वह शख्स जिसने महामारी के इतिहास को दो सदी तक भ्रमित रखा

07:20 am Aug 24, 2020 | हरजिंदर - सत्य हिन्दी

भारत में महामारी के इतिहास को लेकर दुनिया को जितना भ्रमित जॉन जेफ़निया होलवेल ने किया उतना शायद ही किसी और ने किया हो। पेशे से सर्जन और ईस्ट इंडिया कंपनी को अपनी सेवाएं देने के लिए भारत आए होलवेल कई तरह से भारतीय इतिहास की अजीबोगरीब शख्सियत थे। दिलचस्प यह भी है कि वह लॉर्ड क्लाइव के रिटायर होने के बाद कंपनी के सर्वोच्च पद बंगाल के गवर्नर के ओहदे तक भी पहुँच गए थे। 

होलवेल सन 1736 में जब भारत पहुँचे तो ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी सैनिक ताक़त बढ़ाने में लगी हुई थी, और बंगाल के नवाब से उसका टकराव शुरू हो गया था। भारत में होलवेल के शुरूआती दो दशक साधारण ही थे, जिस बीच वे कई बार लंबी छुट्टियाँ बिताने के लिए इंग्लैंड चले गए थे।

लेकिन जून 1756 के उमस भरे गर्म मौसम में एक ऐसा वाकया हुआ जिसे भारतीय इतिहास ही नहीं चिकित्सा के इतिहास की भी एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता था। 

ब्लैकहोल कांड

कंपनी की एक सैनिक टुकड़ी उस समय कोलकाता के फोर्ट विलियम में तैनात थी। वहाँ करीब 180 सैनिक थे जिसमें से एक तिहाई ब्रिटिश थे, उनमें से कुछ की पत्नियाँ और बच्चे भी किले में मौजूद थे। इसके साथ ही बंगाल के गर्वनर रोजर ड्रैक भी वहीं थे। तभी ख़बर मिली कि नवाब सिराजुद्दौला की फ़ौज ने पूरे लाव- लश्कर के साथ किले को घेरना शुरू कर दिया है। 

ख़बर मिलते ही गर्वनर कुछ सैनिकों के साथ वहाँ से भाग निकले और तट पर खड़े एक समुद्री जहाज़ में शरण ली। अब वहाँ मौजूद ब्रिटिश अधिकारियों में सबसे वरिष्ठ होलवेल ही थे, इसलिए यह लड़ाई किसी जनरल के नेतृत्व में नहीं एक सर्जन के नेतृत्व में लड़ी गई। 

अंग्रेजों की हार

हार तय थी और थोड़ी ही देर में सिराजुद्दौला की फ़ौज ने 20 जून की शाम किले पर कब्जा करके औरतों और बच्चों सहित 146 लोगों को गिरफ्तार कर लिया। 

इन सभी को किले के बाहर 22 फुट लंबे और 14 फीट चौड़े उस अंधेरे कमरे में ठूंस दिया गया जिसमें सिर्फ दो छोटी खिड़कियां थीं। इस कमरे का इस्तेमाल किले के बाहर चौकीदारी करने वाले सुरक्षा गार्ड करते थे।

अगले दिन यानी 21 जून की शाम जब इस कमरे को खोला गया तो 123 लोग दम घुटने के कारण मर चुके थे। जो बाकी 23 बचे थे उनमें एक होलवेल भी थे।

श्वसन की फ़िजियोलॉजी

इस घटना को इतिहास में ब्लैक होल ऑफ बंगाल के नाम से दर्ज किया गया। चिकित्सा के इतिहास में यह घटना इसलिए दर्ज हो सकी कि इससे श्वसन की फ़िजियोलॉजी का अध्ययन करने वालों ने यह समझना शुरू किया कि एक व्यक्ति के लिए ऑक्सीजन की कितनी मात्रा ज़रूरी होती है। होलवेल खुद एक चिकित्सक थे इसलिए उन्होंने जिस तरह से इसका ब्योरा दिया उससे यह समझने में काफी मदद मिली। 

चेचक

होलवेल तब तक काफी प्रसिद्ध हो चुके थे और उन्होंने उसके बाद कई किताबें लिखीं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण थी भारत में चेचक के परंपरागत इलाज पर उनकी किताब।

उन्होंने बंगाल में शीतला माता के उस टीका लगाने वाले अनुष्ठान के बारे में विस्तार से दुनिया को बताया जिसके बारे में कहा जाता था कि उससे चेचक ठीक हो जाता था।

भारत से निकला चेचक

लेकिन इसी के साथ ही उन्होंने भारत में चेचक के अतीत के बारे में एक ऐसी टिप्पणी लिख दी जिससे इतिहासकारों की सोच बदल गई। उन्होंने कहा कि भारत में चेचक ‘टाइम इममेमोरियल‘ यानी अनंत काल से मौजूद है। इस टिप्पणी में उन्होंने यह भी कहा कि सुश्रुत और वागभट्ट ने तो अपने लेखन में किया ही है, इसका जिक्र अथर्ववेद में भी है। 

भारत के प्राचीन चिकित्सा ज्ञान को समृद्ध बताने की कोशिश में कई भारतीय आचार्य यह बात जोर देकर कह चुके थे कि सुश्रुत और वागभट्ट ने मसुरिका नाम के जिस रोग का जिक्र किया है वह चेचक ही है।

लेकिन इस तर्क का एक उलटा असर भी हुआ। इससे यह कहा जाने लगा कि चेचक दुनिया को भारत की ही देन है, हालांकि चेचक का जो दर्ज इतिहास उस समय तक मौजूद था उससे यह बात बहुत मेल नहीं खाती थी। लेकिन होलवेल ने इसमें अथर्ववेद को जोड़कर मामले को एक नया मोड़ दे दिया। 

सच क्या था

वेद दुनिया के सबसे प्राचीन ग्रंथ माने जाते हैं। उसके पहले का कोई साहित्य कहीं मौजूद नहीं है। इस आधार पर होलवेल के तर्क ने इस धारणा को पुख्ता कर दिया कि चेचक की महामारी दुनिया को भारत से ही मिली है। हालांकि कुछ समय बाद ही यह स्पष्ट हो गया कि अथर्ववेद में ऐसा कोई जिक्र नहीं है, लेकिन तब तक अनंत काल वाले तर्क ने ज़मीन पकड़ ली थी और अगली एक सदी से भी ज्यादा समय बल्कि तकरीबन दो सदी तक यह तर्क चिकित्सा के इतिहास की कईं स्थापित मान्यताओं में मौजूद रहा कि भारत चेचक की सबसे प्राचीन धुरी है।

बीसवीं सदी में भारतीय मानवशास्त्र के इतिहासकार राल्फ डबलू. निकोलस ने छानबीन को तो वह इस नतीजे पर पहुँचे कि सुश्रुत और वागभट्ट ने मसुरिका नाम के जिस रोग को जिक्र किया है वह चेचक नहीं, एक तरह का त्वचा रोग था।

अथर्ववेद वाली बात तो खैर पहले ही ग़लत साबित हो चुकी थी। इसके बाद चिकित्सा शास्त्र का इतिहास उस धारणा पर लौट गया जो कहती थी कि भारत में चेचक पश्चिम एशिया के समुद्री रास्ते से आने वाले व्यापारिक जहाज़ो के ज़रिये पहुँचा था।