क्या ‘हिन्दी नीति’ लोकलुभावनवाद की बीमारी से ग्रस्त है?
15 से 17 फरवरी, 2023 के बीच फ़िजी के नंदी शहर में 12वें ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’ का आयोजन किया गया। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद(ICCR) के सहयोग से भारतीय विदेश मंत्रालय द्वारा इस सम्मेलन का आयोजन किया गया। पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में किया गया था। इस समारोह का उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने किया था, इसके बाद 2006 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में 10 जनवरी को ‘विश्व हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाए जाने की घोषणा की गई। 2012 के बाद से प्रत्येक तीन वर्षों बाद विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित किए जाने लगा।
भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने फ़िजी में चले विश्व हिन्दी सम्मेलन में अपनी बात को सशक्त तरीके से रखते हुए कहा कि “हमारा लक्ष्य यह (सुनिश्चित करना) है कि हिन्दी को हम कैसे एक विश्व भाषा बनाएं?” और साथ में विदेश मंत्री ने यह भी विश्वास दिलाने की कोशिश की कि “विश्व हिन्दी सम्मेलन आने वाले समय में हिन्दी का एक महाकुंभ बनेगा”। इन सबके बावजूद हिन्दी भाषा और इस पर भरोसा रखने वालों में, इसे अपनी जीवन शैली बनाने वालों और रोजगार की भाषा के रूप में चिन्हित करने वाले लोगों के जीवन में लगातार ह्रास हो रहा है।
हिन्दी भाषा की स्थिति में सुधार स्वयं की पीठ थपथपाने से नहीं हो सकता जैसा कि सरकार द्वारा मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई को हिन्दी में शुरू करने के फैसले के बाद किया जा रहा है। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, जिसके सहयोग से विश्व हिन्दी सम्मेलन, आयोजित किया जाता है, के अध्यक्ष विनय सहस्त्रबुद्धे, का एक लेख अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्स्प्रेस में ‘हिन्दी इन द वर्ल्ड’ नाम से छपा था इसमें उन्होंने लिखा कि “भारतीय भाषाओं को वैश्विक पहचान बनाने से पहले अपनी मातृभूमि में सम्मान प्राप्त करना होगा।” आधुनिक विश्व में भाषाएँ और उद्योग स्वतः स्फूर्त विकास करने की स्थिति में नहीं हैं, यह अपने विकास के लिए सरकारी नीतियों और बाजार पर आधारित हैं। यही कारण है कि हजारों भाषाएं और उद्योग विलुप्त हो रहे हैं।
हिन्दी में होने वाला ह्रास भी इसी तथ्य का शिकार है। विनय सहस्रबुद्धेशायद सरकारी आलोचना से बच रहे हों इसलिए उन्होंने अपने पूरे लेख में कहीं भी इस बात का ज़िक्र ही नहीं किया कि हिन्दी को रोजगार की भाषा बनाना, हिन्दी को बचाने और समृद्ध करने का सबसे बेहतर जरिया है। लेकिन सरकार संभवतया ऐसा नहीं चाहती है। इसे एक बेहद समसामयिक मुद्दे से जोड़कर देखा जा सकता है। यह मुद्दा है संघ लोकसेवा आयोग (UPSC) में लगातार गिरती हिन्दी माध्यम से चयनित छात्रों की संख्या। यूपीएससी देश की सबसे प्रतिष्ठित संस्थाओं में से एक है।
यह भारत के लिए ‘स्टील फ्रेम’ कही जाने वाली ब्यूरोक्रेसी(आईएएस, आईपीएस, आईएफ़एस) का निर्माण करती है। दुर्भाग्य यह है कि लगभग 53 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी भाषा इस स्टील फ्रेम से लगभग विलुप्ति की कगार पर है। यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा में वर्ष 2011 के पहले हिन्दी माध्यम से चयनित होने वाले विद्यार्थियों की संख्या लगभग 40% तक रहती थी। यह संख्या 2011 के बाद 1 से 5% तक सिमट कर रह गई है।
भारत के स्टील फ्रेम में हिन्दी भाषा अंग्रेजी द्वारा लगातार प्रतिस्थापित की जा रही है और ICCR के अध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धे को लगता है कि “किसी भी भाषा का प्रयोग उसकी प्राणवायु होती है। अगर हम अंग्रेजी के लिए हिंदी या किसी अन्य भाषा का प्रयोग बंद कर दें तो उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।”
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एक भाषा जो एक छात्र को सिविल सेवा के माध्यम से देश के सर्वोच्च पदों पर जाने से रोकती है, उसके प्रयासों को हतोत्साहित करती है, ऐसी भाषा का उपयोग क्यों किया जाना चाहिए? देश के सर्वोच्च संस्थानों, आईआईटी, आईआईएम आदि में पहुँचने के लिए हिन्दी एक बड़ा रोड़ा साबित हुई है। और अब तो राज्यों की सिविल सेवाओं में भी हिन्दी धीरे धीरे अंग्रेजी से प्रतिस्थापित होती जा रही है।
2011 में बिना सोच विचार किए खन्ना समिति(2010) की सिफारिशों को मान लिया गया और CSATलागू कर दिया गया। हिन्दी का नुकसान शुरू हो गया था या यह कहा जाए शुरू कर दिया गया था। CSAT से सिर्फ एक खास वर्ग के लोगों को फायदा हुआ। हिन्दी माध्यम से प्रारम्भिक परीक्षा पास करने वालों की संख्या में गिरावट दर्ज होनी शुरू हो गई थी। आने वाले वर्षों में हिन्दी माध्यम से सिविल सेवा में पहुँचने वाले छात्रों की संख्या घटती गई। 2013 में हुए बदलावों ने भी हिन्दी माध्यम को ही नुकसान पहुँचाया।
2013 की सिविल सेवा परीक्षा में हिन्दी माध्यम से सामान्य वर्ग में एक भी छात्र आईएएस के पद को नहीं पा सका, 1122 छात्रों का चयन हुआ जिसमें हिन्दी माध्यम से लगभग 25 छात्र ही चयनित हो सके। 2014 से 2018 तक बीच बीच में मामूली सुधार के साथ बदतर प्रदर्शन जारी रहा। 2017 की सिविल सेवा परीक्षा में हालत यह पहुँच गई कि हिन्दी माध्यम, सामान्य वर्ग का एक भी छात्र आईएएस, आईपीएस और आईआरएस नहीं बन सका। 2017 की परीक्षा में हिन्दी माध्यम से सबसे अच्छी रैंक 337 थी और जबसिविल सेवा 2020 के परिणाम घोषित हुए तब पता चला कि 761 चयनित छात्रों में से मुश्किल से 8-10 छात्र ही हिन्दी माध्यम के थे।
इन परिणामों के लिए छात्रों को जिम्मेदार ठहराना सबसे आसान है लेकिन सोचने वाली बात यह है कि कैसे और क्यों एक संवैधानिक संस्था मनमाने बदलाव करती रही और जनता द्वारा चुनी गई सरकारें उसे बस देखती रहीं।लाखों छात्रों के सपनों को सरकार की भाषा नीति निगल गई लेकिन किसी ने छात्रों का साथ नहीं दिया। यहाँ तक कि न्यायपालिका ने भी कभी संवेदना से इस मुद्दे को नहीं देखा! प्रसिद्ध अमेरिकी दार्शनिक रॉल्फ वाल्डो इमर्सन का मानना था-
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शिक्षा का महत्व इस बात से है कि हम छात्रों का कितना सम्मान करते हैं।
रॉल्फ वाल्डो इमर्सन, अमेरिकी दार्शनिक
क्या सरकारें और न्यायपालिका निष्पक्षता को अपनी नीति बना सकेंगी ताकि छात्रों का ज्यादा से ज्यादा हित सुनिश्चित हो सके?
ICCRके अध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धेअन्य भाषाओं के साहित्य का ‘हिन्दी में अनुवाद’ को जरूरी मानते हैं जोकि गलत नहीं है लेकिन एक बार भी वह इस बात पर नज़र नहीं डालते कि भारत सरकार द्वारा पीआईबीके माध्यम से जारी विज्ञप्तियाँ, इंडिया ईयर बुक, बजट और आर्थिक सर्वेक्षण भी जब शुद्ध और समझने वाली हिन्दी में नहीं उपलब्ध हो पा रहा है तब साहित्यिक कृतियों का अनुवाद किस तरह होगा और उसका स्तर क्या होगा? इंडिया ईयर बुक और आर्थिक सर्वेक्षण तो काफी भारी और लंबे दस्तावेज हैं; जब सिविल सेवा की परीक्षा में आए हुए प्रश्नों का सही अनुवाद हिन्दी में नहीं हो पा रहा है तो अनुवाद के विचार और हिन्दी के संरक्षण के विचार को त्याग देने में ही भलाई है।
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विश्व हिन्दी सम्मेलनों के माध्यम से करोड़ों रुपये बर्बाद करने से कोई फायदा नहीं जब आप अपने ही देश में अपनी ही भाषा को देश के सर्वोच्च पदों तक पहुँचने के लायक नहीं समझते।
बीबीसी को दिए गए एक साक्षात्कार में सिविल सेवा में चयनित दीपक डांगी ने कहा कि "एक या दो साल पहले सिविल डिसओबिडिएंस मूवमेंट का अनुवाद असहयोग आंदोलन किया गया था। इंप्लीकेशन का अनुवाद उलझन, लैंड रिफ़ॉर्म का अनुवाद आर्थिक सुधार किया गया था। दिक्कत यह है कि निर्देश में लिखा होता है कि किसी ग़लती की सूरत में अंग्रेज़ी टेक्स्ट ही मान्य होगा। लेकिन एक संवैधानिक संस्था (यूपीएससी) ऐसा कहकर अपनी ज़िम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकती।"
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के अध्यक्ष का मानना है कि “भाषाएं संस्कृति की वाहक होती हैं। भाषा भी एक जीवित जीव है और हर भाषा विकसित होती रहती है।” यह माना जा सकता है कि भाषाएं संस्कृति की वाहक हो सकती हैं लेकिन उनका अस्तित्व और विकास मानव जीवन में कालानुरूप उपादेयता पर निर्भर करता है। भाषाएं और बोलियाँ दो कारणों से खत्म हो जाती हैं पहला, यदि उन भाषाओं का उपयोग जीवन-यापन को बाधित करने लगे, दूसरा, यदि सरकारें, बदलते तकनीकी और सामाजिक बदलाव के साथ भाषा संबंधी नीतियाँ बनाने में असफल रहें। हिन्दी के साथ दूसरा कारण प्रबल है क्योंकि 53 करोड़ लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा जीवन यापन में बाधा नहीं है लेकिन सोची समझी सरकारी अकर्मण्यता इस भाषा को कुछ खास ‘कोटरों’ तक सीमित करना चाह रही है।
विनय सहस्रबुद्धेने ‘नई शिक्षा नीति’ का हवाला देते हुए सुधार की आशा व्यक्त की है। उन्होंने मेडिकल और इंजीनियरिंग संस्थानों में शुरू की गई हिन्दी माध्यम की पुस्तकों का हवाला दिया है। मुझे ऐसा लगता है कि विनय जी या तो काफी दिनों से पुस्तकों से दूर हैं या फिर सरकार की तारीफ के लिए अपनी प्रतिबद्धता से मजबूर हैं।
उन्हे विचार करना चाहिए कि मेडिकल की ऐसी हिन्दी पुस्तकें कौन छात्र पढ़ेगा? वह छात्र जो हिन्दी माध्यम से मेडिकल और 12thकी परीक्षा पास करके आया है। एनसीईआरटी की 11th और 12th की पुस्तकों के दुर्लभ और मशीनी हिन्दी अनुवाद पढ़कर कोई भी नीट की परीक्षा शायद ही पास कर सके। ऐसे में किन विद्यार्थियों के लिए मेडिकल की हिन्दी की किताबें बनाई गई हैं? इस नीति की पोलतो तब खुलेगी जब सरकार उन आंकड़ों को सार्वजनिक करेगी कि कितने छात्रों ने हिन्दी माध्यम से एमबीबीएस की परीक्षा लिखी है! तब तक के लिए मैं इसे तार्किक रूप से खोखली नीति मानती हूँ। शिक्षा नीति का यह हिस्सा ‘लोकलुभावनवाद’ की बीमारी से ग्रसित है।
कुछ लोग मुझसे सवाल करते हैं कि जब भी भाषाई डिस्क्रिमिनेशन की बात आती है तो आप यूपीएससी का मुद्दा उठा देती हैं, इसे इतना जरूरी मुद्दा क्यों समझती हैं? यह इसलिए, जिससे यह पड़ताल अपने गंतव्य तक पहुँच सके कि हमारे समय के भारत में वह कौन सा समूह है जो पिछली सरकार में भी था और वर्तमान सरकार में भी है जो यह नहीं चाहता कि हिन्दी भाषी, उच्च पदों पर आसीन रह सकें? कौन है जो भाषाई अपार्थाइड को सरकारी स्तर तक लेकर जा चुका है, कौन है जिसने इसे लोकतंत्र की विराट इमारत के पीछे छिपाने की कोशिश की है ताकि अन्य ज़रूरी मुद्दों के पीछे यह भाषाई अपार्थाइड को आसानी से लोकतंत्र का अभिन्न हिस्सा बनाया जा सके।
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भाषा को लेकर अन्य कई उदाहरण हो सकते हैं लेकिन यूपीएससी का मुद्दा कोई बड़ी साज़िश हो सकती है या फिर अब तक की सबसे बड़ी नीतिगत नाकामी जिसने 50 करोड़से अधिक लोगों की अनदेखी करने का दुस्साहस किया है।
जिस तरह 7 नवंबर, 1980 को प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने यूपीएससी को संबोधित करते हुए कहा था "…विश्वसनीयता और निष्पक्षता लोक सेवा आयोग से अपेक्षित गुण हैं... जहां तक यूपीएससी का संबंध है ...न्यायपूर्ण व्यवहार आपका पहला उद्देश्य है।” यदि ऐसे ही वर्तमान प्रधानमंत्री यूपीएससी को छात्रों के हित में संबोधित करते हुए कुछ कह सकें तो शायद हिन्दी के गौरव और विकास को बल मिल सकेगा अन्यथा हिन्दी भाषण की भाषा बन रही है, हिन्दी बोलने और जानने वाले भाषणों के श्रोता ही बनकर रह जाएंगे वह कभी भी देश के सर्वोच्च संस्थानों और पदों को सुशोभित नहीं कर पाएंगे। भारत के स्टील फ्रेम में हिन्दी के एक-दो टुकड़े हमेशा इसलिए रखे जाते रहेंगे ताकि लोग यह जान सकें कि संस्कृत की तरह हिन्दी भी कोई भाषा हुआ करती थी।
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हिन्दी को बचाने के लिए ‘सम्मेलन’ और ‘दिवस’ की नहीं उसके साथ निष्पक्ष व्यवहार की जरूरत है, हिन्दी और हिन्दी भाषी अपना स्थान खुद खोज और बना लेंगे।
यूपीएससी और सरकार द्वारा लाए गए सिविल सेवा के सुधारों ने अंग्रेजी आभिजात्यवाद को बढ़ावा दिया है। इससे बचने की चेतावनी देते हुए पूर्व प्रधानमंत्री स्व. श्रीमती इंदिरा गाँधी ने कहा था कि “अंग्रेजी अभिजात्यवाद ने हमारी शिक्षा प्रणाली को हमारे ग्रामीण और क्षेत्रीय संसाधनों का दोहन करने से रोका है।” यही सच साबित होता दिख रहा है। स्टील फ्रेम से ग्रामीण भारत या तो विलुप्त हो रहा है या फिर टोकन के रूप में यहाँ वहाँ एक-दो की संख्या में बिखरा हुआ पड़ा है। सरकारी नीतियाँ ‘पृष्ठभूमि’ के आधार पर पदों के चयन को सुनिश्चित करना चाह रही हैं जबकि भारतीय लोकतंत्र इससे बिल्कुल उलट सिद्धांतों पर खड़ा किया गया था।
रवींद्र नाथ टैगोर ने हिन्दी भाषा की ‘गहराई’ को नापते हुए कहा था कि “भारतीय भाषाएँ नदियां हैं और हिंदी महानदी”।
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एक सरकार जो छात्रों का दर्द समझने में विफल रहती है या उसे जानबूझकर नकार देती है वह देश के भविष्य के साथ ‘समावेशी विश्वासघात’ कर रही होती है।
उच्च पदों के लिए आयोजित की जाने वाली परीक्षाओं में ‘भाषाई-सेन्ट्रीफ्यूज’ का इस्तेमाल छात्रों के साथ, देश की भाषाई विरासत के साथ और करोड़ों सपनों के साथ विश्वासघात है। यह विश्वासघात न किसी सम्मेलन की आड़ में छिपाया जा सकता है, न ही किसी रंग-बिरंगे समारोह की चमक में दबाया जा सकता है।