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समाजवादी मानसिकता भारत, रूस को ले डूबेगी?

समाजवादी मानसिकता भारत, रूस को ले डूबेगी?

भारत जो अस्सी के दशक की शुरुआत में चीन से बड़ी अर्थव्यवस्था थी, आज उसके छठे हिस्से के बराबर क्यों रह गई है? ऐसा ही हाल रूस का भी क्यों है?

सन 1989 को याद करें! चीन को माओ की बर्बाद कर देने वाली आर्थिक नीतियों की भूल स्वीकर किए और पश्चिम की बाज़ारवादी आर्थिक नीतियों को पूरे मनोयोग से लागू किए दस साल हो रहे थे।

चीन की अर्थव्यवस्था आर्थिक सुधारों की बदौलत भारत से आगे निकल कर 34,800 करोड़ डॉलर की हो चुकी थी। चालीस बरस लंबे समाजवादी लाइसेंस राज ने भारत को दिवालिएपन के कगार पर पहुँचा दिया था। उसकी अर्थव्यवस्था 29,600 करोड़ डॉलर रह गई थी! सोवियत संघ के दिवालिया होकर बिखर जाने के बावजूद सोवियत रूस की अर्थव्यवस्था 50,659 करोड़ डॉलर थी और उसके पास चीन और भारत से अधिक समुन्नत औद्योगिक आधार के साथ-साथ अपार प्राकृतिक संपदा भी थी।

पिछले 32 सालों में चीन ने समाजवाद के पाखंड को छोड़कर सैनिक महाशक्ति बनने की होड़ में न पड़ते हुए दिन-दूनी रात-चौगुनी उन्नति की और आज उसकी अर्थव्यवस्था (35 गुणा होकर) 18,46,000 करोड़ डॉलर पार कर चुकी है। वह दुनिया की सबसे बड़ी तैयार माल बनाने वाली आर्थिक महाशक्ति बन चुका है। पुतिन से निपटने के लिए अमेरिका को सीधे चीन से बात करनी और उसकी मदद माँगनी पड़ती है।

भारत ने भी आर्थिक उन्नति की है और उसकी अर्थव्यवस्था (11 गुणा होकर) 3,25,000 करोड़ डॉलर हो चुकी है। पर भारत, जो अस्सी के दशक की शुरुआत में चीन से बड़ी अर्थव्यवस्था थी, आज उसके छठे हिस्से के बराबर है। यह फ़ासला अगले तीस साल में और तेज़ी से बढ़ने वाला है।

सबसे दयनीय दशा पुतिन के रूस की है। 1989 में जिसके पास भारत से दोगुनी और चीन से पौने दो गुणी अर्थव्यवस्था थी और अकूत प्राकृतिक संपदा थी उस देश की अर्थव्यवस्था मात्र (3.5 गुणा बढ़कर) 1,77,500 करोड़ डॉलर रह गई है जिसका एक तिहाई यूक्रेन की लड़ाई की बलि चढ़ जाने वाला है। जिसे तीन महादेशों में सबसे आगे होना चाहिए था वह आज सबसे फिसड्डी रह गया है।

रूस का यह हाल उसकी परमाणु और सामरिक शक्ति की ऐंठ में रहकर महाशक्ति के मुगालते में रहने की मानसिकता की वजह से है। यदि तेल, गैस और खनिज सम्पदा न हो तो रूस की अर्थव्यवस्था किसी तीसरी दुनिया के ग़रीब देश जैसी नज़र आती।

चीन की तरह रूस ने भी समाजवाद को तिलांजलि तो दे दी पर वह समाजवादी मानसिकता से नहीं निकल पाया। यही हाल भारत का है। आर्थिक सुधारों की राह पर एक क़दम आगे बढ़ाते ही कुछ पूर्वज याद आते हैं और दो क़दम पीछे हटने को मजबूर कर देते हैं। दोनों का हाल यही रहा तो भारत और रूस की हैसियत चीन के बड़े प्रांतों जितनी भी नहीं रह सकेगी।

(शिवकांत की फ़ेसबुक वाल से साभार)

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