क्या फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म पढ़ना भी गुनाह है?

10:23 am Mar 16, 2020 | सत्य ब्यूरो - सत्य हिन्दी

क्या फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म पढ़ना ग़ुनाह है? क्या किसी की भावनाएँ आहत होंगी तो कबीर की रचनाएँ और रामायण के दोहे पढ़ने पर भी पाबंदी लगा दी जाएगी? क्या महाभारत को पढ़ने के लिए भी समय और जगह ठीक होनी चाहिए? यदि ऐसा है तो फिर ऐसे समाज-देश को दकियानूसी सोच में जकड़ा हुआ नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? जिन फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्मों को पढ़कर पीढ़ी दर पीढ़ी पली-बढ़ी है, जो कालजयी रचनाएँ हैं, क्या उन्हें समय और जगह की पाबंदी में कैद किया जाना चाहिए?

दरअसल, नागरिकता क़ानून के विरोध के दौरान जिस फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म को लेकर हंगामा मचा था और आईआईटी कानपुर में एक कमेटी तक बना दी गई थी उसकी रिपोर्ट अब आ गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि फ़ैज़ की नज़्म पढ़ने का वह समय और जगह ठीक नहीं थी। कमेटी ने इस पर साफ़ नहीं कहा कि फ़ैज़ की नज़्म धार्मिक भावनाएँ आहत करने वाली हैं या नहीं, जबकि शिकायत ही इसी आधार पर की गई थी। तो क्या आईआईटी कानपुर ने रिपोर्ट देने में बैलेंस बनाने की कोशिश की है जिससे उसकी कमेटी गठित करने के अपने निर्णय को भी सही साबित किया जा सके और बुद्धिजीवी वर्ग की उन आलोचनाओं से भी बचा जा सके जो जाँच बिठाने के उसके फ़ैसले की की गई थी। तब फ़ैज़ की नज़्म पर जाँच बिठाने के आईआईटी कानपुर के निर्णय को लोगों ने अतार्किक और शर्मनाक बताया था।

कानपुर आईआईटी के छात्रों ने 17 दिसंबर को नागरिकता क़ानून के मुद्दे पर विरोध-प्रदर्शन के दौरान फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की बेहद मशहूर इन्क़लाबी रचना 'हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे' का इस्तेमाल किया था। वे जामिया मिल्लिया इसलामिया के छात्रों के समर्थन और पुलिस कार्रवाई के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे। इस पर आईआईटी कानपुर के अस्थायी प्रोफ़ेसर वशि मंत शर्मा ने आरोप लगाया था कि यह नज़्म हिन्दू विरोधी है और इससे उनकी भावनाएँ आहत हुई हैं। कानपुर आईआईटी में इस पर छह सदस्यों की कमेटी बनाकर जाँच बिठा दी गई। प्रोफ़ेसर वशि मंत शर्मा वही प्रोफ़ेसर हैं जिन्होंने कन्हैया कुमार से लेकर कठुआ बलात्कार कांड और ताजमहल जैसे मुद्दों पर ऐसी बातें कही हैं, जो बेहद भड़काऊ हैं और जिन्हें किसी भी सूरत में उचित नहीं कहा जा सकता है। उन्होंने जम्मू-कश्मीर के कठुआ बलात्कार कांड पर कहा था कि यदि हिन्दू बलात्कार करने वाले होते तो कोई भी मुसलमान औरत नहीं बच सकती थी। उन्होंने अपनी किताब ‘अ लिबरल फ़्लॉज’ में पटियाला कोर्ट में कन्हैया कुमार पर हमले को उचित ठहराया था। ताजमहल पर उन्होंने कहा था भारतीय करदाताओं के पैसे से ताजमहल जैसी जगहों का रख रखाव नहीं होना चाहिए क्योंकि इसे मुसलमानों ने बनवाया है।

आईआईटी कानपुर द्वारा इस पर जाँच बिठाने पर साहित्य से जुड़े लोगों ने कड़ी आलोचना की थी। 'युद्ध में अयोध्या' किताब लिखने वाले हेमंत शर्मा ने लिखा है, 'सरकारों और व्यवस्था के ख़िलाफ़ लिखना कवियों का पुण्य मक़सद होता था। इसमें नफ़रत और धर्म मत ढूँढिए। जो लोग साहित्य को नहीं जानते, कविता के धर्म से अनजान हैं, साहित्य के बिम्ब प्रतीकों को नहीं समझते वही इस तरह की मूर्खता और कटुता की बात करते हैं।' उन्होंने कहा था कि साहित्य को इस दलदल में न घसीटें तो बेहतर होगा। तब यह भी कहा गया था कि फ़ैज़ और उनकी मशहूर नज़्म के साथ आज हो रहा है, अगर यही सोच चार सौ साल पहले कबीर के वक़्त होती तो कबीर भी आज थाने में बंद होते।

कुछ लोगों ने कहा था कि इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि फ़ैज़ जैसे प्रगतिशील वामपंथी शायर की नज़्म को मज़हबी चश्मे से देखा जाए और उस पर हिन्दू विरोधी या इसलाम परस्त होने का आरोप लगा दिया जाए।

काफ़ी आलोचनाओं के बाद भी आईआईटी कानपुर ने जाँच कमेटी गठित करने के अपने फ़ैसलों को वापस नहीं लिया। हालाँकि अब इस पर सख्त रवैया अपनाने से बचा गया है। अब उसकी रिपोर्ट आई है। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के अनुसार, कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में पाया है कि पाँच शिक्षकों और छह छात्रों, जो प्रदर्शन में शामिल हुए थे, की भूमिका 'उम्मीद के कमतर' रही। इसने मशविरा दिया है कि संस्था को उनको 'काउंसेल' यानी परामर्श देना चाहिए। शर्मा के आरोपों पर कमेटी से इसकी जाँच करने को भी कहा गया था कि क्या भड़काऊ, ग़लत और धमकाने वाली भाषा का भी प्रयोग किया गया था। 

'द इंडियन एक्सप्रेस' से बातचीत में जाँच कमेटी के अध्यक्ष मनिंद्र अग्रवाल ने कहा कि पिछले हफ़्ते ही रिपोर्ट सौंप दी गई है। उन्होंने यह भी कहा, 'जिसने इस नज़्म को गाया था उसने एक नोट लिखा कि यदि इससे किसी की भावनाएँ आहत हुई हैं तो हमें खेद है। इसलिए इस मामले को बंद कर दिया गया।'

यह पूछे जाने पर कि उन्हें यह क्यों लगा कि उस नज़्म के लिए समय और जगह सही नहीं थी तो उन्होंने कहा, 'माहौल नाजुक था। वहाँ अलग-अलग विचार के लोग थे और वे ग़ुस्से में थे। ऐसे में ऐसा कुछ नहीं किया जाना चाहिए कि वे और आक्रोशित हों...।' उन्होंने यह भी कहा कि कमेटी ने नज़्म की व्याख्या नहीं की है। 

यानी कुल मिलाकर हुआ यह कि कमेटी ने मामले को रफा-दफा करने की रिपोर्ट सौंप दी। नज़्म के हिंदू विरोधी होने का आरोप लगा, लेकिन इसकी व्याख्या नहीं की गई। भावनाएँ आहत होने का आरोप लगाया गया था तो खेद प्रकट ‘करवा’ दिया गया। पाँच शिक्षकों और 6 छात्रों के परामर्श की ज़रूरत बता दी गई। जाँच कमेटी गठित करने के आईआईटी के फ़ैसले की आलोचना से भी बचने का उपाय हो गया। फिर जाँच कमेटी गठित करने का फ़ैसला ही क्यों लिया गया था? समय और जगह की 'पाबंदी' से क्या यह संदेश देने के लिए कि दकियानूसी सोच ही आज के भारत की सचाई है?