गुरुग्राम की पटौदी महापंचायत में मुसलिमों के ख़िलाफ़ कथित भड़काऊ भाषण देने के मामले में रामभक्त गोपाल की जमानत याचिका खारिज हो गई है। गुरुग्राम की अदालत ने कहा कि ऐसे लोग देश की धर्मनिरपेक्ष छवि और ताने बाने को नुक़सान पहुँचाते हैं। इसने कहा कि जो लोग आम लोगों के बीच वैमनस्य पैदा करने और नफरत फैलाने की कोशिश कर रहे हैं, वे वास्तव में इस देश को महामारी से ज़्यादा नुक़सान पहुँचा रहे हैं। यह रामभक्त गोपाल वही है जिसने पिछले साल जनवरी में जामिया मिल्लिया इसलामिया के पास सीएए के ख़िलाफ़ प्रदर्शनकारियों पर गोलियाँ चलाई थीं। तब वह आरोपी 17 वर्षीय किशोर था।
जामिया मिल्लिया इसलामिया के पास गोलियाँ चलाने के मामले में उसके नाबालिग होने की वजह से उसे बाल सुधार गृह भेजा गया था जहाँ वह कुछ महीने रहने के बाद बाहर आ गया था। और फिर वही पटौदी महापंचायत में कथित तौर पर भड़काऊ भाषण दे रहा था। इसी के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कराई गई थी कि उसके भाषण से दंगे भड़क सकते हैं और क़ानून-व्यवस्था ख़राब हो सकती है। 12 जुलाई को उसको गिरफ़्तार कर लिया गया था।
इसी मामले में ज़मानत के लिए उसने अदालत में याचिका लगाई थी। एफ़आईआर और उपलब्ध वीडियो रिकॉर्डिंग को देखते हुए अदालत ने कहा कि यह स्पष्ट है कि एक सभा हुई थी जहाँ आरोपी गोपाल शर्मा यानी रामभक्त गोपाल ने अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया और धर्म के नाम पर भड़काऊ भाषा का इस्तेमाल करके विशेष धर्म-समुदाय के लोगों को मारने के लिए नारे लगाए। 'लाइव लॉ' की रिपोर्ट के अनुसार मामले की सुनवाई करने वाले जज मुहम्मद सागीर ने कहा कि वीडियो रिकॉर्डिंग में उस समय हुई वास्तविक घटनाओं को देखकर न्यायालय की अंतरात्मा पूरी तरह से स्तब्ध थी।
'जामिया शूटर' का कथित भड़काऊ भाषण वाला वीडियो इस महीने के पहले हफ़्ते में ही सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था।
वीडियो में उसे यह कहते हुए भी सुना जा सकता है, 'पटौदी से केवल इतनी सी चेतवानी देना चाहता हूँ, उन जिहादियों को, आतंकवादी मनसिकता के लोगों को, जब सौ किलोमीटर दूर जामिया जा सकता हूँ सीएए के समर्थन में, तो पटौदी ज़्यादा दूर नहीं है।' उसने जय श्री राम के नारे के साथ अपना भाषण समाप्त किया था।
वीडियो में आरोपी मुसलिमों पर हमले और मुसलिम महिलाओं के अपहरण का भड़काऊ भाषण दे रहा था। उस वीडियो में उसको यह कहते हुए सुना जा सकता है कि जब मुसलिमों पर हमले किए जाएँगे तो वे 'राम राम' चिलाएँगे।
इन भड़काऊ भाषणों का ही ज़िक्र करते हुए अदालत ने कहा, 'आरोपी का कार्य यानी नफ़रत की भाषा जैसे, एक विशेष धार्मिक समुदाय के व्यक्तियों की हत्या और लड़कियों के अपहरण को उकसाना अपने आप में हिंसा का एक रूप है और ऐसे लोग और उनके भड़काऊ भाषण एक सच्ची लोकतांत्रिक भावना के विकास में बाधा हैं।'
अदालत ने कहा कि धर्म या जाति के आधार पर शांतिपूर्ण समाज को बांटने वाले जघन्य अपराध के बावजूद उन्हें जमानत देना विभाजनकारी ताक़तों को ग़लत संदेश देगा।
कोर्ट ने कहा, 'हमारा संविधान भारत के ग़ैर-नागरिकों को भी सुरक्षा प्रदान करता है, तो यह राज्य और न्यायपालिका का कर्तव्य है कि यह सुनिश्चित करे कि किसी भी धर्म या विश्वास या जाति के भारतीय नागरिक असुरक्षित महसूस न करें और ऐसी नफ़रत फैलाने वाले बिना कोई डर के स्वतंत्र रूप से नहीं चल सकें।'
इसने यह भी गौर किया कि धार्मिक सहिष्णुता समय की ज़रूरत है न कि असहिष्णुता। न्यायालय ने कहा कि समाज के भीतर व्यक्ति को साथ आना आवश्यक है, खासकर जब विभिन्न संस्कृतियों और विभिन्न धार्मिक विश्वास वाले लोग एक समुदाय या राष्ट्र में रहते हैं।
कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि इस तरह के लोग जो आम लोगों के बीच वैमनस्य पैदा करने और नफरत फैलाने की कोशिश कर रहे हैं, वे वास्तव में इस देश को महामारी से ज़्यादा नुक़सान पहुँचा रहे हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि महामारी धर्म या जाति को देखे बिना केवल लापरवाही पर किसी भी व्यक्ति की जान ले लेती है लेकिन अगर इस तरह के नफ़रत भरे भाषणों के बाद कोई सांप्रदायिक हिंसा होती है तो बहुत से निर्दोष लोगों की जान केवल धर्म के आधार पर और ऐसे निर्दोष लोगों की ओर से बिना किसी लापरवाही के चली जाएगी।