नागरिकता संशोधन कानून या सीएए के खिलाफ मुस्लिमों और मुस्लिम महिलाओं ने 2020 में जबरदस्त आंदोलन छेड़ा था। लेकिन अब जब साढ़े चार साल बाद मोदी सरकार ने जब सीएए को 11 मार्च की शाम को अधिसूचित कर दिया तो भी मुसलमान, मुस्लिम संगठन, उलेमा खामोश हैं। कहीं किसी आंदोलन की सुगबुगाहट नहीं। मंगलवार शाम को केंद्र सरकार की नीतियों का प्रचार प्रसार करने वाली सरकारी वेबसाइट पीआईबी ने केंद्रीय गृह मंत्रालय का एक नोट जारी किया। यह पॉजिटिव नैरेटिव नोट मुसलमानों के बारे में था, जो सरकार की अच्छी नीयत को ही बता रहा था। लेकिन अज्ञात कारणों से सरकार ने इस नोट को देर रात हटा लिया।
"नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 पर पॉजिटिव नैरेटिन" शीर्षक और सवाल-जवाब की स्टाइल जारी की गई प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया था कि भारत के मुस्लिम नागरिकों की नागरिकता सीएए से प्रभावित नहीं होगी। इसे पीआईबी की वेबसाइट पर मंगलवार (12 मार्च) शाम 6:43 बजे पोस्ट किया गया था। लेकिन यह अब वहां से गायब है। इसका कंटेंट पीआईबी के एक्स (ट्विटर) पेज पर भी पोस्ट किया गया था, लेकिन वहां से भी हटा दिया गया है।
हटाए गए नोट में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा था- भारतीय मुसलमानों को चिंता करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सीएए ने उनकी नागरिकता को प्रभावित करने के लिए कोई प्रावधान नहीं किया है और इसका वर्तमान 18 करोड़ भारतीय मुसलमानों से कोई लेना-देना नहीं है, जिनके पास हिंदुओं के समान अधिकार हैं। इस कानून के बाद किसी भी भारतीय नागरिक को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कोई दस्तावेज पेश करने के लिए नहीं कहा जाएगा।
हालांकि सरकार ने पॉजिटिव नोट को वापस ले लिया है लेकिन सीएए को लेकर जो असली विवाद है, उसका एनआरसी और एनपीआर से संबंध होना। क्योंकि मुस्लिमों की चिंता का असली विषय यही है कि जब सीएए को एनआरसी से जोड़ दिया जाएगा तो उस स्थिति में उनकी नागरिकता का क्या होगा। हालांकि सरकार पहले कहती रही है कि नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत नागरिकता नियम 2003 के अनुसार, देशव्यापी एनआरसी को संकलित करने की "फिलहाल" कोई योजना नहीं है। जनगणना के बाद ही राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) आ सकता है। इस नियम में न तो संशोधन किया गया है और न ही इसे हटाया गया है और देश भर में एनआरसी लाने के लिए किसी नए कानून की आवश्यकता नहीं है।
सरकार को इस पॉजिटिव नोट को हटाने की दो ही वजहें हो सकती हैं, एक तो यह कि कट्टर हिन्दू संगठन उसकी भाषा और सरकार के बयान को पसंद नहीं करते। दूसरी वजह ये है कि सीएए लाकर सरकार ने भाजपा के हिन्दू वोट बैंक को मजबूत करने या ध्रुवीकरण की जो कोशिश की है, वो असफल हो जाएगी। हालांकि ध्रुवीकरण तभी संभव है जब मुस्लिम संगठन बड़े पैमाने पर इसके खिलाफ सड़कों पर आकर विरोध करने लगें, जैसा 2020 में हुआ था। लेकिन मुसलमान चुप है, इसकी एक वजह रमज़ान भी बताई जा रही है लेकिन सारी वजह रमज़ान नहीं है।
मुसलमानों की चिन्ता क्या हैः सीएए को जब एनआरएसी से जोड़ा जाएगा, उस समय मुस्लिमों पर संकट आएगा। सरकार के आश्वासन के बाद भी यह संदेह दूर नहीं हो रहा है। मंगलवार को जिस तरह सरकार मुसलमानों के बारे में पॉजिटिव नोट लाई और फिर वापस ले लिया, उससे संदेह बढ़ गया। नागरिकता अधिनियम, 1955 के तहत नागरिकता नियम 2003 के अनुसार, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर), जिसे जनगणना के पहले चरण के साथ जोड़ा जाना है। एनआरसी संकलन की दिशा में पहला कदम है। इस नियम में न तो संशोधन किया गया है और न ही इसे हटाया गया है। उसके होने के बाद देश भर में एनपीआर लाने के लिए किसी नए कानून की जरूरत नहीं पड़ेगी। असम एकमात्र राज्य है जहां एनआरसी सर्वे हुआ था और ड्राफ्ट रजिस्टर में 3.29 करोड़ आवेदकों में से 19 लाख को शामिल नहीं किया गया था।
देशभर में एनआरसी के बाद गैर-मुसलमानों के बचाव में सीएए तो होगा लेकिन उस दायरे यानी उन शर्तों को नहीं पूरा करने वाले मुसलमानों को अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। उस समय सीएए कानून उनकी मदद नहीं कर पाएगा। क्योंकि नया सीएए कानून सिर्फ गैर मुस्लिमों को ही संरक्षण देता है।
ओवैसी जैसे तमाम नेता कह रहे हैं कि सीएए की आड़ में भाजपा मुख्य उद्देश्य देश में एनपीआर और एनआरसी लागू करना है। ओवैसी ने असम में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुई एनआरसी प्रक्रिया का जिक्र किया और कहा कि 19 लाख लोगों को बताया गया कि वे भारतीय निवासी नहीं हैं। दूसरी तरफ असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने आश्वासन दिया कि सीएए अधिनियम के तहत 10-12 लाख हिंदुओं को नागरिकता दी जाएगी। लेकिन जिन मुसलमानों को एनआरसी के बाद विदेशी माना गया है, वे सीएए के तहत कवर नहीं होंगे और उन्हें विदेशी ट्रिब्यूनल में जाना होगा। यह सवाल अकेले ओवैसी ने नहीं उठाया है। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) ने जो याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की है, उसमें भी इन्हीं चिन्ताओं को उठाया गया है। कुछ मुस्लिम संगठनों ने भी इस चिन्ता को साझा किया है।