राजनीति में बेहतर शासन के लिए मजबूत विपक्ष होना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि अगर विपक्ष मजबूत और सरकार को घेरने वाला होगा, तो सरकार सत्ता के जाने के डर से बेहतर काम करेगी। और निश्चित रूप से इससे फायदा जनता का होगा। लेकिन दूसरी स्थिति में जब विपक्ष लड़ने के लिए ही तैयार न हो और युद्ध में जाने से पहले ही हथियार डाल दे तो क्या होगा। ऐसे ही कुछ हालात अक्टूबर में दो राज्यों महाराष्ट्र और हरियाणा में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर विपक्षी दलों के हैं।
महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा चुनाव की तारीख़ों की घोषणा हो चुकी है। दोनों ही राज्यों में 21 अक्टूबर को वोट डाले जाएँगे और 24 अक्टूबर को मतदान होगा। मतदान होने में एक महीने से भी कम समय बचा है, इस ख़बर में हम दोनों राज्यों के राजनीतिक हालात को लेकर बात करेंगे। पहले बात करते हैं महाराष्ट्र की।
महाराष्ट्र में विधानसभा की 288 सीटें हैं और लड़ाई बीजेपी-शिवसेना के भगवा गठबंधन और कांग्रेस-एनसीपी के बीच है। बीजेपी-शिवसेना को लोकसभा चुनाव में राज्य की 48 लोकसभा सीटों में से 41 पर जीत मिली थी और विधानसभा सीटों के लिहाज से देखें तो भगवा गठबंधन 226 सीटों पर आगे रहा था और इस बार भी उसकी तैयारी जोरदार है। लेकिन विपक्ष की हालत बेहद ख़राब है।
कांग्रेस के बड़े नेता महाराष्ट्र में उसे छोड़कर जा चुके हैं। कांग्रेस ने जिस व्यक्ति पर भरोसा करके उसे विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया, वह ही लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद पार्टी छोड़ गए, इनका नाम था राधा कृष्ण विखे पाटिल। पाटिल बीजेपी में शामिल हो गए और महाराष्ट्र सरकार में मंत्री बन गए। मुंबई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह कांग्रेस छोड़ चुके हैं और लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस में शामिल हुईं फ़िल्म अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर ने भी पार्टी को अलविदा कह दिया है।
कांग्रेस के लिए महाराष्ट्र में मुश्किलें कम होने के बजाय बढ़ती जा रही हैं। लोकसभा चुनाव से पहले से मुंबई कांग्रेस में चल रहा संजय निरूपम और मिलिंद देवड़ा का झगड़ा उर्मिला के पार्टी छोड़ते ही आम हो गया।
पार्टी ने लोकसभा चुनाव से पहले निरूपम को हटाकर देवड़ा को अध्यक्ष बनाया था लेकिन जब चुनाव में क़रारी हार हुई तो रार छिड़ गई और उर्मिला के इस्तीफ़ा देते ही निरूपम और देवड़ा आमने-सामने आ गए। लोकसभा चुनाव के दौरान महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष रहे अशोक चव्हाण अपनी ही सीट नहीं जीत सके और उन्होंने पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इसके अलावा कांग्रेस के कई पार्षद, विधायक और वरिष्ठ नेता बीजेपी में शामिल हो चुके हैं।
एनसीपी के भी हालात ख़राब
कमोबेश यही हाल एनसीपी के हैं। एनसीपी के वरिष्ठ नेता पद्म सिंह पाटिल, उदयन राज भौंसले, मधुकर पिचड़, सचिन अहीर पार्टी छोड़ चुके हैं। इसके अलावा पूर्व सांसद धनंजय महादिक एवं मुबंई की महिला शाखा की अध्यक्ष चित्रा वाघ जैसे बड़े नेता बीजेपी में शामिल हो चुके हैं। बीजेपी ने दोनों को महाराष्ट्र इकाई का उपाध्यक्ष भी बना दिया है। एनसीपी को अब सिर्फ़ पवार के अनुभव का ही सहारा है लेकिन लोकसभा चुनाव में उसकी हालत भी बेहद पतली रही थी। एनसीपी को सिर्फ़ 4 सीटों पर जीत मिली थी जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में भी वह सिर्फ़ 41 सीटें जीत सकी थी। हालाँकि पिछली बार की ग़लती से सीख लेते हुए कांग्रेस-एनसीपी ने साथ चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है। पिछली बार दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था।
मुद्दे बहुत हैं लेकिन उठाये कौन
ऐसा नहीं है कि महाराष्ट्र में विपक्ष के पास मुद्दों की कोई कमी है। सूखा, किसानों की आत्महत्या, बेरोज़गारी, आर्थिक मंदी जैसे कई मुद्दे हैं। बाढ़ से पश्चिम महाराष्ट्र के कई जिलों में प्रभावितों को सरकारी मदद नहीं पहुंच पाना भी बहुत बड़ा मुद्दा है। विपक्ष चाहता तो इन मुद्दों पर बीजेपी की सरकार को घेर सकता था। और ऐसा नहीं है कि ये मुद्दे लोकसभा चुनाव से पहले नहीं थे, ये मुद्दे पहले भी थे लेकिन जब विपक्ष लड़ने के लिए तैयार ही नहीं हो तो कोई क्या करे।
लोकसभा चुनाव में मिली क़रारी हार के बाद भी अगर कांग्रेस-एनसीपी चेत जाते और जनता के बीच जाते तो वे खड़े हो सकते थे लेकिन यह कहना ग़लत नहीं होगा कि अब समय निकल चुका है।
अब बात करते हैं हरियाणा की। हरियाणा में हालिया लोकसभा चुनावों में बीजेपी को राज्य की 10 में से 10 सीटों पर जीत मिली है और वह राज्य की 90 विधानसभा सीटों में से 79 सीटों पर आगे रही है और उसने विपक्ष को पस्त कर दिया है। हरियाणा में मुख्य विपक्षी दलों के नाम पर कांग्रेस और इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) हैं। कांग्रेस भयंकर गुटबाज़ी से परेशान है और इसी वजह से उसे कुछ दिन पहले ही अपने प्रदेश अध्यक्ष को हटाना पड़ा है।
पाँच गुटों में बंटी कांग्रेस!
इसका सीधा संदेश यह गया है कि कांग्रेस आलाकमान को हरियाणा के अपने बड़े नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा के आगे झुकना पड़ा है। हरियाणा कांग्रेस के बारे में कहा जाता है कि वहाँ कांग्रेस पाँच गुटों में बंटी हुई है। इनमें से एक गुट ख़ुद हुड्डा का, दूसरा पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर का, तीसरा वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष कुमारी शैलजा का, चौथा कांग्रेस विधायक दल की पूर्व नेता किरण चौधरी का और पाँचवा कांग्रेस संचार विभाग के राष्ट्रीय प्रभारी रणदीप सुरजेवाला का है। कहा जाता है कि इसी जबरदस्त गुटबाज़ी के कारण सुरजेवाला को जींद में हुए उपचुनाव में क़रारी हार का सामना करना पड़ा था और उनकी जमानत जब्त होते-होते बची थी।
इनेलो सुप्रीमो ओमप्रकाश चौटाला के अपने बेटे अजय चौटाला और उनके दो बेटों दुष्यंत और दिग्विजय चौटाला को पार्टी से निकाल दिये जाने के बाद पार्टी टूट गई थी।
दुष्यंत और दिग्विजय चौटाला ने अपनी पार्टी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) बना ली और वे भी चुनाव मैदान में हैं। इनेलो को पिछली बार 19 सीटें मिली थीं लेकिन अब उसके पास 5 विधायक भी नहीं बचे हैं। उसके कई विधायक बीजेपी में और कई जेजेपी में शामिल हो गए। फिलहाल जेजेपी और इनेलो बीजेपी को टक्कर देने की स्थिति में नहीं दिखते।
बची आम आदमी पार्टी, जो हरियाणा में सरकार बनाने का दावा कर रही थी लेकिन लोकसभा चुनाव में बुरी गत होने के कारण वह बीजेपी को चुनौती देती नहीं दिखती।
बीएसपी हरियाणा में कई दलों के साथ गठबंधन करके ख़ुद ही तोड़ भी चुकी है और वह अपने आधार राज्य में ही पस्त है, ऐसे में मतदाता हरियाणा में उसका साथ देंगे, कहना मुश्किल है।
तीन सालों से हरियाणा में ग़ैर जाट मतों के ध्रुवीकरण में जुटे बीजेपी के पूर्व सांसद राज कुमार सैनी भी लगता नहीं कि बीजेपी को कोई चुनौती दे पायेंगे क्योंकि बीजेपी को चुनौती देने के लिए ज़मीनी स्तर पर बहुत मजबूत संगठन की आवश्यकता है जो अभी उनकी लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी के पास नहीं है।
इन मुद्दों पर घेर सकता था विपक्ष
हरियाणा में बीजेपी सरकार के लिए सबसे बड़ी मुसीबत जाट आरक्षण आंदोलन बना था। इस आंदोलन में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी। गुरमीत राम रहीम के समर्थकों ने भी ख़ूब उत्पात किया था।
हिसार स्थित सतलोक आश्रम से रामपाल को गिरफ़्तार करने में खट्टर सरकार के पसीने छूट गए थे और इसके बाद क़ानून व्यवस्था को लेकर मनोहर लाल खट्टर को हटाने की मांग उठी थी। इसके अलावा बेरोज़गारी, बढ़ते अपराध भी एक मुद्दा है। लेकिन बावजूद इसके अगर बीजेपी राज्य की सभी 10 लोकसभा सीटें जीत गई तो यह तय है कि या तो जनता का इक़बाल सरकार पर कायम है और या विपक्ष पूरी तरह ख़त्म हो चुका है।
फिर हम वहीं आते हैं कि ऐसे विपक्ष जिस राज्य में हों तो क्या वहाँ की जनता को इंसाफ़ मिलेगा। क्या वहाँ सरकार के निरंकुश होने का ख़तरा पैदा नहीं होगा। ऐसे हालात में जनता की आवाज़ को कौन उठायेगा। मुख्य विपक्षी दल होने के नेता कांग्रेस को यह आवाज़ उठानी चाहिए थी लेकिन पार्टी हाईकमान ने मुंबई और हरियाणा कांग्रेस में चल रहे झगड़ों को ख़त्म करने के लिए समय रहते कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की और इसका अंजाम पहले लोकसभा चुनाव में क़रारी हार के रूप में सामने आया और इस बात की उम्मीद कम है कि कांग्रेस इन दोनों राज्यों में कोई बहुत बड़ा करिश्मा कर दिखायेगी।