कहा,
“
सबसे बड़े और पुराने लोकतंत्र होने की वजह से भारत बहुसांस्कृतिक, बहुलतावादी समाज का आदर्श है। यहाँ संविधान में मानवाधिकारों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता जताई गई है।
जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़, जज, सुप्रीम कोर्ट
चंद्रचूड़ ने कहा कि भारत और अमेरिका की अदालतों को सबसे ताक़तवर अदालत माना गया है।
सुप्रीम कोर्ट के इस जज की यह टिप्पणी ऐसे समय आई जिसके कुछ दिन पहले ही मानवाधिकार व सामाजिक कार्यकर्ता स्टैन स्वामी का निधन हिरासत में हो गया।
कई बार की कोशिशों के बावजूद उन्हें ज़मानत नहीं मिली। भीमा कोरेगाँव मामले में उन पर आतंकनिरोधी क़ानून और यूएपीए लगा दिया गया था और एनएआई हर बार उनकी ज़मानत याचिका का विरोध करती थी।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने इसके आगे कहा कि भारत के सुप्रीम कोर्ट और संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय दोनों को अपनी शक्ति के मामले में सबसे शक्तिशाली अदालतों के रूप में जाना जाता है।
सुप्रीम कोर्ट के इस जज ने कहा कि बिल ऑफ राइट्स यह अधिकार देता है कि कोई भी व्यक्ति क़ानून की उचित प्रक्रिया के बिना जीवन, स्वतंत्रता या संपत्ति से वंचित नहीं होगा।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि वयस्कों के बीच समलैंगिक संबंधों को अपराध से बाहर करने का उनका फैसला लॉरेंस बनाम टेक्सस में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर भरोसा करते हुए था।
अखिल गोगोई, सामाजिक कार्यकर्ता, असम
इसके कुछ दिन पहले ही असम के विख्यात आंदोलनकारी और विधायक अखिल गोगोई को यूएपीए (ग़ैर क़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम) के एक मामले से मुक्त कर दिया गया था।
अदालत ने साफ़ कहा था कि ऐसे कोई भी सबूत नहीं हैं जिनसे प्रथम दृष्टया भी कहा जाए कि वे किसी भी तरह से आतंकवादी गतिविधियों में शामिल थे।
एनआईए अदालत के इस फ़ैसले को दिल्ली हाईकोर्ट के उस फ़ैसले के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है जिसमें उसने नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ़ तन्हा को यूएपीए के मामले में ज़मानत दी थी। इस फ़ैसले में उसने यूएपीए के दुरुपयोग की बात भी कही थी।
संयुक्त राष्ट्र की फटकार
यूएपीए पर भारत की काफी बदनामी हो रही है। अक्टूबर 2020 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संगठन ने इस पर ख़ास कर चिंता जताई थी और भारत को फटकारा था।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयुक्त ने यूएपीए पर विशेष रूप से सरकार की आलोचना करते हुए कहा था कि मानवाधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को इसके तहत निशाना बनाया गया है, ख़ास कर समान नागरिकता क़ानून के मुद्दे पर विरोध करने वालों पर यह लगाया गया।
उन्होंने कहा था कि यह भी खबर है कि 1,500 लोगों पर यह कानून लगाया गया है। अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकारों के मानक पर खरा नहीं उतरने के लिए इस क़ानून की आलोचना की गई है।