घृणा को पहचानना और उसे नाम देना इतना कठिन नहीं जितना वह पिछले 10 साल में भारत की पुलिस, चुनाव आयोग और अदालतों के लिए दिखलाई पड़ता रहा है। दिल्ली की राउज़ एवेन्यू अदालत के विशेष न्यायाधीश जितेंद्र सिंह ने यह बतलाया जब उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के नेता और अब दिल्ली के क़ानून मंत्री कपिल मिश्रा को उनके नफ़रत भरे बयान के अपराध के आरोप से मुक्त करने से इनकार किया।
मिश्रा ने अदालत में अर्जी लगाई थी कि 2020 में दिल्ली विधान सभा चुनाव के प्रचार के दौरान उनके द्वारा दिए गए भाषणों के कारण उन पर एक धार्मिक समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत और समुदायों के बीच विद्वेष फैलाने का जो आरोप लगाया गया है, उसे रद्द कर दिया जाए और उन पर कोई मुक़दमा न चलाया जाए।
न्यायाधीश सिंह ने कहा कि मिश्रा इस आरोप से बच नहीं सकते क्योंकि उन्होंने बहुत चतुराई से अपने भाषणों में ‘पाकिस्तान’ शब्द का इस्तेमाल किया था। यह समझना मुश्किल नहीं कि पाकिस्तान और पाकिस्तानी का इस्तेमाल किसके खिलाफ किया जा रहा है या दूसरे शब्दों में किसे पाकिस्तानी कहा जा रहा है और किनके मोहल्लों को पाकिस्तान कहा जा रहा है।
भारत में, ख़ासकर हिंदी इलाक़ों में ख़ासकर यह बात तो ककहरा सीखने के पहले एक हिंदू बच्चा जान जाता है और एक मुसलमान बच्चा भी इसे पहचान लेता है कि पाकिस्तान भारत में कहाँ है और कौन पाकिस्तानी है।
मिश्रा ने अपने भाषणों और वक्तव्यों में कहा था कि शाहीन बाग में "मिनी पाकिस्तान" बनाया था और विधानसभा चुनाव में "भारत और पाकिस्तान" के बीच मुकाबला होगा।
अदालत ने कहा , "कथित बयान में विशेष 'देश' के अंतर्निहित संदर्भ में एक विशेष 'धार्मिक समुदाय' के लोगों के लिए एक स्पष्ट संकेत है, जो धार्मिक समुदायों के बीच दुश्मनी पैदा करने के लिए स्पष्ट है। इसे एक आम आदमी भी आसानी से समझ सकता है, एक समझदार व्यक्ति की तो बात ही छोड़िए।"
लेकिन भारत के समझदार लोग इसे समझने से बार बार इनकार कर रहे हैं कि भाजपा के नेता, चाहे नरेंद्र मोदी हो या आदित्यनाथ या कपिल मिश्रा के भाषणों में मुसलमानों के लिए घृणा प्रकट है। वह कभी साफ़ ज़ाहिर की जाती है कभी व्यंजना के सहारे। लेकिन जिसे घृणा के लिए उकसाया जा रहा है और जिस पर हमला किया जाता है, दोनों को यह तुरंत मालूम हो जाता है। प्रायः भारत की पुलिस और अदालतें लेकिन शब्दों को मात्र शब्द मानकर उनका अभिधार्थ लेना ही पर्याप्त मान लेती हैं।
हाल में कर्नाटक के दक्षिण कन्नड़ा ज़िले में एक मस्जिद में घुसकर दो लोगों ने ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाए। पुलिस ने उन पर समुदायों के बीच घृणा फैलाने के आरोप में मुक़दमा किया। लेकिन उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए मुक़दमा ख़ारिज कर दिया कि ‘जय श्रीराम’ से क्यों कर किसी की भावना को चोट पहुँचनी चाहिए। अदालत ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि ये दो लोग मस्जिद में क्यों घुसे और वहाँ जाकर यह नारा क्यों लगाया। क्या वे मुसलमानों को रामनाम की महिमा का पुण्य लाभ देना चाहते थे?
हम अगर इस बहस में न भी पड़ें कि ‘जय श्रीराम’ धार्मिक नारा है या नहीं तो भी यह सवाल तो रहता ही है कि अपने धार्मिक नारे का उद्घोष मस्जिद में जाकर रामभक्त क्यों कर रहे थे। मक़सद हर किसी के सामने साफ़ था लेकिन अदालत इस असुविधाजनक तथ्य को देखना नहीं चाहती।
दिल्ली पुलिस पिछले 5 साल से कपिल मिश्रा पर एफ़आईआर करने से इनकार कर रही है जिसका आदेश उसे 2020 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिया था।दिल्ली में हिंसा के पहले मिश्रा के धमकी भरे बयानों के बारे में उन पर कार्रवाई की माँग करते हुए एक याचिका को सुनते हुए न्यायाधीश मुरलीधर ने पुलिस को निर्देश दिया था कि उन पर एफ़आईआर की जाए।अदालत ने पुलिस के उच्च अधिकारियों के सामने उस धमकी के वीडियो देखे।
एफ़ आईआर की बात तो दूर, न्यायाधीश का उसी रात दिल्ली से तबादला कर दिया गया। दिल्ली पुलिस उनकी तरफ़ से दलील दे रही है। ‘अगर 3 दिन में सी ए ए का विरोध करने वालों को सड़क से नहीं हटाया तो हम पुलिस की नहीं सुनेंगे।’ इसे पुलिस धमकी मानने से इनकार कर रही है और अब यह कह रही है कि मिश्रा को फँसाने की साज़िश की जा रही है।
‘देश के ग़द्दारों को, गोली मारो ‘ या ‘जे एन यू के ग़द्दारों को, एम एम यू के ग़द्दारों को, जामिया के ग़द्दारों को गोली मारो ‘ में किसी समुदाय के ख़िलाफ़ घृणा है या नहीं? दिल्ली पुलिस को ऐसा नहीं लगता। भाजपा को नहीं। नारे लगाने वाले संघीय सरकार और दिल्ली सरकार में मंत्री बनाए गए। पहले तो मिश्रा ने इनकार किया कि उन्होंने ये नारे लगाए हैं लेकिन जब ’वायर’ की टीम ने इसका वीडियो उन्हें दिखला दिया तो उन्होंने दलील दी कि यह महत्व देने लायक़ नहीं है, तुकबंदी है और अलग-अलग आंदोलनों में ऐसे नारे लगाए जाते रहे हैं।
दिल्ली पुलिस ने उन पर, अनुराग ठाकुर और परवेश वर्मा पर ऐसे नारों और बयानों के लिए कोई मुक़दमा दायर किया, कोई कार्रवाई की, हमें मालूम नहीं। मीडिया को भी ये इतने बुरे नहीं लगे कि इन पर संपादकीय लिखे जाएँ या इनकी भर्त्सना की जाए।
2024 के लो सभा चुनाव के लिए प्रचार के दौरान कपिल मिश्रा के नेता नरेंद्र मोदी ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ अलगाव और घृणा फैलाने वाले बयान लगातार दिए।लेकिन चुनाव आयोग को या पुलिस को बुरा नहीं लगा। मुसलमानों को ज़रूर बुरा लगा लेकिन उसकी परवाह कौन करता है?
मिश्रा ने यह कहकर बचने की कोशिश की है कि उनके बयान में किसी समुदाय का नाम नहीं था, एक देश का था।इससे किसी समुदाय को क्यों चोट पहुँचनी चाहिए? यह पढ़कर मुझे बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी,कल्याण सिंह आदि के ख़िलाफ़ चले मुकदमे की याद आ गई। उस अभियान के दौरान हर जगह ‘बाबर की औलादों को जूते मारो’ के नारे लगाए जाते थे। अदालत में तर्क दिया गया कि ये नारे तो उनके लिए थे जो ख़ुद को बाबर की औलाद मनाते हैं, मुसलमानों के लिए नहीं। अदालत ने इसे मान भी लिया। क्या हम भी मान गए?
अगर हम घृणा को घृणा मानने और उसे पहचानकर उसे रोकने का काम नहीं करेंगे तो उसका नतीजा क्या होगा? मुझे पुणे की एक सामाजिक कार्यकर्ता ने एक घटना के बारे में बतलाया। वे बच्चों के साथ काम करती हैं।एक शाम पिकनिक के बाद ऑटो रिक्शा में बच्चों के साथ लौट रही थीं।ऑटो एक मस्जिद के सामने से जैसे ही गुजरा, बच्चों ने ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाया। वे हतप्रभ रह गईं।
मध्य प्रदेश में काम करने वाली एक दूसरी सामाजिक कार्यकर्ता ने बतलाया कि वे और उनकी हिजाब पहनने वाली मित्र जब कार्यस्थल से लौट रही थीं, बच्चों ने मुसलमान मित्र को लक्ष्य कर ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाया। पटना के एक स्कूल की एक अध्यापिका ने बतलाया कि जब वे क्लास में आईं तो पहले से ब्लैक बोर्ड पर लिखा था: ‘मंदिर वहीं बनाएँगे।’
मुसलमानों के प्रति घृणा धीरे धीरे हिंदू बच्चों के स्वभाव का हिस्सा बनती जा रही है।यह कैसे हुआ? क्या इससे हमें चिंतित नहीं होना चाहिए? और क्या अपने बच्चों को इस घृणा से नहीं बचाना चाहिए? यह हो सकता है। लेकिन उसके लिए हमें न्यायाधीश जितेंद्र सिंह जितना ईमानदार होना होगा जो घृणा को घृणा कह सकते हैं।