दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास पर कथित रूप से अवैध नकदी बरामद होने का मामला अब सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया है। एक याचिका में उनके खिलाफ एफ़आईआर दर्ज करने की माँग की गई है। याचिका अधिवक्ता मैथ्यू जे. नेदुमपारा ने दायर की है। यह याचिका 26 मार्च को भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना के समक्ष तत्काल सुनवाई के लिए पेश की गई। याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के उस फ़ैसले को चुनौती दी है, जिसमें पुलिस जाँच के बजाय तीन जजों की आंतरिक समिति गठित की गई। इस मामले ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है - क्या जजों को आम नागरिकों की तरह ही कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए?
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार सीजेआई खन्ना ने याचिकाकर्ता नेदुमपारा से कहा, 'आपका मामला सूचीबद्ध हो गया है, कोई सार्वजनिक बयान न दें।' नेदुमपारा ने जवाब में जज के ख़िलाफ़ एफ़आईआर की ज़रूरत पर जोर दिया और सीजेआई की तारीफ़ की कि उन्होंने इस मामले से जुड़े दस्तावेज और वीडियो सार्वजनिक किए। एक सह-याचिकाकर्ता ने कहा, 'अगर इतना पैसा किसी व्यवसायी के घर मिलता तो ईडी और आईटी उसके पीछे पड़ जाते।' सीजेआई ने आगे चर्चा से इनकार करते हुए रजिस्ट्री से सुनवाई की तारीख़ लेने को कहा।
याचिका में दो बड़े सवाल उठाए गए हैं। पहला, के. वीरास्वामी फैसले पर। और दूसरा आंतरिक जांच की वैधता पर। 1991 में सुप्रीम कोर्ट ने के. वीरास्वामी बनाम भारत सरकार मामले में फ़ैसला दिया था कि हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज के ख़िलाफ़ सीआरपीसी की धारा 154 के तहत आपराधिक मामला तभी दर्ज हो सकता है जब सीजेआई से परामर्श लिया जाए। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह फ़ैसला क़ानून की अनदेखी में दिया गया और पुलिस की वैधानिक जिम्मेदारी को बाधित करता है। उनका तर्क है कि इससे जज एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग बन जाते हैं जो क़ानून से ऊपर दिखते हैं। याचिका में लिखा है, 'ज्यादातर जज ईमानदार हैं, लेकिन जस्टिस निर्मल यादव या जस्टिस यशवंत वर्मा जैसे मामले इनकार करने योग्य नहीं हैं।'
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि तीन जजों की समिति द्वारा आंतरिक जाँच जनहित के ख़िलाफ़ है। उनका मानना है कि यह न केवल सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा को नुक़सान पहुँचाता है, बल्कि जस्टिस वर्मा को भी बचाने की कोशिश हो सकती है। इसके बजाय, दिल्ली पुलिस को एफ़आईआर दर्ज कर निष्पक्ष जांच करनी चाहिए।
क्या जजों को आम नागरिकों की तरह कानून के दायरे में लाना चाहिए? यह सवाल इस मामले के केंद्र में है। भारतीय संविधान और लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है कि 'कोई भी क़ानून से ऊपर नहीं।' लेकिन के. वीरास्वामी फैसले ने जजों को एक संरक्षण जैसी स्थिति दी है।
समर्थकों का तर्क है कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए ज़रूरी है ताकि जज बिना डर के फ़ैसले ले सकें। वहीं, आलोचक कहते हैं कि यह नियम भ्रष्टाचार को छिपाने का ज़रिया बन सकता है। अगर कोई जज अपराध में लिप्त पाया जाता है तो उसे आम नागरिक की तरह जवाबदेह क्यों नहीं ठहराया जाना चाहिए?
यदि सुप्रीम कोर्ट इस याचिका पर के. वीरास्वामी फैसले को पलटता है तो यह जजों के ख़िलाफ़ आपराधिक जांच का रास्ता खोल सकता है। इससे पुलिस को संज्ञेय अपराधों में स्वतंत्र रूप से एफ़आईआर दर्ज करने की शक्ति मिलेगी। लेकिन अगर मौजूदा नियम बरकरार रहा, तो यह बहस तेज होगी कि क्या न्यायपालिका खुद को जवाबदेही से परे रख रही है।
यह मामला न्यायपालिका पर भरोसे को प्रभावित कर सकता है। अगर आम लोग यह देखते हैं कि जजों और नागरिकों के लिए अलग-अलग नियम हैं, तो यह विश्वास कमजोर हो सकता है।
इस पर बदलाव की राह आसान नहीं है। एक तरफ, जजों की स्वतंत्रता को बनाए रखना ज़रूरी है ताकि वे बिना दबाव के काम कर सकें। दूसरी तरफ, भ्रष्टाचार के मामलों में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करना भी उतना ही अहम है। याचिकाकर्ताओं की माँग है कि सरकार ज्यूडिशियल स्टैंडर्ड्स एंड एकाउंटेबिलिटी बिल जैसे कानून लाए, जो न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को रोक सके। लेकिन क्या ऐसा कोई कानून वास्तव में लागू हो पाएगा?
जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ एफ़आईआर की माँग वाला यह मामला केवल एक जज से जुड़ा नहीं है, बल्कि यह न्यायपालिका की साख और जवाबदेही का सवाल उठाता है। सुप्रीम कोर्ट का अगला कदम न केवल इस मामले का भविष्य तय करेगा, बल्कि यह भी निर्धारित करेगा कि क्या जजों को आम नागरिकों की तरह कानून के दायरे में लाया जा सकता है। यह बहस भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकती है।
(इस रिपोर्ट का संपादन अमित कुमार सिंह ने किया है)