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श्रीलंका राष्ट्रपति चुनाव परिणाम भारत के लिए नया सिरदर्द!

श्रीलंका राष्ट्रपति चुनाव परिणाम भारत के लिए नया सिरदर्द!

श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव में मार्क्सवादी अनुरा कुमारा दिसानायके और उनकी पार्टी जेवीपी की जीत के मायने क्या हैं? जानिए, भारत को उनकी यह जीत किस रूप में प्रभावित करेगी।

दक्षिण एशिया में पिछले एक साल में हुए सत्ता परिवर्तन में भारत विरोधी एवं चीनपरस्त ताकतों को ही बल मिला है जिनमें नेपाल, पाकिस्तान, मालदीव, बांग्लादेश शामिल था और अब श्रीलंका ने  रविवार को 55 साल के वामपंथी नेता अनुरा कुमारा दिसानायके को नया राष्ट्रपति चुन कर भारत के लिए एक नया सिरदर्द पैदा कर दिया है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए तीन विशेष बातों का विस्तार से विवेचना जरूरी है, जिनमें 2022 में श्रीलंका की सड़क पर हुए संघर्ष  से उपजे हालात और उसका चुनाव पर प्रभाव, जनता विमुक्ति पेरमुना (जेवीपी; शाब्दिक अर्थ 'पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट')  पार्टी की जीत और अनुरा कुमारा दिसानायके की विचारधारा शामिल है।

अनुरा कुमारा दिसानायके शनिवार को श्रीलंका के आम चुनाव में पहले राउंड में 50 प्रतिशत वोट नहीं पा सके और दूसरे राउंड की गिनती में 42.31 प्रतिशत वोट पाकर अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी साजिथ प्रेमदासा, जो 32.71 प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर हैं, को हराया। निवर्तमान राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघा को सिर्फ 17.27  प्रतिशत और इसके साथ नमला राजपक्षे, जो पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के पुत्र हैं, को तीन प्रतिशत वोट मिले। दिसानायके कृषि में स्नातक हैं और 2000 से राष्ट्रीय संसद के सदस्य भी। 2004 में गठबंधन की सरकार में कृषि मंत्री भी रह चुके हैं। उनकी नेतृत्व शैली अलग है क्योंकि उन्होंने जेवीपी की मार्क्सवादी सिद्धांतों को सुधारों के साथ जोड़ा है। 

2019 के चुनाव में उनकी पार्टी केवल 3.16 प्रतिशत वोट हासिल कर सकी थी, जो अब बढ़ गया है क्योंकि मतदाता राजनीतिक संरक्षण और वंशवाद से निराश थे। जुलाई 2022 के बाद से ही श्रीलंका की जनता ने सरकार बदलने का अपना निर्णय सड़क पर उतर कर दिया था।

श्रीलंका लगभग 75 वर्षों की आजादी में प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं का सामना किया है, लेकिन 2022 का आर्थिक और राजनीतिक मंदी अभूतपूर्व था। तमिलों के साथ जातीय युद्ध के 30 वर्षों के दौरान भी, श्रीलंका ने देश के अधिकांश हिस्सों में जीवन स्तर को अपेक्षाकृत उच्च बनाए रखा, जो जन कल्याणकारी था। 2022  का आर्थिक संकट चीन द्वारा शुरू किया गया क्योंकि उन्होंने ऋण देकर मेगा परियोजनाओं को प्रोत्साहित किया और बाद में अपने ऋण पुनर्भुगतान को पुनर्निर्धारित करने से इनकार कर दिया। 12 अप्रैल 2022 को, श्रीलंका के सेंट्रल बैंक ने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और अन्य बाहरी लेनदारों के साथ विदेशी ऋण के पुनर्भुगतान को निलंबित कर दिया क्योंकि उनके पास केवल आधे बिलियन से भी कम रिज़र्व थे। अप्रैल 2021 में विदेशी मुद्रा को बचाने के लिए, राष्ट्रपति ने रासायनिक उर्वरकों के आयात पर भी प्रतिबंध लगा दिया था, जिससे किसानों को बिना किसी संसाधन या प्रशिक्षण के रातोंरात जैविक तरीके अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। नतीजतन, कृषि उपज में भारी गिरावट आई, किसान गरीब होते गए और सरकार को अधिक खाद्य आयात करने के लिए मजबूर होना पड़ा। फरवरी के अंत से शुरू हुए विरोध प्रदर्शन  एक राष्ट्रव्यापी विद्रोह में बदल गए। 

प्रदर्शनकारी तत्कालीन राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफे और राजपक्षे परिवार को राजनीति से हटाने की मांग कर रहे थे। 31 मार्च की शाम विरोध आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ थी, क्योंकि गोटाबाया के निजी आवास के पास बड़ी भीड़ जमा हो गई थी। प्रदर्शनकारियों ने सीधे राष्ट्रपति के सुरक्षित घर तक मार्च किया और नारे लगाए कि वे पद छोड़ दें। पुलिस ने आंसू गैस और पानी की बौछारों से भीड़ को तितर-बितर करने की कोशिश की, जिससे असंतोष और भड़क गया। प्रदर्शनकारियों की नज़र में, यह परिवार, जो 2005 से देश की सत्ता की राजनीति के केंद्र में रहा है, श्रीलंका की परेशानियों का मुख्य कारण है और अब देश के सिंहली बौद्ध बहुसंख्यकों के रक्षक के रूप में विश्वसनीय नहीं है। 1 अप्रैल को राष्ट्रपति ने आपातकाल की स्थिति घोषित की और 3 जुलाई 2022 को भीड़ द्वारा राष्ट्रपति भवन पर कब्ज़ा करने के कुछ घंटों बाद, तत्कालीन राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को देश छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा। इस तरह सड़क पर फैला भीड़तंत्र का असंतोष सरकार को भागने पर मजबूर कर दिया।  यही परिस्थिति बांग्लादेश में 5 अगस्त को देखने को मिली।

जनता विमुक्ति पेरमुना ने पहली बार चुनाव जीत कर श्रीलंका के लोकतंत्र के इतिहास में कीर्तिमान कायम किया है। इसकी विचारधारा मार्क्सवादी-लेनिनवादी है।

इसके रेड गार्ड ने श्रीलंका सरकार के खिलाफ दो सशस्त्र विद्रोह किये- पहला 1971 में और दूसरा 1987-89 में। दोनों विद्रोहों का मकसद समाजवादी राज्य की स्थापना करना था। जेवीपी के शस्त्र कैडर जातीय हिंसा में हज़ारों कैडरों ने जान गँवाई। जेवीपी अब शस्त्र क्रांति की विफलताओं से सबक लेकर लोकतांत्रिक राजनीति में प्रवेश कर अपनी विचारधारा को बदला जिसमें निजी संपत्ति के उन्मूलन जैसी मार्क्सवादी नीतियों का त्याग शामिल है। जेवीपी ने 1977 में लोकतांत्रिक राजनीति में प्रवेश किया और पहली बार 1982 के राष्ट्रपति चुनावों में भाग लेकर 4.16% वोट हासिल किया। भारत-श्रीलंका समझौते पर हस्ताक्षर के बाद 1987 में जेवीपी ने दूसरी बार संगठित विद्रोह शुरू किया। 

2004 में यह यूनाइटेड पीपुल्स फ़्रीडम अलायंस के एक हिस्से के रूप में सरकार में शामिल हो कर लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (लिट्टे) के ख़िलाफ़ युद्ध में सरकार का समर्थन किया, लेकिन  गठबंधन सरकार छोड़ दी। बाद में इसने अपने स्वयं के राष्ट्रीय गठबंधन, नेशनल पीपुल्स पावर (NPP) के तहत चुनाव लड़ा और तब से यह श्रीलंका की राजनीति में एक प्रमुख तीसरी पार्टी रही है। यह हमेशा से भारत के विरोध में रही है। 2022 के आंदोलन और उसके बाद अब के चुनाव में पार्टी को चीन से आर्थिक मदद मिलने का भी आरोप है। जुलाई 2022 में राष्ट्रपति गोतबया राजपक्षे की सरकार को हटाने में पार्टी ने ज़मीनी सतह पर लोगों की गोलबंदी करने में काफी अहम् भूमिका निभाई थी। 

आम नागरिकों को राजनीतिक कुलीन वर्ग, जिनमें चार प्रमुख परिवार शामिल हैं, से उनके विषमताओं को कम करने की किसी भी तरह की आर्थिक राहत से उम्मीद नहीं थी। उन्हें निवर्तमान राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे भी एक मुखौटा से प्रतीत होते थे। वैसे जेवीपी उन्हें एक वैकल्पिक राजनीतिक के रूप में दिखलाई पड़ा। इस चुनावी नतीजे से यह साफ़ दिखलाई पड़ता है कि पार्टी को जनता का पूरा समर्थन नहीं है, अधिकांश इनके खिलाफ हैं, जो समय आने पर एक मजबूत विरोधी आंदोलन को पैदा कर सकते हैं। यही कारण है कि पद ग्रहण के पहले ही दिसानायके ने संसद का जल्द चुनाव करने की घोषणा कर दी क्योंकि डर है कि विदेशी मुद्रा ऋण के कठोर नियम देश में एक बार फिर से असंतोष के वातावरण पैदा कर सकता है।

दिसानायके चीन परस्त विचारों के लिए जाने जाते हैं और भारत की नीतियों के प्रति खुल कर विरोध प्रदर्शित भी करते आए हैं। भारत के कूटनीतिकों को उनके बढ़ते प्रभाव का आभास था, इसलिये उन्हें फरवरी महीने में दिल्ली बुलाकर विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने मीटिंग की और अपने विदेश नीतियों के बारे में जानकारी भी दी थी। उनकी तीन बातें जो आज भी भारत को द्विपक्षीय रिश्तों में बाधा डालती दिखलाई देती हैं उनमें सबसे पहले सामाजिक कारण है। श्रीलंका के संविधान के 13वें  संशोधन, जिसमें श्रीलंकाई तमिल के हितों की रक्षा की गयी है, का दिसानायके द्वारा जोरदार विरोध किया गया है। उनका श्रीलंकाई तमिल अलपसंख्यकों का विरोध एक नए शस्त्र आंदोलन में जान फूँक सकता है, जिसका सीधा प्रतिकूल असर भारत के तमिलनाडु और विश्व के अन्य जगहों पर पड़ेगा। आर्थिक विषमताओं से ध्यान भटकाने के लिए दिसानायके इस रास्ते भी चल सकते हैं। श्रीलंका सेना का लिट्टे ऑपरेशन में किये गए मानव अधिकारों के उल्लंघन पर जांच का भी विरोध इसमें शामिल है। दूसरा, भारत के साथ व्यापारिक संबंध  है। उनका विरोध अडानी समूह द्वारा 450 मेगावाट का पवन ऊर्जा या विंडमिल विद्युत परियोजना को देशहित विरोधी एवं भ्रष्टाचार के चलते निरस्त करना है।

तीसरा, चीन के सैन्य हित को आगे बढ़ावा देना है। चीन ने श्रीलंका को आर्थिक सहायता देने के एवज में हम्बनटोटा बंदरगाह को हथिया लिया है। हिन्द महासागर में चीन अपने हितों की रक्षा के लिये पीएलए  नेवी के जासूसी ज़हाज़ इस बंदरगाह भेजता रहा है जिसका पुरजोर विरोध भारत ने दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए किया है, पर अब चीन परस्त श्रीलंका सरकार भारतीय रक्षा चिंता को कितना महत्त्व देगी, सोचने वाली बात है। पाकिस्तान और श्रीलंका की सेनाएं सामूहिक युद्ध अभ्यास तो करती हैं अब उनमें चीन के समुद्र के अंदर परमाणु पनडुब्बी, जिसकी पहचान करना मुश्किल होगा, वह भी जुड़ जाएगी और अतिरिक्त सिरदर्द बढ़ाएगी।  

इन सभी प्रतिकूल कारणों के बावजूद भारत की श्रीलंका की जनमानस में एक अच्छी छवि है जो 2022 के उनके आर्थिक विषमताओं के समय लगभग 400 करोड़ की तुरंत नकद और मानवीय सहायता ने छोड़ा है। आज अटल बिहारी वाजपेयी की कही बातें सार्थक होती दिख रही हैं, ‘हम दोस्त तो बदल सकते हैं,पर पड़ोसी  नहीं’। 

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