आरक्षण लागू करने को लेकर यूजीसी के दिशानिर्देशों वाले नए मसौदे ने बीजेपी सरकार की आरक्षण नीति पर फिर से सवाल खड़े कर दिए। यूजीसी के दिशानिर्देशों वाला नया मसौदा 'डि-रिजर्वेशन' को लेकर था। इस पर इतना ज़्यादा विवाद हुआ कि यूजीसी की वेबसाइट से उस मसौदे को हटा लिया गया। आरोप लगे कि 'डि-रिजर्वेशन' की यह नीति से पूरे आरक्षण के विचार पर ही हमला है! इसी को लेकर छात्र संगठनों से लेकर टीचर एसोसिएशन तक उबल पड़े और सरकार को सफाई जारी करनी पड़ी। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इस विवाद पर कहा कि एक भी आरक्षित पद को अनारक्षित नहीं किया जाएगा।
केंद्रीय मंत्री के इस बयान से क्या अब विवाद ख़त्म हो जाएगा? यदि ऐसा है तो फिर इस पर सफाई क्यों नहीं दी गई कि यूजीसी ने आख़िर 'डि-रिजर्वेशन' वाला मसौदा पेश क्यों किया और इसके लिए ग़लती मानने के बजाए उस मसौदे को ही वेबसाइट से हटा लिया गया? इन सवालों के जवाब जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर 'डि-रिजर्वेशन' नीति क्या है, इस पर विवाद क्यों है, क्या यह नियमों के अनुसार सही है और बीजेपी की आरक्षण को लेकर नीति पर सवाल क्या उठ रहे हैं?
शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर यूजीसी के दिशानिर्देश पहले से ही जारी हैं। लेकिन विवाद तब हुआ जब इसको लेकर रविवार को नये दिशानिर्देश का मसौदा जारी किया गया। इसमें 'डि-रिजर्वेशन' को लेकर विवाद है। 'डि-रिजर्वेशन' से मतलब है कि यदि एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षित पदों को भरने के लिए पर्याप्त उम्मीदवार नहीं हैं, तो इन समुदायों के लिए निर्धारित पदों को अनारक्षित घोषित किया जा सकता है। बार-बार ऐसे खाली पदों को लेकर सवाल उठता रहा है और सरकार लगातार कहती रही है कि वह उन पदों पर भर्ती करेगी है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पास आरक्षण लागू करने के लिए पहले से ही दिशानिर्देश हैं, जो 2006 में जारी किए गए थे। क़रीब एक साल पहले उच्च शिक्षा नियामक ने एक चार सदस्यीय समिति को एक नए मसौदे पर काम करने का काम सौंपा था। यूजीसी ने उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए नए दिशानिर्देश तैयार करने के लिए डॉ. एचएस राणा, प्रोफेसर डीके वर्मा, डॉ. ओपी शुक्ला और डॉ. जीएस चौहान की चार सदस्यीय विशेषज्ञ समिति नियुक्त की। इसका उद्देश्य उच्च शिक्षा संस्थानों में सरकार की आरक्षण नीति के कार्यान्वयन के लिए यूजीजी के 2006 के दिशानिर्देशों को बदलना है।
यूजीसी समिति द्वारा तैयार किए गए मसौदा दिशानिर्देशों को 27 दिसंबर को सार्वजनिक किया गया था, जिसमें 28 जनवरी तक सार्वजनिक प्रतिक्रिया मांगी गई थी। इसमें संकाय पदों में कोटा के निर्धारण, आरक्षण रोस्टर की तैयारी सहित डि-रिजर्वेशन का भी प्रावधान था।
डि-रिजर्वेशन वाले अध्याय में कहा गया है कि जबकि सीधी भर्ती के मामले में आरक्षित पदों के डि-रिजर्वेशन पर सामान्य प्रतिबंध है, असाधारण परिस्थितियों में ऐसा किया जा सकता है यदि कोई विश्वविद्यालय ठीक-ठीक वजह बता दे।
डि-रिजर्वेशन का अर्थ उन पदों को सामान्य वर्ग के लिए खोलना है जो मूल रूप से एससी, एसटी, ओबीसी, ईडब्ल्यूएस उम्मीदवारों के लिए आरक्षित थे। मसौदा दिशानिर्देशों में कहा गया था कि विशेष अनुमति के लिए ग्रुप ए और ग्रुप बी स्तर की नौकरियों के आरक्षण के प्रस्ताव शिक्षा मंत्रालय को प्रस्तुत किए जाने चाहिए, जबकि ग्रुप सी और डी स्तर के पदों के प्रस्ताव कार्यकारी परिषद को भेजे जाने चाहिए।
इसी को लेकर भारी विरोध हुआ। शिक्षक संघों से लेकर छात्र संगठनों तक ने इसका विरोध किया। मसौदा तैयार करने वाली कमेटी के सदस्यों को लेकर ही सवाल ख़ड़े किए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि जिस तरह से डि-रिजर्वेशन का प्रावधान किया गया उससे तो विश्वविद्यालयों में पूरी तरह आरक्षण ही ख़त्म कर दिया जाएगा।
यह राजनीतिक मुद्दा भी बन गया। कांग्रेस जैसे विपक्षी दलों ने इसको मुद्दा बनाया। कांग्रेस ने सोमवार को आरोप लगाया कि यूजीसी के नए ड्राफ्ट में उच्च शिक्षा संस्थानों में एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग को मिलने वाले आरक्षण को ख़त्म करने की साजिश हो रही है।
राहुल गांधी ने सोमवार को ट्वीट किया था, 'आज 45 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में लगभग 7,000 आरक्षित पदों में से 3,000 रिक्त हैं, और जिनमें सिर्फ 7.1% दलित, 1.6% आदिवासी और 4.5% पिछड़े वर्ग के प्रोफेसर हैं।'
उन्होंने आरोप लगाया कि आरक्षण की समीक्षा तक की बात कर चुकी बीजेपी-आरएसएस अब ऐसे उच्च शिक्षा संस्थानों में से वंचित वर्ग के हिस्से की नौकरियां छीनना चाहती है। उन्होंने कहा, "यह सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने वाले नायकों के सपनों की हत्या और वंचित वर्गों की भागीदारी ख़त्म करने का प्रयास है। यही ‘सांकेतिक राजनीति’ और ‘वास्तविक न्याय’ के बीच का फर्क है और यही है भाजपा का चरित्र।"
केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने राहुल गांधी पर पलटवार करते हुए आरोप लगाया कि उनकी राजनीति पूरी तरह से झूठ पर आधारित है।
प्रधान ने कहा कि राहुल गांधी को या तो अपने दावे के समर्थन में ठोस सबूत देना चाहिए या अपने झूठ के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिए।
मंत्री ने एक पोस्ट में कहा, 'राहुल गांधी की राजनीति पूरी तरह से झूठ पर आधारित है। जैसे ही एक झूठ उजागर होता है, वे दूसरा झूठ लेकर खड़े हो जाते हैं। उनके द्वारा दिए गए झूठे बयानों की सूची अंतहीन है। अब राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षित पदों पर नियुक्ति को लेकर नया झूठ बोल रहे हैं। लेकिन उनका यह झूठ भी बेनकाब हो गया है।'
मंत्री ने दावा किया कि 6,080 नियुक्तियां की गईं, जिसमें अनुसूचित जाति की भागीदारी 14.3 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति की सात प्रतिशत और अन्य पिछड़ा वर्ग की 23.42 प्रतिशत है। मंत्री ने कहा, ‘आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में आरक्षित पदों पर सबसे अधिक नियुक्तियां नरेन्द्र मोदी सरकार के तहत की गई हैं।’