यह हिंदुओं के वाक़ई सचेत होने का समय है!
तमाम राजनीतिक विश्लेषक इस बात पर एकमत हैं कि सांप्रदायिक तनाव से होने वाला ध्रुवीकरण बीजेपी को चुनावी को फ़ायदा पहुँचाता है। इससे हिंदू समाज की जाति-उपजाति की तमाम दरारें ढंक जाती हैं और केवल हिंदू होकर वोट देने का सिलसिला शुरू हो जाता है। मणिपुर से लेकर गुड़गाँव में लगी आग को बुझाने को लेकर राज्य सरकारों की उदासीनता के पीछे भी यही तर्क है कि बीजेपी तनाव के ज़रिए चुनाव जीतने की आदी है। वह कोई संविधान सम्मत धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल नहीं, अल्पसंख्यकों के प्रति नफ़रत का निरंतर अभियान चलाने वाली ‘हिदुत्व पार्टी’ है।
लेकिन इस आख्यान में यह संदेश भी छिपा है कि आम हिंदू कट्टरता को पसंद करता है। उसे अच्छा लगता है जब ईसाइयों और मुसलमानों को ‘टाइट’ किया जाता है। कुल मिलाकर माहौल यह बना दिया गया है कि हिंदुओं का ‘न्यायबोध’ नष्ट हो चुका है और वे एक ऐसी भीड़ में तब्दील हो गये हैं जो सबसे तेज़ आवाज़ में नफ़रत की हाँक लगाने वाले के पीछे चल पड़ती है। ‘हिंदुत्व’ की राजनीतिक सफलता ने सैकड़ों साल से बनी हिंदू धर्म की सहिष्णु छवि को पूरी तरह धूल-धूसरित कर दिया है। ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ के दौर में हिंदुओं के बारे में यह राय बनना वाक़ई गंभीर मामला है। खुलकर कहा जाये तो ‘जाग्रत हिंदू भावना’ के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, उससे सबसे ज़्यादा हिंदुओं को सचेत होने की ज़रूरत है।
हिंदू आध्यात्मिक परंपरा की खूबसूरती यही है कि कोई भी ग्रंथ या शास्त्र अंतिम नहीं माना जाता है। धर्मशास्त्रों की आलोचना के ज़रिए नये मतों का प्रतिपादन और फिर इस नये मत को नई कसौटियों पर कसते हुए किसी अन्य नये विचार की ओर प्रस्थान कर जाना सामान्य बात रही है। शंकराचार्य अगर जीव और ब्रह्म में अद्वैत मानते हैं और अंतर देखने को ‘माया का प्रभाव’ मानते हैं तो रामानुजाचार्य विशिष्टाद्वैत का दर्शन प्रतिपादित करते हैं जिसमें जीव और ब्रह्म उसी तरह अलग-अलग हैं जैसे सूर्य और उसकी किरणें।
इसी तरह मूर्तिपूजा का जितना महत्व है उतना ही निराकार ब्रह्म के उपासक को भी महत्व दिया जाता है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने तो 19वीं शताब्दी में जो प्रभावशाली आर्यसमाज आंदोलन चलाया उसके मूल में मूर्तिपूजा का निषेध और वेदों की ओर लौटने का आह्वान था। उन्होंने अवतारवाद का भी खंडन किया था। इतना ही नहीं, हिंदू परंपरा में ईश्वर को न मानने वाले विचारक भी ऋषि कहे गये हैं। भौतिक जगत को मुख्य मानने वाले चार्वाक दर्शन के प्रणेता ऋषि बृहस्पति हैं और मान्यता ये भी है कि आचार्य बृहस्पति ही देवताओं के ‘गुरु’ हैं। स्थापित सत्य पर संशय करते हुए नवीन सत्य के उद्घाटन की ओर प्रेरित रहना हिंदू परंपरा की विशेषता रही है।
ऋग्वेद या समस्त वेद ही हिंदुओं के सबसे पवित्र ग्रंथ माने जाते हैं। यहाँ तक कि नास्तिकता की परिभाषा ही यह थी कि ‘जो वेदों को नहीं मानते।‘ लेकिन ऋग्वेद का नासदीय सूत्र इस बात पर ही संदेह जताता है कि सृष्टि की रचना किसी ईश्वर ने की थी। आज भी बहुत लोगों को नेहरू जी की किताब डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया पर आधारित दूरदर्शन के धारावाहिक भारत एक खोज में थीम सॉंग बतौर इस्तेमाल हुए नासदीय सूत्र के एक श्लोक के संगीतमय अनुवाद की याद होगी, जो कहता है- “सृष्टि का कौन है कर्ता/ कर्ता है या अकर्ता/ ऊँचे आकाश में रहता/ सदा अध्यक्ष बना रहता/ वही सचमुच में जानता/ या नहीं भी जानता/ है किसी को नहीं पता/ नहीं पता... नहीं है...नहीं है पता..!”
ऐसे में जब हिंदू राष्ट्र के विचार से भरा आरपीएफ का सिपाही चलती ट्रेन में खोज-खोजकर मुसलमानों की हत्या करता है और ‘भारत में रहना है तो मोदी-योगी कहना है’ जैसा भाषण देता है तो वह उस संविधान पर ही बारूद नहीं बरसा रहा होता है जो सभी नागरिकों को बराबर मानता है, हिंदू धर्म पर भी हमला कर रहा होता है। हिंदू धर्म में जब ईश्वर ही अनिवार्य नहीं है तो फिर कोई नेता कैसे अनिवार्य हो सकता है? या जब मणिपुर के मैतेई आदिवासियों को धर्म के आधार पर ईसाई कुकी आदिवासियों से संघर्ष में उतारा जाता है तो हिंदू धर्म पर चोट की जा रही होती है। हिंदू धर्म में किसी को पराया मानने की इजाज़त नहीं है बल्कि यह पूरी वसुधा को परिवार मानने का संदेश देता है।
हिंदुत्व की राजनीति ने हिंदू धर्म के सामने वाक़ई एक गंभीर चुनौती खड़ी कर दी है जो ईश्वर की अराधना करने के लिए मंदिर से ज़्यादा मस्जिद को ज़रूरी मानता है।
किसी त्योहार में मुस्लिम बहुल इलाके में जुलूस निकालकर जाना और मस्जिदों पर हमला करना, आपत्तिजनक नारे लगाना, पैगंबर को गाली देना आखिर ‘धर्म’ कैसे हो सकता है। हरियाणा में जो कुछ हुआ, वह और क्या है? बीजेपी सरकार ने जिस तरह से हरियाणा में आग फैलने दी, उससे हिंदू समाज के बारे में उसकी राय साफ़ तौर पर पता चलती है। इस राय के मुताबिक़ हिंदू समुदाय मुस्लिमों के ख़िलाफ़ हिंसा को पसंद करता है। जब मुस्लिम समुदाय की ओर से प्रतिक्रिया होगी, सरकार कार्रवाई करेगी और हिंदू वोट बीजेपी के पक्ष मे गोलबंद होंगे।
जो हिंदू, धर्म के आधार पर अंतर करने के षड्यंत्र के शिकार हो गये हैं उन्हें सोचना चाहिए कि अगर ब्रह्म और जीव में फ़र्क़ नहीं है तो फिर हिंदू और मुस्लिम में फ़र्क़ कैसे हो सकता है? अगर ईश्वर सृष्टि का रचियता है तो मुस्लिम, ईसाई या कोई भी अन्य पंथ भी तो उसी की रचना है! क्या ईश्वर की रचना के प्रति द्वेष पालना क्या ईश्वर के प्रति द्वेष पालना नहीं है? अगर सत्य और अहिंसा धर्म के महामंत्र हैं तो फिर आईटी सेल के ज़रिए झूठ फैलाने वाले या मंच पर खड़े होकर गोली मारने का आह्वान करने वाले नेता या कथित साधु धार्मिक कैसे हो सकते हैं?
हिंदू धर्म के गौरव कहे जाने वाले विवेकानंद तो ‘इस्लामी शरीर में वेदांती मस्तिष्क’ को भारत का भविष्य बताते हैं। उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस मुस्लिम और ईसाई बनकर अनुभव लेते हैं और फिर बताते हैं कि सभी धर्म एक ही सत्य की ओर ले जाने के माध्यम हैं। ऐसे में नफ़रत और हिंसा के रास्ते पर समाज को ले जाने वाले धर्म नहीं अधर्म के झंडाबरदार ही हो सकते हैं।
राजनीति में धर्म का इस्तेमाल करने के ख़िलाफ़ सुभाषचंद्र बोस जैसे महानायक बहुत पहले चेता गये हैं। उन्होंने कहा था कि ‘हिंदुओं, भगवाधारी साधुओं को आगे करके वोट माँगने वाले हिंदू धर्म के ग़द्दार हैं। इन्हें राष्ट्रीय जीवन से उखाड़ फेंको।‘
हिंदुओं को ठहरकर विचार करना चाहिए कि इस ‘हिंदू समय’ में कितना हिंदू विचार है और कितना हिंदू विरोध। हिंदुओं के जागरण का अर्थ नफ़रत नहीं, प्रेम का उद्घोष है- यह साबित करने की चुनौती हिंदुओं की है। यह वाक़ई उनके सचेत होने का समय है।