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भारत की विदेश नीति: श्रीलंका क्या मालदीव की राह पर?

भारत की विदेश नीति: श्रीलंका क्या मालदीव की राह पर?

मोदी सरकार की विदेश नीति पर अब एक और सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आख़िर पड़ोसियों तक से भारत के संबंध क्यों बिगड़ते जा रहे हैं? मालदीव, बांग्लादेश, नेपाल के बाद अब श्रीलंका को लेकर क्यों यह आशंका जताई जा रही है?

जब प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका में क्वाड पर भाषण देने में व्यस्त थे तब यहाँ भारत के पड़ोस श्रीलंका में सत्ता परिवर्तन हो रहा था। श्रीलंका में वो अनुरा कुमारा दिसानायके राष्ट्रपति चुने गए जो उत्तरी श्रीलंका में भारत के अडानी समूह द्वारा शुरू की जा रही सौर ऊर्जा परियोजना को रद्द करने की धमकी दी है। क्या यह 'पड़ोसी सर्वप्रथम नीति' को झटका है? क्या श्रीलंका मालदीव की राह पर चलेगा? मालदीव, बांग्लादेश, नेपाल पहले से ही भारत से विमुख दिख रहे हैं। पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान का तो ज़िक्र ही न करें तो बेहतर। म्यांमार में हिंसक गृहयुद्ध से उलटे भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में अशांति का ख़तरा रहता है। तो सवाल है कि क्या भारत की विदेश नीति 'पड़ोसी सर्वप्रथम नीति' से हट गयी है या फिर यह कारगर होती नहीं दिख रही है?

इस पूरे मामले को पूर्व विदेश सचिव रहे श्याम शरण कैसे देखते हैं, इसपर चर्चा बाद में पहले यह जान लें कि हाल के वर्षों में भारत के पड़ोस से संबंध कैसे रहे हैं और चीन कैसे पड़ोसी रिश्तों में सेंध लगा रहा है। श्रीलंका से कुछ महीने पहले मालदीव में चुनाव हुए थे। वहाँ मोहम्मद मुइज्जू राष्ट्रपति चुने गए थे। पिछले साल अक्टूबर महीने में राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के बाद मुइज्जू ने कहा था कि लोग नहीं चाहते हैं कि भारत के सैनिकों की मौजूदगी मालदीव में हो और विदेशी सैनिकों को मालदीव की ज़मीन से जाना होगा।

मुइज्जू को चीन की ओर झुकाव वाला नेता माना जाता है। वह इससे पहले राजधानी माले शहर के मेयर रहे थे। वे चीन के साथ मजबूत संबंधों की वकालत करते रहे हैं। उनके राष्ट्रपति बनते ही मालदीव ने भारत से सैनिक हटाने को कह दिया था। 

भारत का सबसे भरोसेमंद पड़ोसी भूटान भी चीन के क़रीब जाता हुई दिख रहा है। भूटान के विदेश मंत्री की पिछले साल चीन यात्रा के बाद अटकलें तेज़ हैं कि दोनों देश दशकों से चल रहे सीमा विवाद को ख़त्म करने के क़रीब पहुँच गए हैं। इसके भी संकेत मिले हैं कि दोनों देश राजनयिक संबंध स्थापित कर सकते हैं। चीन और भूटान के बीच समझौते का मतलब होगा कि भारत की मुश्किलें बढ़ेंगी। ऐसा इसलिए कि इसका असर डोकलाम ट्राई-जंक्शन पर पड़ सकता है। इसको लेकर भारत और चीन के सैनिकों के बीच कई बार आमना-सामना हुआ है।

भारत का भरोसेमंद पड़ोसी रहा बांग्लादेश भी अब भारत से विमुख है। खासकर, शेख हसीना के तख्तापलट के बाद। हालाँकि, तख्तापलट से पहले शेख हसीना की चीनी राष्ट्रपति से मुलाक़ात के बाद उसके रुख में बदलाव के कयास लगाए जा रहे थे। तब राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा था कि चीन बाहरी ताक़तों के दख़ल के विरोध में बांग्लादेश का समर्थन करता है और चीन और बांग्लादेश अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए एक दूसरे का सहयोग करेंगे। तब शेख़ हसीना ने भी कहा था कि बांग्लादेश-चीन संबंध आपसी सम्मान और एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने पर आधारित हैं। बांग्लादेश और चीन के बीच कई समझौते हुए थे।

बांग्लादेश में तख्तापलट के बाद तो भारत बांग्लादेश संबंध बेहद ख़राब हो गए हैं। मोदी सरकार पर बांग्लादेश में शेख हसीना पर ही पूरी तरह दाँव लगाने और सत्तारूढ़ अवामी लीग के अलावा अन्य राजनीतिक दलों से संपर्क न करने का आरोप लगाया गया है।

पूर्व विदेश सचिव श्याम शरण ने कहा है कि विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के साथ कुछ संवाद बनाए रखा गया, लेकिन भारत विरोधी जमात के साथ नहीं।

श्याम शरण ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखे एक लेख में कहा है कि पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ सीमा पार आतंकवाद को बढ़ावा देना फिर से शुरू कर दिया है। नेपाल में एक बार फिर सरकार बदल गई है और के.पी. ओली, जिन्होंने द्विपक्षीय संबंधों में अभूतपूर्व गिरावट देखी थी, फिर से प्रधानमंत्री बन गए हैं। बांग्लादेश में छात्रों का आंदोलन प्रधानमंत्री शेख हसीना के खिलाफ एक व्यापक सरकार विरोधी विद्रोह में बदल गया। उन्हें अपने देश से भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी। भारत को उनकी जनविरोधी और भ्रष्ट नीतियों में भागीदार के रूप में देखा गया है और इसके खिलाफ व्यापक जनाक्रोश है। अधिक चिंता की बात यह है कि जमात के कट्टरपंथी इस्लामी तत्व फिर से उभर रहे हैं और देश में पाकिस्तानी प्रभाव फिर से उभर रहा है। 

हालाँकि, पूर्व विदेश सचिव ने श्रीलंका के मामले में सरकार के एक फ़ैसले की सराहना की है। उन्होंने लिखा है, 'श्रीलंका के मामले में चुनाव से कई महीने पहले यह स्पष्ट था कि दिसानायके और उनकी एनपीपी चुनाव जीत सकती है। उन्हें फरवरी 2024 में भारत सरकार के अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया और उन्होंने विदेश मंत्री एस जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के साथ बातचीत की। यह एक अच्छा कदम था।'

दिसानायके ने श्रीलंका की सुरक्षा और आर्थिक विकास के लिए भारत के महत्व को पहचाना है। उन्होंने भारत के बजाय चीन के साथ संबंधों को प्राथमिकता देने का कोई संकेत नहीं दिया है। उन्होंने कहा है कि वह संतुलन बनाकर चलेंगे। 

अनुरा कुमारा दिसानायके ने मोनोकल पत्रिका को दिए अपने साक्षात्कार में इस बात पर जोर दिया कि उनके नेतृत्व में देश प्रतिद्वंद्विता में फंसने से बचेगा। किसी भी शक्ति समूह के साथ गठबंधन करने के बजाय, नेशनल पीपुल्स पावर सरकार का श्रीलंका के दो सबसे करीबी पड़ोसियों चीन और भारत दोनों के साथ संतुलित संबंध बनाने का इरादा है।

विदेश नीति पर दिसानायके ने कहा, 'हम उस भू-राजनीतिक लड़ाई में प्रतिस्पर्धी नहीं होंगे, न ही हम किसी पार्टी से जुड़ेंगे। हम चीन और भारत के बीच में फंसना नहीं चाहते। दोनों देश मूल्यवान मित्र हैं और एनपीपी सरकार के तहत हम उनसे करीबी साझेदार बनने की उम्मीद करते हैं। हम यूरोपीय संघ, मध्य पूर्व और अफ्रीका के साथ भी संबंध बनाए रखना चाहते हैं।' दिसानायके का मानना है कि तटस्थ विदेश नीति दृष्टिकोण, बढ़ते क्षेत्रीय तनावों के बीच श्रीलंका की संप्रभुता की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।

श्रीलंका के नये राष्ट्रपति दिसानायके जो भी कहें, लेकिन चुनाव से पहले भारत को लेकर उनके रुख से संदेह तो उठता ही है। वैसे, श्रीलंका को छोड़ भी दें तो बाक़ी पड़ोसी देशों को लेकर सवाल वही है कि आख़िर सभी पड़ोसियों से भारत के संबंध पहले से ज़्यादा बिगड़े क्यों दिखते हैं?

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