हिन्दू मुसलिम- पार्ट 2: दोनों धर्मों की मान्यताओं में बहुत एकरूपता है!
पहली कड़ी- हिन्दू मुसलिम विवाद: कितना धार्मिक- कितना राजनीतिक
मेरा मानना है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच धार्मिक विवाद कभी था ही नहीं, सांप्रदायिक शक्तियों, अंग्रेज़ों और राजनीतिज्ञों ने अपने फ़ायदे के लिए हिन्दुओं को मुसलमानों से दूर किया। आम तौर पर ईसाइयों और यहूदियों को मुसलमानों का क़रीबी धर्म माना जाता है क्योंकि ये तीनों धर्म हज़रत इब्राहीम के वंशजों से जुड़े हैं और अरब की धरती से फैले हैं लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि हिंदुओं और मुसलमानों में विश्वासों और मान्यताओं में भी बहुत एकरूपता है।
पहली एक रूपता तो यह है कि सनातन धर्म (हिन्दू मत) ने हज़ारों वर्ष पहले दुनिया को एकेश्वरवाद से परिचित करवाया था और मुसलमान भी एकेश्वरवादी हैं। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि संसार को सबसे पहले हिन्दुओं के धर्म ग्रंथों ने ही यह बात बताई कि इस संसार की रचना करने वाला ईश्वर है, जो निराकार और नि:स्वरूप है, जो अनंत है और शून्य है, जो हर जगह है और कहीं नहीं है, वह सदा से है और सदा रहेगा। निःसंदेह ईश्वर (अल्लाह) के बारे में यही विश्वास मुसलमान भी रखते हैं।
एक बार मैंने शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती से पूछा कि ईश्वर के बारे में सनातन धर्म में क्या मान्यता है? तो उन्होंने कहा कि “मुसलमानों का जो अल्लाह के बारे में विश्वास है वही हिंदुओं का ईश्वर के बारे में भी है, केवल फ़र्क़ यह है कि हिंदू यह भी मानते हैं कि ईश्वर इंसान के रूप में धरती पर ख़ुद भी उतर सकता है जबकि मुसलमान यह मानते हैं कि ईश्वर मनुष्य का रूप धारण करके ख़ुद अवतरित होने के बजाय अपने अवतार (पैग़म्बर) धरती पर उतारता है।”
ख़ास बात यह है कि इसलाम ने साफ़ शब्दों में मुसलमानों से कहा है कि वे दूसरे धर्म के अवतारों व पूजनीय व्यक्तियों के बारे में अपशब्द ना कहें। क़ुरआन शरीफ़ में कहा गया है, “देखो जो लोग अल्लाह को छोड़ कर दूसरे माबूदों (देवताओं) को पुकारते हैं, तुम उनको बुरा मत कहो।” आगे कहा गया है, “हम (अल्लाह/ईश्वर) ने इंसान की तबीयत (मानसिकता) ऐसी बनाई है कि हर समूह को अपना अमल (कर्म) अच्छा दिखाई देता है, फिर अंत में सबको अपने परवरदिगार (पालनहार) की ओर लौटना है।”
पवित्र क़ुरआन के 5वें सूरे की 48वीं आयत में कहा गया है कि “हम (अल्लाह/ईश्वर) ने तुममें से हर एक के लिये एक विशेष शरीयत (धार्मिक आचार संहिता) और रास्ता मुक़र्रर (सुनिश्चित) कर दिया है अगर अल्लाह चाहता तो तुम सब को एक उम्मत (एक धर्म समूह) बना देता लेकिन वह अपने बनाये हुए क़ानून से तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता है (अत:) बस नेकी की राहों में एक दूसरे से आगे निकल जाने की कोशिश करो।"
इस बात को समझना भी ज़रूरी है कि यह सारे अलग अलग धर्म अल्लाह (ईश्वर) की मर्ज़ी से बने हैं और वह केवल अपने बंदों (भक्तों) से यही चाहता है कि वे पुण्य के कार्य करें।
ज़रा सोचिये मानव समाज का विभाजन ईश्वर की ईच्छा से हुआ है तो फिर धर्म के नाम पर लड़ने की क्या ज़रूरत है?
दोनों धर्मों में कितनी निकटता है उसका अंदाज़ा लगाने के लिए मैं आपको वेदों और क़ुरआन में लिखी कुछ एक जैसी बातों के बारे में बताना चाहता हूँ। यदि क़ुरआन ने 1400 वर्ष पूर्व कहा कि अल्लाह (ईश्वर) एक है तो कई हज़ार वर्ष पूर्व हिन्दुओं के धर्म ग्रंथ ने कहा “एकम् एवाद्वितियम” अर्थात 'वह केवल एक ही है’।
इसी तरह क़ुरआन के सूरा ए तौहीद में कहा गया है, “कहो अल्लाह एक है वह बे नियाज़ है, न उसका कोई पुत्र है न वह किसी का पुत्र है न उसका कोई जीवन साथी है’’। इसी से मिलती जुलती बात हिन्दू धर्म ग्रंथ में इस प्रकार लिखी गई है। (छन्दोग्य उपनिषद्, अध्याय 6, भाग 2, श्लोक 1) “एकम् एवाद्वितियम” अर्थात 'वह केवल एक ही है। (श्वेताश्वतर उपनिषद्, अध्याय 4, श्लोक 9) "नाकस्या कस्किज जनिता न काधिपः" अर्थात उसका न कोई माँ-बाप है न ही संतान। (श्वेताश्वतर उपनिषद, अध्याय 4, श्लोक 19) "न तस्य प्रतिमा अस्ति" अर्थात उसकी कोई छवि नहीं हो सकती। (श्वेताश्वतर उपनिषद, अध्याय 4, श्लोक 20) "न सम्द्रसे तिस्थति रूपम् अस्य, न कक्सुसा पश्यति कस कनैनम" अर्थात उसे कोई देख नहीं सकता, उसको किसी की भी आँखों से देखा नहीं जा सकता।
(वेदान्त का ब्रह्म सूत्र) "एकम् ब्रह्म, द्वितीय नास्ते, नेह-नये नास्ते, नास्ते किंचन" अर्थात ईश्वर एक ही है, दूसरा नहीं है, नहीं है, नहीं है, जरा भी नहीं है।
गीता के दूसरे अध्याय के 40वें श्लोक में कहा गया है, “धार्मिक उथल पुथल छोड़, एक मात्र मेरी (प्रभु की) शरण हो जा अर्थात एक भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण ही धर्म का मूल है। उस प्रभु को पाने की नियत विधि का आचरण ही धर्माचरण है।”
यहाँ पर कहता चलूँ कि मुसलमान भारत में इसलाम फैलने के कुछ वर्षों के अंदर ही आ तो गए थे मगर उनको वेदों की शिक्षाओं का पता नहीं चला, इसी कारण अधिकतर लोग सनातन धर्म को समझ नहीं पाए। शायद उसका एक कारण यह भी था कि वेद आम लोगों की पहुँच से बाहर थे और केवल उनका पाठ उच्च वर्ग के लोग ही कर सकते थे।
(जारी...)