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हिमाचल: बीजेपी के बाग़ियों ने बिगाड़ा खेल, परंपरा तोड़ने में फेल!

हिमाचल: बीजेपी के बाग़ियों ने बिगाड़ा खेल, परंपरा तोड़ने में फेल!

चुनावी रणनीति बनाने में माहिर चुनाव जीतने के लिए जाने जानी वाली बीजेपी आख़िर हिमाचल में कांग्रेस के सामने टिक क्यों नहीं पाई? क्या उसकी रणनीति ख़राब थी या फिर कुछ और चूक हुई?

कांग्रेस मुक्त भारत का सपना साकार करने में जुटी बीजेपी हिमाचल प्रदेश में मात खा गई। कांग्रेस के हाथ ने न सिर्फ़ बीजेपी का विजय रथ रोका है बल्कि पार्टी के दिग्गजों के प्रभाव क्षेत्र पर अपना परचम लहरा कर उनका गरूर भी तोड़ा है। बीजेपी लगातार दावा कर रही थी कि दो दलों को बारी-बारी से सत्ता सौंपने की परंपरा इस बार जनता तोड़ देगी और बीजेपी फिर प्रदेश की बागडोर संभालेगी।

बीजेपी ने परंपरा तोड़ने की दिशा में सबसे पहले एंटी इनकंबेंसी का असर ख़त्म करने की कवायद की। इस प्रक्रिया में सारे विधायकों के कामकाज का आकलन किया गया। पार्टी नेतृत्व ने उन विधायकों को टिकट देने से परहेज किया जिन्होंने पाँच साल अपने क्षेत्र में संतोषजनक काम नहीं किया और उनके निकम्मे रवैये से पार्टी को शिकस्त मिलने की आशंका थी। ऐसे 25 विधायक नज़र आए। उनमें से 21 विधायकों के  टिकट काट दिए और चार के चुनाव क्षेत्र बदल दिए गए। उन चार विधायकों को ऐसे क्षेत्रों से चुनाव लड़वाया जहाँ वो कभी गए ही नहीं थे। वहाँ के मतदाता उन्हें क्यों स्वीकार करें, इस पर पार्टी ने शायद विचार ही नहीं किया। यह एंटी इनकंबेंसी से बचने का एक तरीका तो हो सकता है, कारगर नहीं हो सकता। वही हुआ, चारों उम्मीदवार चारों खाने चित्त हो गए।

पार्टी की परीक्षा में फेल 25 में से 21 विधायकों के टिकट कट गए। वे इस फ़ैसले से तिलमिलाए और बाग़ी बन कर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर पर्चे भर आए। इन्हीं 21 बाग़ियों ने बीजेपी का सारा खेल बिगाड़ा है। इन्हें खुद की जीत की उम्मीद भले ही नहीं थी, बीजेपी को हराने का विश्वास ज़रूर था और उनका विश्वास खरा साबित हुआ। हालाँकि इन 21 बागियों में से दो जीत भी गए। इन दो के जीतने का भी यही अर्थ है कि बीजेपी हार गई।

बीजेपी के रणनीतिकार यह भूल गए कि चुनाव क्षेत्र बदलने या टिकट काट देने से मतदाताओं की पाँच साल की नाराजगी ख़त्म नहीं होती है। 

मतदाताओं को कैसे यक़ीन दिलाएंगे कि नए चेहरे आपके काम आएँगे और आपकी उम्मीदों पर खरे उतरेंगे। दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है। सहमे और सतर्क मतदाताओं ने 25 में से 19 सीटों पर खराब कारकर्दगी वाली बीजेपी को धूल चटा दी।

राजनीतिक विश्लेषक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर के आपसी टकराव को पार्टी की हार का कारण मानते हैं।

मान लो, उनके आपसी सम्बंध मधुर भी होते तो उन मतदाताओं की नाराज़गी कैसे दूर होती जहाँ काम ही नहीं हुआ। पार्टी ने खुद ही परोक्ष संदेश दिया है कि 25 विधायकों का काम संतोषजनक नहीं रहा वरना उनका टिकट क्यों कटता या क्षेत्र क्यों बदला जाता।

चुनावी विश्लेषण के दौरान एक विरोधाभास पर भी ग़ौर करना ज़रूरी है। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर नाराज़ कार्यकर्ताओं, मतदाताओं और बागियों को मनाने के लिए तो गए लेकिन टिकट कटने से नाराज़ अपने पिता प्रेम कुमार धूमल को नहीं मना पाए या कोशिश ही नहीं की।

धूमल जी को अपने गृह जिले में प्रचार के लिए तो निकलना ही चाहिए था, कम से कम अपने सुजानपुर क्षेत्र में ही चले जाते, जहाँ उन्होंने अपने क़रीबी और रिटायर्ड फौजी को टिकट दिलवाया था। वहाँ लगभग 10 हजार वोट फौजियों के होने के बावजूद रिटायर्ड ऑनरेरी कैप्टन रणजीत सिंह राणा कांग्रेस के राजेंद्र सिंह से चुनाव हार गए। 2017 में इसी सीट से प्रेम कुमार धूमल चुनाव हारे थे। इस सीट पर कभी बीजेपी का वर्चस्व होता था लेकिन चुनावों में बीजेपी लगातार हारी है। अनुराग ठाकुर के लोकसभा क्षेत्र हमीरपुर में 17 विधानसभा सीटें हैं। इनमें 12 सीटों पर बीजेपी को करारी शिकस्त मिली है। इससे साबित हो गया है कि मंत्री जी से जनता नाराज है और बीजेपी का क़िला ध्वस्त हो रहा है।

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