आखिरकार अब यह साफ हो गया है कि देश में पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतें सरकार के स्तर पर ही तय होती हैं और इसमें तेल कंपनियों की कोई भूमिका नहीं होती। केंद्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी के मुताबिक पिछले दो महीने से पेट्रोल और डीजल पर भारी घाटा झेल रही तेल कंपनियों ने राहत की मांग करते हुए सरकार का दरवाजा खटखटाया है।
हरदीप पुरी के मुताबिक इन कंपनियों की मांग है कि उन्हें पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों के निर्धारण संबंधी निर्णय लेने की छूट दी जाए, क्योंकि कंपनियों को पेट्रोल पर 17.10 रुपए और डीजल पर 20.40 रुपए प्रति लीटर तक का घाटा उठाना पड़ रहा है।
केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री के इस बयान के जरिए पहली बार सरकार की यह स्वीकारोक्ति आधिकारिक तौर पर सामने आई है कि पेट्रोल-डीजल की कीमतें सरकार के निर्देश पर कम-ज्यादा की जाती हैं। अन्यथा इससे पहले हम देखते आए हैं कि देश में जब-जब भी पेट्रोल और डीजल की दाम बढ़ते हैं और जनता में हाहाकार मचता है तो सरकार के मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता संसद समेत हर मंच पर यह मिथकीय कथा बांचने लगते हैं कि पेट्रोल और डीजल के खुदरा दाम पेट्रोलियम कंपनियां तय करती हैं और सरकार का इससे कोई लेना-देना नहीं है।
पिछले छह महीने में पेट्रोल-डीजल पर उत्पाद शुल्क में यह दूसरी कटौती है। पहली कटौती पिछले साल नवंबर के पहले हफ्ते में हुई थी, जब केंद्र सरकार ने पेट्रोल पर पांच रुपए और डीजल पर 10 रुपए उत्पाद शुल्क घटाया था। उससे जो राहत लोगों को मिली थी, वह साढ़े चार महीने तक रही थी। हालांकि नवंबर-दिसंबर में जब कीमतों का बढ़ना रूका था, तब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत कम हो रही थी और एक समय यह कम होकर 63 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी। सो, कीमतें नहीं बढ़ने की वजह समझ में आ रही थी। लेकिन मार्च में इसकी कीमत एक सौ डॉलर प्रति बैरल होने की ओर बढ़ रही थी और यूक्रेन में रूस के सेना भेजने के साथ ही 99 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी। इसके बावजूद कीमतें नहीं बढ़ीं।
नवंबर के आखिरी हफ्ते में कटौती हुई थी और जनवरी में उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की घोषणा हुई थी। उससे पहले पेट्रोल और डीजल के दाम तीन नवंबर को बढ़ाए गए थे। उस समय भी कच्चे तेल की कीमत 85 डॉलर प्रति बैरल थी। लेकिन उसके बाद अचानक दोनों ईंधनों की कीमतों में बढ़ोतरी का सिलसिला थम गया। उसके बाद केंद्र सरकार ने डीजल पर उत्पाद शुल्क में 10 रुपए और पेट्रोल पर पांच रुपए प्रति लीटर की कटौती की।
सरकार का कटौती करना समझ में आता हैं, क्योंकि उसने इस शुल्क में अनाप-शनाप बढ़ोतरी की थी, इसलिए जाहिर है कि चुनावों को ध्यान में रखते हुए पेट्रोल-डीजल के दाम घटाए गए थे। लेकिन सवाल है कि कथित तौर पर हर दिन कीमत तय करने वाली पेट्रोलियम मार्केटिंग कंपनियों ने भी चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक कीमतें किस तर्क से स्थिर रखी?
पांचों राज्यों के चुनाव नतीजे 10 मार्च को आए थे। उसके बाद 12दिन बाद तक कीमतें स्थिर रहीं और फिर 22 मार्च से उनमें बढ़ोतरी शुरू हुई। यानी पांच राज्यों में चुनाव होने थे तो सरकार के कहने पर कीमतें स्थिर रखी गईं।
ऐसे ही पिछले साल मार्च से मई के पहले हफ्ते तक भी पांच राज्यों के चुनाव के कारण कीमतें नहीं बढ़ी थीं। उस समय पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी में विधानसभा के चुनाव हो रहे थे।
जाहिर है कि पेट्रोल-डीजल के खुदरा दामों में कटौती केंद्र सरकार अपने राजनीतिक नफा-नुकसान को ध्यान में रख कर करती है और जब दाम बढ़ने लगते हैं तो उसके लिए पेट्रोलियम कंपनी पर जिम्मेदारी डाल देती है या फिर राज्य सरकारों पर। कभी-कभी तो सरकार के मंत्री यूपीए सरकार को भी जिम्मेदार ठहराने से नहीं चूकते। पिछले साल जब पेट्रोल के दाम 100 रुपए के करीब पहुंच गए थे तब तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने संसद में कहा था कि इसके लिए कांग्रेस और यूपीए सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं।
इसी तरह अभी अप्रैल महीने में जब पेट्रोल-डीजल के खुदरा दाम रोज छलांग लगा रहे थे, उसी दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्यमंत्रियों की एक बैठक आयोजित की थी। बैठक कोरोना को लेकर थी लेकिन उसमें प्रधानमंत्री ने पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों का जिक्र छेड़ दिया।
उन्होंने दाम बढ़ने के लिए पहले तो रूस-यूक्रेन युद्ध को जिम्मेदार बताया और फिर अपनी आदत के मुताबिक राजनीतिक पैंतरा अपनाते हुए गेंद विपक्षी मुख्यमंत्रियों के पाले में डाल दी। उन्होंने कहा कि विपक्षी मुख्यमंत्रियों को चाहिए कि वे जनता को राहत देने के लिए पेट्रोल-डीजल पर वैट की दरें कम करें, जैसे कि केंद्र सरकार ने नवंबर महीने में उत्पाद शुल्क घटाया था। लेकिन यह कहते हुए उन्हें भाजपा शासित किसी भी प्रदेश की याद नहीं आई जहां उस समय भी पेट्रोल के दाम 105 से लेकर 112 रुपए लीटर मिल रहा था।
बीते नवंबर में केंद्र सरकार ने पेट्रोल पर पांच रुपया उत्पाद शुल्क कम किया था और 22 मार्च से शुरू हुई बढ़ोतरी के बाद दो हफ्ते में कीमत 10 रुपए 40 पैसे प्रति लीटर बढ़ गई। यानी सरकार ने जितना घटाया उसका दोगुना सरकारी पेट्रोलियम कंपनियों ने बढ़ा दिया।
यह हाथ को पीछे से घुमा कर नाक पकड़ने का तरीका है। इसीलिए अब सवाल है कि इस बार जो राहत मिली है वह कब तक रहेगी? यह सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि अगले चार-पांच महीने तक कोई चुनाव नहीं होना है। गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा के चुनाव आगामी नवंबर-दिसंबर में होंगे।
इस बीच खबर है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत में एक बार फिर से बढ़ोतरी शुरू हो गई है। लेकिन भारत की सरकारी पेट्रोलियम विपणन कंपनियां अभी शांत बैठी हैं, यानी उन्होंने पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों में कोई बढ़ोतरी नहीं की है। पिछले दो हफ्ते में कच्चे तेल का दाम बढ़ते-बढ़ते 117 डॉलर प्रति बैरल को पार गया है और आगे भी बढ़ते रहने के ही आसार दिख रहे हैं। इसलिए यह तय है कि जैसे-जैसे कच्चे तेल के दाम बढ़ेंगे, वैसे-वैसे पेट्रोलियम कंपनियों पर पेट्रोल-डीजल खुदरा दाम बढ़ाने का दबाव बढ़ेगा।
इसलिए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम में हो रही बढ़ोतरी को देखते हुए संभव है कि सरकार ने लोगों को राहत देने की जो उदारता पिछले दिनों दिखाई है, वह एकाध महीने से ज्यादा न चले। पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने तेल कंपनियों को घाटा होने का जो बयान दिया है वह इसी बात का संकेत है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों का बढ़ना जारी रहा तो खुदरा दाम भी बढ़ेंगे। दामों के बढ़ने का सिलसिला अक्टूबर-नवंबर महीने तक चलेगा, जब तक कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान नहीं हो जाता।