अमेरिका से वार्ता: ट्रंप की नीतियों से भारत की मुसीबतें बढ़ीं!
आगामी 26 और 27 अक्टूबर को भारत और अमेरिका के बीच विदेश व रक्षा मंत्रियों की ‘टू प्लस टू’ की अहम वार्ता होने वाली है जो ट्रंप प्रशासन की भारत के साथ अंतिम सामरिक वार्ता होगी। अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में राष्ट्रपति ट्रंप भारत के साथ रिश्तों की बुनियाद को और मजबूत करने के लिए अपने दो आला मंत्रियों माइक पोम्पियो और मार्क टी एस्पर को भारत भेज रहे हैं।
यह बात भारत के लिए काफी अहम है लेकिन सवाल यह उठता है कि अमेरिका के साथ भारत की दोस्ती किन क्षेत्रों में आगे बढ़ेगी और किन क्षेत्रों में अमेरिका के साथ दोस्ती की कीमत चुकानी होगी।
पिछले चार सालों में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय मंचों और समरक्षेत्रों से हाथ खींच कर उन रिक्त स्थानों को भरने का मौका चीन को दिया है जिससे भारत पर सामरिक दबाव बढ़ा ही है। भले ही ट्रंप कितना ही चीन विरोधी दिखें, उनकी पिछले चार साल की नीतियों की वजह से चीन को अफ्रीका से लेकर लातिन अमेरिका और एशिया के कई इलाकों में अपना रुतबा बढ़ाने का मौका मिला है।
चीन का बढ़ता दायरा
अपने शासन काल में ट्रंप ने पेरिस पर्यावरण संधि, ईरान परमाणु समझौता, यूनेस्को, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद, इंटरमीडिएट रेंज न्यूक्लियर फोर्सेज ट्रीटी, विश्व स्वास्थ्य संगठन, ओपन स्काई ट्रीटी, और ट्रांसपैसिफिक पार्टनरशिप से हाथ खींचकर इन संगठनों में चीन को अपनी भूमिका बढ़ाने का मौका दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के भीतर रह कर अमेरिका चीन को कोरोना वायरस के सवाल पर जिस प्रभावी तरीके से कठघरे में खड़ा कर सकता था वैसा वह बाहर रह कर नहीं कर सकता।
अफ़ग़ानिस्तान का मसला
ईरान परमाणु संधि और मध्यम दूरी की परमाणु फोर्सेज की संधि से अमेरिका के बाहर निकलने का तो सबसे अधिक फायदा चीन को ही मिलेगा। दूसरी ओर, दुनिया के समर क्षेत्रों में सबसे अहम इलाका अफ़ग़ानिस्तान का है, जहां से अपनी फौज़ को आगामी दिसम्बर यानी क्रिसमस तक वापस बुला लेने का ट्रंप का संकल्प चीन के लिए दक्षिण एशिया से लेकर पश्चिम एशिया और मध्य एशिया के इलाके में नेतृत्वकारी भूमिका प्रदान करने वाला और भारत के लिए चिंताजनक साबित होगा।
अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के चले जाने के बाद उसकी जगह चीन भरेगा जिसका वह विस्तारवाद की अपनी आर्थिक व समर नीति को लागू करने में भरपूर लाभ उठाएगा। इसी इरादे से चीन ने पाकिस्तान समर्थित तालिबान को बढ़ावा दिया है।
विस्तारवाद में जुटा चीन
तालिबान को साथ लेकर वह अफ़ग़ानिस्तान में अपना गढ़ बनाएगा, जहां से वह एशिया में अपना दबदबा बढ़ाने की रणनीति को आसानी से अंजाम दे सकेगा। चीन इस इलाके को अपने बेल्ट रोड प्रोजेक्ट में आसानी से फंसा सकता है और पूरे इलाके में अपनी सड़कों और आवागमन का जाल बिछा कर इसे अपनी गिरफ्त में ले सकता है।
हिंद प्रशांत इलाके के चार बड़े देशों को साथ लेकर क्वाड का गठन और चीन की चुनौती का एकजुट मुकाबला करने की रणनीति को अमेरिका ने आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाया, लेकिन इसके बावजूद दक्षिण चीन सागर में चीन अपनी विस्तारवादी हरकतों को अंजाम देने से बाज नहीं आ रहा।
जापान भी परेशान
यदि बारीकी से देखें तो राष्ट्रपति ट्रंप के शासन काल में हिंद प्रशांत इलाके में भी ट्रंप के कड़े बयानों का चीन पर कोई असर नहीं दिखा है। दक्षिण चीन सागर से लेकर पूर्वी चीन सागर के इलाके में चीन द्वारा वियतनाम, फिलीपींस जैसे छोटे देशों को छेड़ने की हरकतों में कोई कमी नहीं दिखी है। यहां तक कि जापान भी चीन से परेशान ही महसूस कर रहा है।
क्या भारत को चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका की जरूरत है, देखिए, वीडियो-
जहां तक भारत का सवाल है- ट्रंप की आतंकवाद, जम्मू-कश्मीर और हिंद प्रशांत की नीतियों की वजह से भारत को काफी राहत मिली है और अमेरिका से भारत की बढ़ती नजदीकियों की यही बड़ी वजह भी है लेकिन अफ़ग़ानिस्तान और ईरान को लेकर उसकी नीतियों से भारत की क्षेत्रीय समरनीति को भारी धक्का लगा है।
अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका अपनी फौज़ हटा लेगा तो वहां न केवल तालिबान सत्ता पर काबिज होगा बल्कि चीन को भी तालिबान के सबसे बड़े मददगार के तौर पर पेश होने का मौका मिलेगा। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान, पाकिस्तान और चीन का गठजोड़ भारत के लिए विनाशकारी साबित होगा।
अफ़ग़ानिस्तान का तालिबान शासन फिर से भारत विरोधी आतंकवादी तत्वों का गढ़ तो बनेगा ही भारत को वहां चल रहे अपने सभी विकास कार्यों को बीच में रोक कर अपने लोगों को वापस लाना होगा।
मध्य एशिया नीति को धक्का
उसी तरह ईरान के ख़िलाफ़ अमेरिकी नीतियों ने भारत की ईरान से दोस्ती और मध्य एशिया नीति को भारी धक्का पहुंचाया है। भारत की मध्य एशिया नीति में अफ़ग़ानिस्तान और ईरान का अहम स्थान माना जाता है लेकिन ईरान और अफ़ग़ानिस्तान दोनों पर जब चीन का दबदबा होगा तो दोनों देश भारत की मध्य एशिया समर नीति में बाधक ही बनेंगे।
अमेरिका से हथियारों की खरीद
जहां तक भारतीय सेनाओं को आधुनिक साजो-सामान प्रदान करने की बात है, निसंदेह भारतीय सेनाओं को अमेरिका ने काफी मजबूती प्रदान की है लेकिन हमें यह नहीं नजरअंदाज करना चाहिये कि गत करीब 12 सालों के भीतर भारत ने अमेरिका से 22 अरब डालर से अधिक की शस्त्र प्रणालियों को खरीद कर अमेरिकी हथियार कम्पनियों के लिए अपना बड़ा बाजार मुहैया कराया है और अमेरिका में हजारों लोगों को रोजगार दिया है।
लेकिन इसके साथ ही कैटसा कानून पारित कर रूस से रक्षा रिश्ते नहीं रखने का जो दबाव भारत पर डाला गया वह भारत-रूस की दशकों पुरानी गाढ़ी दोस्ती में दरार ही पैदा करता। कुल मिलाकर केवल हिंद प्रशांत और आतंकवाद के मसले पर ट्रंप भारत के लिए मददगार साबित हुए लेकिन कई अन्य क्षेत्रों में वह भारत को मुश्किलों में डालने वाले ही साबित हुए हैं।
चीन से चल रही मौजूदा सैन्य तनातनी के बीच अमेरिका के दोनों आला मंत्रियों का भारत दौरा भारत का मनोबल बढ़ाने वाला और चीन के लिए संदेश है लेकिन अन्य क्षेत्रों में आगामी ‘टू प्लस टू’ वार्ता में अमेरिका भारत की सामरिक चिंता को कितना दूर करेगा, इस पर पर्यवेक्षकों की नजर रहेगी।