पूर्वी यूरोप में कोरोना मरीज बेहद कम, पश्चिमी यूरोप में तबाही, क्यों?
भारत में लॉकडाउन का क्या नतीजा होगा और कोरोना संक्रमण को पूरी तरह रोकने में कितनी कामयाबी मिलेगी, यह तो कुछ दिन बाद ही पता चल सकेगा, पर पूर्वी यूरोप में हुए इस तरह के प्रयोग के नतीजे बहुत ही अच्छे रहे हैं।
इसे समझने के लिए पहले पश्चिम यूरोप पर एक नज़र डालते हैं। पश्चिम यूरोप के देशों में अस्पताल कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों से पटे पड़े हैं, अस्पताल प्रशासन की तो बात दूर रही, मुर्दाघरों को भी लाशों की रोज़ बढ़ती तादाद से जूझने में दिक्क़तों का सामना करना पड़ रहा है।
पश्चिम यूरोप में अधिक मौतें
जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के मुताबिक़, स्पेन में रविवार तक हर 10 लाख की आबादी पर 350 लोगों की मौत कोरोना से हुई है। इटली में यह संख्या 322, बेल्जियम में 314, फ्रांस में 302 और ब्रिटेन में 145 है।पूर्वी यूरोप की स्थिति इससे बहुत बेहतर है। ये देश संक्रमण को कम रखने में बहुत हद तक कामयाब रहे हैं। वहाँ पश्चिम की तुलना में कम रोगी हैं और बेहतर व्यवस्था है।
पूर्वी यूरोप के देश रोमानिया में प्रति 10 लाख पर 15 लोगों की मौत हुई है। यह संख्या चेक गणराज्य में 15, पोलैंड में 5 और स्लोवाकिया में 0.4 है।
पूर्वी यूरोप के ये देश पश्चिमी यूरोप के देशों की तुलना में अधिक ग़रीब हैं, वहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ अपेक्षाकृत कमज़ोर हैं। लेकिन वहाँ मृत्यु की दर पश्चिम की तुलना में बहुत ही कम है। हम सीधे तुलना कर सकतें हैं -स्पेन में प्रति 10 लाख लोगों पर 350 और स्लोवाकिया में 0.4 लोगों की मौत।
पूर्व में पहले लॉकडाउन
मशहूर पत्रिका वॉल स्ट्रीट जर्नल का कहना है कि इसकी बड़ी वजह यह है कि पूर्वी यूरोप के देशों ने सोशल डिस्टैंसिंग को जल्दी लागू किया और अधिक सख़्ती से उसका पालन किया।इस कारण पूर्वी यूरोप के देश कोरोना संक्रमण को समय रहते रोकने में कामयाब रहे। पश्चिमी यूरोप के देशों ने इसमें देर की और उसका नतीजा सामने है।
सोशल डिस्टैंसिंग
जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि जिन देशों की आबादी में बुज़ुर्गों की तादाद ज़्यादा है, अस्पताल पूरी तरह उपकरणों से लैस नहीं हैं, वहाँ तेज़ी से और सख़्ती से सोशल डिस्टैंसिंग अधिक ज़रूरी है।
यह भी साफ़ है कि जिन देशों में दूसरे देशों से पहुँचने वाले लोग कम हैं, जो देश दूसरे देशों से कम जुड़े हुए हैं, वहाँ कोरोना संक्रमण धीमी रफ़्तार से फैला है।
इन सबके बीच सोशल डिस्टैंसिंग अधिक कारगर उपाय है, यह भी साफ़ है। इसे कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है। जर्मनी में पूरे जोश के साथ कार्निवल होता रहा, इटली के लोग खचाखच भरे हुए स्टेडियम में फ़ुटबॉल का मैच देखते रहे और ब्रिटिश नागरिक भरे हॉल में कॉनसर्ट देखते रहे।
इसी तरह अमेरिका के लोग खाड़ी देशों में समुद्र तट पर भीड़ लगा कर छुट्टियाँ मनाते रहे। यानी, इन देशों में सोशल डिस्टैंसिंग का थोड़ा भी ख़्याल नहीं रखा गया, किसी ने कोई परवाह नहीं की। अब इन्हीं देशों में सबसे ज़्यादा कोरोना संक्रमण है।
पश्चिमी यूरोप में लॉकडाउन में देर
इन देशों ने लॉकडाउन लगाने में बहुत देर कर दी। वॉल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार, 24 मार्च को जब ब्रिटेन में लॉकडाउन लगाया गया, 8 हज़ार से अधिक लोग संक्रमित हो चुके थे और 422 लोगों की मौत हो चुकी थी।दूसरी ओर चेक गणराज्य ने लॉकडाउन 12 मार्च को ही लगा दिया और अपने तमाम स्कूल-कॉलेज ही नहीं, मोटा पैसा कमाने वाले पर्यटन उद्योग भी बंद कर दिया। उस समय तक वहाँ सिर्फ 100 लोगों में कोरोना के लक्षण पाए गए थे और किसी की मौत नहीं हुई थी।
पूर्वी यूरोप में लॉकडाउन फायदेमंद
स्लोवाकिया ने उसी दिन लॉकडाउन का एलान किया, उस समय तक वहाँ 21 लोगों को संक्रमण हुआ था। पोलैंड ने इसके एक दिन बाद लॉकडाउन कर दिया, उस समय तक वहाँ कोरोना संक्रमण के 17 मामले सामने आए थे।
चेक गणराज्य के स्वास्थ्य मंत्री एडम वोएटेक ने कहा, 'हम जानते थे कि हमारे अस्पताल हालात से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हैं, हमें तो स्थिति पर जल्द रिएक्ट करना ही था।'
पश्चिम की लापरवाही!
पश्चिम की लापरवाही या स्थिति समझने की नाकामी को इस तरह समझा जा सकता है कि जिस दिन पोलैंड में लॉकडाउन लगाया गया, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन ने अपने नागरिकों से कहा कि वे भीड़ भरे स्टेडियम में मैच देख सकते हैं।याद दिला दें कि बाद में यही बोरिस जॉन्सन ख़ुद कोरोना से संक्रमित हुए और एक सप्ताह तक आईसीयू में रहने के बाद बाहर निकले हैं।
क्या कहा था ट्रंप ने
इस मामले में अमेरिका तो और आगे निकल गया। राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने कहा :
“
'हम तैयार हैं और हम इस मामले में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। और यह दूर हो जाएगा। बस, आप शांत रहें, यह चला ही जाएगा।'
डोनल्ड ट्रंप, राष्ट्रपति, अमेरिका
बता दें कि अमेरिका में अब तक 6 लाख से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं और वहाँ 28 हज़ार से ज़्यादा लोगों की मौत हो चुकी है।
आर्थिक कारण
इसकी कुछ वजहें भी हैं। पश्चिमी देशों में सरकारें आर्थिक नुक़सान के डर से सोशल डिस्टैंसिंग लागू करने में हिचक रही थीं। उन्हें यह भी लग रहा था कि लोग लंबे समय तक इन दिशा निर्देशों को नहीं मानेंगे। लेकिन बाद में देखा गया है कि ब्रिटेन में 23 मार्च से ही लॉकडाउन है और इसे हटाने की फ़िलहाल कोई योजना नहीं है।
जिन देशों ने लॉकडाउन पहले लागू किया था, वे अब उससे बाहर निकलने और सामान्य जीवन एक बार फिर शुरू करने की ओर बढ़ रहे हैं।
लेकिन अधिकारियों को इसकी आशंका है कि संक्रमण का दूसरा दौर आ सकता है, संक्रमित लोगों की तादाद एक बार फिर बढ़ सकती है। वे इसकी तैयारियों में भी जुट गए लगते हैं।
कहाँ है भारत
पर्यवेक्षकों का कहना है कि भारत में सबकुछ बहुत ही देर से शुरू हुआ। विश्व स्वास्थ्य संगठन की चेतावनी के बावजूद सरकार ने पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट एकत्रित करने की कोई कोशिश नहीं की, उल्टे उसका निर्यात होता रहा।
मार्च के तीसरे हफ़्ते तक कहीं कोई हड़बड़ी नहीं थी, हवाई सेवा चल रही थी, बड़ी भीड़ वाले आयोजन हो रहे थे, धार्मिक स्थल खुले हुए थे, संसद-विधानसभा में कार्यवाहियाँ सामान्य रूप से चल रही थीं।
मार्च के अंतिम हफ़्ते में सरकार चेती, प्रधानमंत्री ने पहले एक दिन का लॉकडाउन किया, उसके बाद 21 दिन का लॉकडाउन हुआ, उसे एक बार फिर बढ़ा दिया गया है। यह लॉकडाउन 3 मई तक चलेगा। कुल मिला कर लगभग 35 दिनों का लॉकडाउन हो जाएगा। इसे मोटे तौर पर सख़्ती से लागू भी किया जा रहा है।
भारत में लॉकडाउन का असर पूर्वी यूरोप जैसा होगा या पश्चिमी यूरोप जैसा, अभी निष्कर्ष निकालना जल्दबाजी होगी। लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय के आँकड़ों से ही पता चलता है कि रोज़ सामने आने वाले मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं, इंडियन कौंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च के आँकड़ों से साफ़ लगता है कि स्थिति सामुदायिक संक्रमण में पहुँच चुकी है। नतीजा जल्द ही मालूम हो जाएगा।