झारखंड में एक मुसलिम नौजवान तबरेज़ अंसारी को कुछ गुंडों ने पेड़ से बाँधा, उसकी पिटाई की और उसकी जान ले ली। तबरेज़ पर उन लोगों ने चोरी का आरोप लगाया था। राजस्थान से ख़बर है कि गौपालक किसान पहलू ख़ान के ऊपर पुलिस ने जानवरों की रक्षा से सम्बंधित क़ानून का उल्लंघन करने का आरोप लगाकर मुक़दमा चलाने का फ़ैसला किया है। इसके अलावा भी देश में कई जगह मुसलमानों की लिंचिंग की ख़बरें आती ही रहती हैं। जहाँ हर मामूली घटना पर सत्ताधारी पार्टी के बड़े नेता, ट्वीट करते रहते हैं, मुसलमानों की हत्याओं के बारे में आम तौर पर उनकी चुप्पी देखी जाती है। अगर पूछा जाए तो टका-सा जवाब दे दिया जाता है कि क़ानून अपना काम कर रहा है।
भीड़ द्वारा हत्या का सिलसिला क़रीब पाँच साल पहले दिल्ली के पास दादरी के एक गाँव से शुरू हुआ था। अख़लाक़ को उसके घर में घुसकर मार दिया गया था। उस पर गोमांस रखने का आरोप था। अख़लाक़ की हत्या कोई छिटपुट हत्या नहीं थी। योजनाबद्ध तरीक़े से उसको निशाने पर लेकर मारा गया था। पुलिस ने कार्रवाई की, क़त्ल का मुक़दमा दर्ज़ किया। लेकिन सत्तापक्ष के नेताओं ने पुलिस की कार्रवाई का विरोध किया और कहा कि क़त्ल नहीं ग़ैर-इरादतन हत्या का मामला दर्ज़ किया जाना चाहिए। यह नफ़रत का लगातार बन रहे माहौल का नतीजा थी। अख़लाक़ की हत्या दुनिया भर में अख़बारी सुर्खियाँ बन गयीं लेकिन यह कोई अकेली घटना नहीं थी।
एक और बात देखी जा सकती है कि जब इस तरह की बातें अख़बारी सुर्ख़ियों से बाहर हो जाती हैं तो पुलिस वाले पीड़ित को ही मुलज़िम बनाकर मुक़दमा शुरू कर देते हैं। राजस्थान के पहलू ख़ान के मामले को इस तरह की मानसिकता का ताज़ा उदाहरण माना जा सकता है। मामला अख़बारों में छप गया तो सरकारी तौर पर सफ़ाई आ गयी कि पहलू ख़ान का ‘नाम’ चार्जशीट में नहीं है लेकिन सबको मालूम है कि जिस तरह से चार्जशीट बनाई गयी है उसके हिसाब से मुक़दमे के दौरान पहलू ख़ान का फँसना तय है।
पिछले क़रीब पन्द्रह वर्षों से समाज में एक अजीब ट्रेंड देखा जा रहा है।
जिस देश और समाज में पहले सेकुलर होना गर्व की बात मानी जाती थी और साम्प्रदायिक मानसिकता के लोग एलानिया कुछ भी नहीं बोलते थे, उसी समाज में मुसलमानों के ख़िलाफ़ बोलने वाले या उनको पाकिस्तान भेजने की धमकी देने वालों की संख्या बढ़ी है और वे अब समाज में गर्व से रहते हैं।
बड़े-बड़े अफ़सर भी निजी बातचीत में इसी तरह की बात करते पाए जाते हैं। अपनी बातचीत को सही साबित करने के लिए टेलीविज़न पर चल रही बहसों का हवाला देना भी आजकल फ़ैशन में है। कई बार इन बहसों में निहायत ही जाहिल क़िस्म के दाढ़ी टोपी वाले लोगों को बैठा लिया जाता है जो दीनी मामलों की कोई जानकारी नहीं रखते और बहस में मौजूद साम्प्रदायिक लोगों की बेबुनियाद बातों का जवाब देने की कोशिश में कोई न कोई ऐसी बात कह देते हैं जो बिलकुल ग़लत होती है, इसलाम की मान्यताओं के ख़िलाफ़ होती है लेकिन दंगा भड़काने का माद्दा रखती है।
मसजिद-रामजन्मभूमि विवाद से विमर्श बदला
एक बात और देखी गयी है। जहाँ भी इस तरह के विवाद की नौबत आ रही है उसमें शिक्षा का गिरता स्तर सबसे ज़्यादा ज़िम्मेवार है। 1980 के पहले के दशक में हिन्दू और मुसलमान अपने-अपने धर्म को राजनीतिक आचरण की बुनियाद मानने से परहेज करते थे। छिटपुट मामलों में चुनाव के समय इस तरह की चीज़ें देखी जाती थीं लेकिन यह समाज का स्थाई भाव नहीं था। लेकिन जबसे बाबरी मसजिद-रामजन्मभूमि विवाद राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आया है तब से कोई भी बातचीत शुरू कीजिए धार्मिक चर्चा ज़रूर शुरू हो जाती है। इस तरह की अहमकाना सोच के लिए हिन्दू और मुसलिम, दोनों समुदायों के नेता ज़िम्मेदार हैं। हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों को तो खैर सत्ता के बड़े पद दिए जा रहे हैं लेकिन मुसलमान कट्टरपंथी भी ख़ूब चल रहे हैं। दिल्ली का इंडिया इसलामिक कल्चरल सेंटर मुक़म्मल तौर पर एक सेकुलर इदारा है। वहाँ अगर कोई फिरकापरस्ती की बात करता है तो उसको वहाँ के ज़िम्मेदार लोग डाँट-डपट कर चुप करवा देते हैं। दो घटनाओं का ज़िक्र करके बात को स्पष्ट करने की कोशिश की जायेगी। इंडिया इसलामिक कल्चरल सेंटर में बड़ी संख्या में हिन्दू भी मेंबर हैं। पिछले साल सेंटर की सालाना बैठक में एक सदस्य ने कहा कि, ‘यह मुसलमानों का इदारा है और इसमें हिन्दुओं को मेंबर नहीं बनाया जाना चाहिए।’ वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाए थे कि कई लोगों ने उनको डाँटना शुरू कर दिया। इस घटना के कुछ महीने पहले इसलामिक सेंटर के एक सेमिनार में एक मौलाना साहब ने अपनी तक़रीर में कह दिया कि हमने इस देश में आठ सौ साल अपनी बाजुओं के ज़ोर पर राज किया है। उनका यह कहना था कि मंच पर ही मौजूद एक बड़े पत्रकार ने उनको डपट दिया और कहा कि इस तरह की बेवकूफ़ी की बात करना बिलकुल ग़लत है।
इसी तरह से अभी कुछ साल पहले तक जब हिन्दुओं की सभाओं में धार्मिक उन्माद फ़ैलाने की बात कोई भी करता था तो उसको चुप करा दिया जाता था लेकिन अब वह बात नहीं रही। अब लोग एलानिया सेकुलर सोच के नेताओं और बुद्धिजीवियों को गाली देने लगे हैं। सवाल उठता है कि इस तरह की सोच आ कहाँ से रही है। बड़े पदों पर बैठे अफ़सर, नेता, पुलिस वाले सब साम्प्रदायिक क्यों हो रहे हैं। मुझे लगता है कि इसके पीछे हमारी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का कुप्रबंधन है।
सम्मान की शिक्षा नहीं
शिक्षा के शुरुआती वर्षों से आज़ादी की लड़ाई की मूलभावना के प्रति सम्मान की शिक्षा नहीं दी जा रही है। आज़ादी की लड़ाई में पूरा देश शामिल था। हिन्दू महासभा, मुसलिम लीग और आरएसएस के अलावा बाक़ी सभी राजनीतिक जमातें शामिल हुई थीं। मुसलिम लीग के सिर पर देश के बँटवारे का गुनाह था, हिन्दू महासभा और आरएसएस के बड़े नेता महात्मा गाँधी की हत्या के मुक़दमे में अभियुक्त रह चुके थे। इसलिए वे सर झुका कर रहते थे। लेकिन अब महात्मा गाँधी के हत्यारे को महिमामंडित किया जाता है। बीजेपी की आतंकवाद की अभियुक्त एक नेता ने तो महात्मा गाँधी के हत्यारे को देशभक्त कह दिया था। अब धार्मिक उन्माद फ़ैलाने वाले समाज की मुख्यधारा में हैं। इसके लिए शिक्षा प्रणाली की कमी ज़िम्मेदार है। ज़रूरी यह है कि बुनियादी शिक्षा के गिर रहे स्तर को फ़ौरन दुरुस्त किया जाए वरना ग़लत शिक्षा समाज और देश की एकता के लिए बहुत नुक़सान का कारण बनेगी। ऐसा इसलिए ज़रूरी है कि नफ़रत फैलाने वाली जमातों ने प्राथमिक शिक्षा को ही गाँधी के आदर्शों से भटकाने में सफलता हासिल करके समाज में नफ़रत का माहौल पैदा किया है।