चेचक की महामारी तब दुनिया में हर कहीं पहुंच चुकी थी। भारत में काम करने वाले ईस्ट इंडिया कंपनी के अंग्रेज कर्मचारियों की सबसे बड़ी प्राथमिकता होती थी, खुद को और अपने परिवार को चेचक व हैजे जैसी महामारियों से बचाना। यह बात अलग है कि चेचक की महामारी उनके अपने देश में भी बुरी तरह फैली हुई थी और वहां भी उसका कोई इलाज नहीं था।
बल्कि उसके मुकाबले भारत में उम्मीद की एक किरण थी और यह बच्चों को शीतला माता का टीका लगाने के अनुष्ठान के रूप में थी। इसमें चेचक के किसी रोगी यानी दूसरे शब्दों में जिस पर माता आई हो, उसके घावों में सुई चुभो कर उस सुई को स्वस्थ बच्चे के शरीर में चुभोया जाता था। इस अनुष्ठान का जो ब्योरा उपलब्ध है, उसके मुताबिक़ जिस स्वस्थ बच्चे को यह सुई चुभोई जाती थी, उसे कुछ समय के लिए बुखार आता था। यह भी कहा जाता है कि उसके बाद उसे कभी यह महामारी नहीं होती थी।
अंग्रेजों ने भी करवाया अनुष्ठान
पूरे देश में अलग-अलग जगहों पर यह अनुष्ठान अलग तरह से होता था। कुछ ब्योरों में बताया गया है कि इसमें सफलता का प्रतिशत बहुत ज्यादा नहीं था लेकिन अंग्रेज इसमें उम्मीद देखने लग गए थे। ऐसे भी कई ब्योरे हैं जिनमें बहुत से अंग्रेजों ने अपने बच्चों के लिए यह अनुष्ठान करवाया। ऐसी ही एक पद्धति चीन में भी अपनाई जाती थी और कहा जाता है कि इस तरीके को यूरोप ले जाने की बात भी सोची जाने लगी थी।
ब्रिटेन में एडवर्ड जेनर ने काउ पाॅक्स के मरीजों पर शोध करके चेचक की वैक्सीन तैयार कर ली जो कि दुनिया की पहली वैक्सीन भी थी। हालांकि जेनर की यह खोज भी कुछ वैसे ही परंपरागत ज्ञान पर आधारित थी जो भारत और चीन में टीके के अनुष्ठान के लिए इस्तेमाल होता है।
जेनर की भूमिका यह थी कि उसने इस ज्ञान को आधुनिक चिकित्सा पद्धति के अुनरूप ढालते हुए इस तरीके के विस्तार का आधार तैयार कर दिया था। 1796 में बनी इस वैक्सीन का प्रयोग जब कुछ ही समय बाद शुरू हुआ तो दुनिया भर में इसकी मांग उठने लगी। खासकर भारत में, जहां अंग्रेजों की आबादी बड़ी संख्या में आकर बस चुकी थी।
लेकिन यह आसान नहीं था। वह वैक्सीन ऐसी नहीं थी जिसका बड़ी तादाद में उत्पादन कर और बोतलों में भर कर भेजा जा सके। इसका एक ही तरीका था, एक जीवित व्यक्ति के लिंफ यानी लसिका ग्रंथियों से रक्त निकालकर दूसरे में इंजेक्ट कर दिया जाए। यह इलाज काफी कुछ वैसा ही था जैसे आजकल कोरोना वायरस के लिए प्लाज़्मा थेरेपी होती है।
मुश्किलों की लंबी फेहरिस्त
जेनर ने इसका एक दूसरा तरीका सोचा, उसने कुछ ऐसे लोगों के लिंफ पैक किए जिन्हें पहले वैक्सीन दी जा चुकी थी और उन्हें 1799 के अंतिम दिनों में भारत के लिए रवाना कर दिया। इन लिंफ को क्वीन इंडियन मैन नाम के एक समुद्री जहाज पर एक पार्सल बनाकर डाल दिया गया। उस जहाज को पूरी दुनिया का चक्कर लगाते हुए भारत पहुँचना था। और कुछ महीने बाद जब वह जहाज दक्षिण अफ्रीका के किसी तट पर लंगर डाले खड़ा था तो उसमें आग लग गई और पूरी उम्मीद वहीं राख हो गई।
लेकिन इस बीच एक बात और साफ हो गई कि सफर काफी लंबा है और भारत पहुँचने पर लिंफ पैक इस लायक नहीं रहेंगे कि इन्हें इस्तेमाल किया जा सके। उस समय इग्लैंड से भारत का सफर कुछ ज्यादा ही लंबा होता था। स्वेज नहर तब तक नहीं बनी थी और जहाजों को पूरे अफ्रीकी महाद्वीप का चक्कर लगाते हुए हिंद महासागर में प्रवेश करना होता था।
मानव श्रृंखला बनाई गई
इस बार जेनर ने इसका दूसरा तरीका सोचा। उसने एक ऐसी मानव श्रृंखला बनाने के लिए स्वयंसेवक ढूंढने शुरू कर दिए, जिसमें एक के लिंफ का इंजेक्शन दूसरे को लगाते हुए इस श्रृंखला को सीलोन यानी श्रीलंका होते हुए बंबई तक पहुँचाना था। यह योजना काफी महत्वाकांक्षी थी और इसमें चूक के खतरे भी कई थे। और वही हुआ जिसका डर था, यह वैक्सीन सीलोन भी नहीं पहुंच सकी। जहां चेचक फैला हुआ था और इसका बड़ी बेताबी से इंतजार किया जा रहा था।
अगली बार मानव श्रृंखला का यही तरीका फिर से अपनाया गया लेकिन इस बार यात्रा समुद्री नहीं जमीनी रखी गई। यह वैक्सीन वियेना, कंस्टेनटिनपोल और बगदाद होते हुए भारत पहुंची। बगदाद में एक बच्चे की बांह में इस वैक्सीन का इंजेक्शन लगा और यह बच्चा बसरा से भारत की ओर रवाना कर दिया गया।
1802 में जब यह बच्चा भारत पहुँचा तो उसके साथ ही लाइव वैक्सीन के लिंफ भी भारत पहुंच गए। वैक्सीन का सबसे पहले प्रयोग हुआ मुंबई में, जहां अन्ना दस्थाल नाम के बच्चे को यह वैक्सीन एक इंजेक्शन के जरिये लगाई गई।
इंजेक्शन लगाने का यह तरीका कुछ हद तक शीतला माता वाले उस अनुष्ठान जैसा ही था जिसे टीका कहा जाता था इसलिए इस वैक्सीनेशन को भी टीका ही कहा जाने लगा। बाद में तो टीका शब्द किसी भी तरह के इंजेक्शन के लिए इस्तेमाल होने लगा।
वैक्सीन तो भारत पहुंच गई लेकिन इसके आगे की यात्रा आसान नहीं थी। पूरे भारत में उसे लगाने के लिए लोगों को ट्रेनिंग देना काफी बड़ा काम था। शुरू में तो यह काम आसानी से चला क्योंकि पहली प्राथमिकता ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम कर रहे अंग्रेज़ों के परिवारों को दी जानी थी और वे इसके लिए आसानी से तैयार थे। नवंबर में जब यह वैक्सीन कोलकाता पहुंची तो सबसे पहला इंजेक्शन 15 साल के एक अंग्रेज बच्चे चार्ल्स नार्टन को ही लगाया गया।
वैक्सीन का हुआ विरोध
लेकिन समस्या तब आई जब इसे भारतीयों को लगाने की बारी आई। क्योंकि यह वैक्सीन काउ पाॅक्स से जुड़ी थी इसलिए कहा जाने लगा कि यह गाय के खून से बनी है। इसे लेकर कई तरह के विरोध होने लगे। सबसे ज्यादा विरोध दक्षिण भारत में हुआ। जहां स्वामी नाईक नाम के एक व्यक्ति को चीफ वैक्सीनेटर बनाया गया था। उन पर कई बार हमले हुए।
पूर्वाग्रहों के कारण हुई मुश्किल
पहली बार किसी इलाज को लेकर भारतीय भाषाओं में दीवारों पर पोस्टर चिपकाए गए जिससे अफवाहों पर रोक लगे। सिर्फ गाय का मुद्दा ही नहीं था, कई दूसरी तरह के पूर्वाग्रह भी थे जिन्हें खत्म करने के लिए जगह-जगह अभियान चलाने पड़े। हालांकि पूर्वाग्रह खत्म होने में लगभग आधी सदी का समय लग गया। लोगों की धारणाएं तभी बदलीं जब उन्होंने लंबे समय तक वैक्सीन का असर देख लिया।