GST: दक्षिण भारत से सौतेला व्यवहार, दिल्ली में धरने पर क्यों है कर्नाटक सरकार?

02:40 pm Feb 07, 2024 | सत्य ब्यूरो

कर्नाटक के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता सिद्धारमैया, उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार, और कर्नाटक के कई अन्य कांग्रेस मंत्रियों, विधायकों और एमएलसी ने केंद्र के "कर्नाटक के आर्थिक उत्पीड़न" के विरोध में बुधवार, 7 फरवरी को नई दिल्ली के जंतर मंतर पर प्रदर्शन किया।  कर्नाटक ने टैक्सों के ट्रांसफर में कर्नाटक की कम हिस्सेदारी, जीएसटी मुआवजा प्रदान करने और ढांचागत परियोजनाओं के कार्यान्वयन में देरी और वित्त आयोग द्वारा अनुशंसित विशेष अनुदान को खारिज करने सहित अन्य के लिए भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को दोषी ठहराया है।

दक्षिण भारत का कर्नाटक अकेला राज्य नहीं है जो ऐसा आरोप लगा रहा है। इसी तरह के आरोप, केरल, तमिलनाडु भी लगा चुके हैं। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी भी इस मुद्दे पर अक्सर नाराज रहती हैं। कई कांग्रेस शासित राज्य केंद्र पर ऐसा आरोप लगा चुके हैं। बिहार के सीएम नीतीश कुमार जब महागठबंधन में थे तो वो भी बिहार के साथ केंद्र के सौतेले व्यवहार का मुद्दा उठाते थे। यानी गैर भाजपा शासित राज्यों की शिकायतें ज्यादा हैं।


डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार ने बुधवार को जंतर मंतर पर मीडिया से कहा, 'चलो दिल्ली' नामक विरोध प्रदर्शन "सिर्फ एक राजनीतिक आंदोलन नहीं है, बल्कि कन्नडिगाओं की पहचान पर जानबूझकर और व्यवस्थित हमले के खिलाफ एक सामाजिक आंदोलन भी है।"

आरोप है कि केंद्र सरकार के सौतेले व्यवहार के कारण 2017-18 से कर्नाटक को 1,87,867 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। यह नुकसान रेकॉर्ड पर है। जुबानी नहीं है।


कर्नाटक के डिप्टी सीएम के पास डेटा है। डीके शिवकुमार ने कहा कि "जीएसटी का कार्यान्वयन जून 2022 में मुआवजा बंद होने के बाद हमारे लिए अभिशाप में बदल गया है। इस अचानक रुकावट ने हमारे राजकोषीय स्वास्थ्य को गंभीर रूप से खराब कर दिया है, जिससे 15 प्रतिशत की टैक्स संग्रह वृद्धि दर को फिर से हासिल करना एक कठिन कार्य बन गया है जिसे हमने कभी गर्व से बनाए रखा था।"

उन्होंने कहा कि जीएसटी के "अवैज्ञानिक कार्यान्वयन" के कारण कर्नाटक को लगभग 59,274 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। हमारी सरकार ने जीएसटी मुआवजे पर अपडेट लेने के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को 3 पत्र लिखे हैं, लेकिन दुर्भाग्य से, हमें उनसे कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है।" शिवकुमार ने दावा किया कि "हर साल टैक्स राजस्व में कर्नाटक के 4,30,000 करोड़ रुपये के पर्याप्त योगदान के बावजूद, हमें केंद्र सरकार से लगभग 50,000 करोड़ रुपये ही मिलते हैं।"

डीके शिवकुमार ने कहा "केंद्रीय बजट का आकार दोगुना हो गया है, लोगों को लगता होगा कि हमारी हिस्सेदारी उसमें उसी अनुपात में बढ़ी होगी। लेकिन उसके विपरीत, हमारा हिस्सा आधे से भी कम हो गया है। यह गिरावट सिर्फ कागजों पर संख्या नहीं है, यह कर्नाटक के लोगों के खिलाफ बढ़ता अन्याय है। कर्नाटक के लिए 5,495 करोड़ रुपये के विशेष अनुदान की 15वें वित्त आयोग की सिफारिश को "अनौपचारिक ढंग से खारिज कर दिया गया। "उसी 15वें वित्त आयोग ने बेंगलुरु पेरिफेरल रिंग रोड के लिए 3,000 करोड़ रुपये और बेंगलुरु में झीलों के विकास के लिए 3,000 करोड़ रुपये की सिफारिश भी की थी। इस सिफारिश को भी खारिज कर दिया गया।"

सिद्धारमैया का कहना है-  14वें वित्त आयोग (2015-2020) के तहत, कर्नाटक को टैक्स हिस्सेदारी का 4.71 फीसदी प्राप्त हुआ, जिसे 15वें वित्त आयोग (2020-2025) ने घटाकर 3.64 फीसदी कर दिया, जिसमें 1.07 प्रतिशत की कमी है।

दो बड़े मुद्दे

दक्षिण भारत के राज्यों के दो प्रमुख मुद्दे हैं। सबसे पहला, 15वें वित्त आयोग के स्तरों की तुलना में पिछले कुछ वर्षों में राज्यों को दिया जाने वाला टैक्स ट्रांसफर का पैसा काफी कम होता जा रहा है। दूसरा, कम आबादी वाले और राजकोषीय रूप से मजबूत दक्षिणी राज्यों के मुकाबले कुछ उत्तरी राज्य, जो टैक्स वसूली में कमजोर हैं, को केंद्रीय करों का बड़ा हिस्सा मिलता है।

टैक्स ट्रांसफर से अर्थ है केंद्र द्वारा राज्यों को केंद्रीय करों और कर्तव्यों की शुद्ध आय के वितरण से है, जो उन्हें विकास, कल्याण और प्राथमिकता क्षेत्र की परियोजनाओं और योजनाओं पर खर्च करने में मदद करता है। वर्तमान में, 15वें वित्त आयोग की सिफारिश के अनुसार, केंद्र के विभाज्य टैक्स पूल का 41 प्रतिशत 2021-22 से 2025-26 की पांच साल की अवधि को कवर करते हुए सालाना 14 किश्तों में राज्यों को हस्तांतरित किया जाता है।

इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च ने 6 फरवरी को एक नोट में कहा कि राज्यों को दिया जाने वाला टैक्स ट्रांसफर 15वें वित्त आयोग की सिफारिश की तुलना में काफी कम है। वित्त वर्ष 2015 में, केंद्र सरकार ने राज्यों के साथ विभाज्य टैक्स पूल (उपकर और अधिभार (जीएसटी मुआवजा उपकर को छोड़कर) और केंद्र शासित प्रदेशों के टैक्सों का सकल कर राजस्व) का 35.5 प्रतिशत साझा करने का बजट रखा है, जो सुझाए गए 41 प्रतिशत से कम है। इसके अलावा, केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी वित्त वर्ष 2011-वित्त वर्ष 2015 के दौरान विभाज्य पूल के 35.4 प्रतिशत के औसत से नीचे की ओर बढ़ रही है, जो वित्त वर्ष 16-वित्त वर्ष 20 के दौरान 39.8 प्रतिशत से कम है।

भारतीय रिज़र्व बैंक ने 11 दिसंबर, 2023 को जारी 2023-24 के बजट अध्ययन में इस पर प्रकाश डाला। “उपकर और अधिभार में वृद्धि के कारण, 15वें वित्त पैनल द्वारा सिफारिश किए गए टैक्स ट्रांसफर में 10 प्रतिशत अंक की वृद्धि के बावजूद, विभाज्य पूल 2011-12 में सकल कर राजस्व के 88.6 प्रतिशत से घटकर 2021-22 में 78.9 प्रतिशत हो गया है।” केंद्रीय बैंक ने सुझाव दिया कि चूंकि वास्तविक टैक्स ट्रांसफर केंद्र द्वारा लगाए गए उपकरों और अधिभारों पर गंभीर रूप से निर्भर करता है। इसलिए राज्यों को अपनी वित्तीय क्षमता बढ़ाने और ट्रांसफर पर निर्भरता कम करने की आवश्यकता है।

उत्तर बनाम दक्षिण भारत

2020 से पहले भी दक्षिणी राज्यों ने चिंताएं उठाई थीं। जब 15वें वित्त आयोग ने केंद्र सरकार से राज्यों को करों के ट्रांसफर का निर्णय लेने के लिए 2011 की जनसंख्या जनगणना का उपयोग करते हुए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। जिसमें कहा गया था कि जिन राज्यों ने अपनी आबादी घटाई है, लेकिन उनकी आबादी ज्यादा है तो उन्हें ज्यादा हिस्सा मिलेगा। इस बहाने उत्तर भारत को ज्यादा हिस्सा मिला और संयोग से वहां भाजपा की सरकारें हैं। इस मुद्दे पर दक्षिण भारत के राज्य शुरू से अपनी चिन्ता से अवगत करा रहे हैं। 

इसका मतलब यह है कि नवीनतम जनगणना के अनुसार किसी राज्य की जनसंख्या जितनी अधिक होगी, उसे अपनी खर्च की जरूरतों के लिए केंद्र सरकार से उतनी ही अधिक धनराशि मिलेगी। इसलिए, भारत में कम आबादी वाले राज्यों को राजस्व के विभाज्य पूल से नुकसान होगा। यहीं पर उत्तर, दक्षिण विभाजन की बहस शुरू होती है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे उत्तर भारतीय राज्य जिनकी आबादी 1971 के बाद से तेजी से बढ़ी है, उन्हें स्वाभाविक रूप से पूर्ववर्ती 15वें वित्त पैनल के बदलाव के कारण धन का अपेक्षाकृत बड़ा हिस्सा मिलता है।

उत्तरी राज्य उत्तर प्रदेश की जनसंख्या में 2001 और 2011 के बीच 20 प्रतिशत से अधिक की दर से वृद्धि हुई, जबकि दक्षिणी राज्य कर्नाटक में इसी अवधि के दौरान 15.60 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। यदि वित्त आयोग अभी भी 1971 की जनगणना के हिस्से को एक मानदंड के रूप में उपयोग करता है तो स्थिति अलग होगी क्योंकि इन दोनों राज्यों में जनसंख्या वृद्धि दर में तब अंतर कम था। उत्तर प्रदेश में 1971-1981 के बीच 25 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि देखी गई, जबकि कर्नाटक में 26 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि देखी गई।

इसी तरह किसी अन्य दक्षिणी राज्य की तुलना उत्तर के समकक्ष राज्य से होती है तो कहानी वही रहेगी। 2001 और 2011 के बीच तमिलनाडु की जनसंख्या में 15 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई, जबकि बिहार में 25 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि देखी गई। जाहिर है कि बिहार को ज्यादा हिस्सा मिलेगा। इसलिए, इस आधार पर बेहतर प्रदर्शन करने वाले कई दक्षिणी राज्यों को कम प्रति व्यक्ति आय वाले राज्यों की तुलना में कम हिस्सा मिलेगा।