महत्वपूर्ण विधान सभाओं की कौन कहे, हैदराबाद समेत कई नगर निगमों का चुनाव, त्रिपुरा जैसे छोटे राज्य का चुनाव और एक एक उपचुनाव को महाभारत बनाकर लड़ने वाली नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी बहुप्रतीक्षित जम्मू और कश्मीर विधानसभा चुनाव और दिल्ली से लगे हरियाणा विधानसभा का चुनाव क्यों इस तरह ‘बेमन’ से लड़ रही है, यह गंभीर राजनैतिक चर्चा का विषय होना चाहिए। ऐसा सिर्फ़ दो राज्यों के चलते या एक जगह भाजपा को अपनी सरकार के लिए जनादेश लेने का प्रयास करने भर के लिए ही नहीं है।
जम्मू-कश्मीर का चुनाव देश, दुनिया, हमारी दीर्घकालिक राजनीति और संघ-भाजपा के अब तक चली कश्मीर नीति की परीक्षा के हिसाब से काफी महत्व का है। इस पर दुनिया की नज़र टिकी हुई है क्योंकि धारा 370 की समाप्ति के बाद यह पहला चुनाव है। लोकसभा चुनाव ने भी लोगों का मन बताने का काम किया लेकिन उसमें हुए उत्साहजनक मतदान ने कई चीजों को छुपा लिया। अच्छा मतदान निश्चित रूप से जम्मू-कश्मीर की ही नहीं, किसी भी इलाक़े की राजनैतिक समस्याओं को निपटाने का सबसे मज़बूत आधार देता है, लेकिन दस साल बाद हो रहे विधानसभा चुनाव स्वशासन के बारे में लोगों की राय लेकर आएंगे। और इतना बड़ा कदम उठाने वाली मोदी सरकार लोगों की नज़र में पास हुई या फेल, यह संदेश भी आएगा।
मोदी और शाह की भाजपा ने लोकसभा चुनाव को भी इस इलाक़े में जिस तरह लड़ा था वह कोई बहुत उत्साह नहीं जगाता था। जमू-कश्मीर से ही निकालकर अलग केंद्रशासित प्रदेश बने लद्दाख में भी भाजपा का प्रदर्शन चिंताजनक था। लेकिन घाटी में चुनाव लड़ने के नाम पर तो भाजपा के हाथ-पाँव सुन्न पड़ने लगे थे। उसने लोकसभा चुनाव में ही सहयोगी क्षेत्रीय दल और मज़बूत निर्दलीय तलाशने शुरू कर दिए थे। इस बीच कांग्रेस से गुलाम नबी आज़ाद जैसे दिग्गज को तोड़ना, उनकी नई पार्टी बनवाना, जम्मू और कश्मीर इलाक़े में विधानसभा सीटों के पुनर्गठन का काम पूरा कराना, बनगूजरों समेत नए समूहों को आरक्षण देना, सेना के बल पर शांति बनाए रखना और कथित विकास योजनाओं पर गंभीरता से काम करना (हालांकि भाजपा ने धारा 370 हटाते समय जिस निवेश की बाढ़ और घाटी को स्वर्ग बनाने की बात कही थी, वह कहीं नहीं दिखी) जैसी तैयारियां भी चलती रहीं। लेकिन जैसे ही चुनाव घोषित हुए जम्मू और कश्मीर में भाजपा की कमजोरियां छुप न पाईं। अब चार सौ पार के शोर और फिर भाजपा की सीटों में भारी कमी आने जैसे हंगामों ने जम्मू और कश्मीर में उसके प्रदर्शन की बाहर ज़्यादा चर्चा नहीं होने दी लेकिन भाजपा के लोगों को अपनी जमीन का एहसास हो गया था।
पर एक एक सीट और एक एक उम्मीदवार के लिए जान लगाने वाले अमित शाह और मोदी की टोली जिस तरह से इस बार का विधानसभा चुनाव लड़ रही है वह काफी लोगों को हैरान करता है। एक तो जम्मू-कश्मीर के साथ हरियाणा का चुनाव भर कराया गया जबकि पिछली बार महाराष्ट्र आर हरियाणा के चुनाव साथ हुए थे।
महाराष्ट्र में लोकसभा का खराब प्रदर्शन और सत्ताधारी गठबंधन की कमजोरियां ही चुनाव को आगे करने का कारण होंगी। पर वहां भी चुनाव ज्यादा दिन टाले नहीं जा सकते। और अगर जम्मू-कश्मीर में, खासकर घाटी के इलाके में भाजपा खुद को कमजोर पा रही है तो वह अकेली नहीं है।
इस इलाके से उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती भी चुनाव हार गई थीं लेकिन वे दोनों और उनकी पार्टियां ताल ठोंक रही हैं। बूढ़े फारूख अब्दुल्ला भी खुद को जवान कह रहे हैं लेकिन मैदान छोड़ती सिर्फ भाजपा नज़र आती है। उसे तो अपना इंचार्ज चुनने और टिकट बांटने में (जम्मू क्षेत्र में भी) भारी संकट उठाना पड़ा। शुरू से उसके लोग (और मीडिया में उनका समर्थक हिस्सा) क्षेत्रीय दलों और निर्दलीयों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा करने लगे थे जो असल में हार कबूल करने की ध्वनि ही देता है।
हरियाणा में पार्टी सत्ता में है और नायब सैनी सरकार ने कई वोट बटोरू नई योजनाएं शुरू की हैं। भाजपा के लोग विनेश फोगाट प्रकरण पर भी खुसर-फुसर अभियान चलाते रहे और गैर-जाट जातियों के ध्रुवीकरण की राजनीति भी चलाते रहे हैं। पर लगता नहीं कि किसानों, पहलवानों और अग्निवीर योजना वाले सवालों की नाराजगी कम हुई है। उल्टा यह हुआ है कि लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस में उत्साह और ऊर्जा बढ़ती गई है और उसकी अंदरूनी फूट कम होती गई है। कुमारी शैलजा और रणदीप सुरजेवाला को विधानसभा चुनाव लड़ने की इजाजत न देना पार्टी का अपने आप में और भूपिंदर हुडा में भरोसा दिखाता है।
काफी समय बाद हरियाणा में सीधी लड़ाई की स्थिति दिख रही है और इसमें भाजपा की उत्साहहीन फौज तिबारा मैदान जीतेगी, इसमें बहुत लोगों को शक है। और ऐसा शक तब और गहरा जाता है जब मोदी जी चुनाव से विमुख दिखते हैं और अमित शाह प्रकट ढंग से कुछ करते नहीं लगते। वे चिराग और केसी त्यागी जैसे सहयोगी दलों के नेताओं को लगाम लगाने की कोशिश में सफल असफल होते नज़र आते हैं। कहने को मोदी जी का चेहरा है लेकिन वह दिखता नहीं है- वे अभी भी देश से ज़्यादा विदेश में नज़र आ रहे हैं। शायद उनकी अंतरराष्ट्रीय छवि से पार्टी को ज़्यादा लाभ दिखता हो।
इस तरह की सोच या रणनीतिक बदलाव में हर्ज नहीं है। लेकिन जिस तरह से पार्टी के प्रभारियों/उप-प्रभारियों और राम माधव की तरह आख़िरी वक़्त में ले गए संघ के पदाधिकारियों की भूमिका दिखती है उसमें भाजपा के अंदर ही नहीं, संघ और बीजेपी में भी समन्वय का अभाव दिखता है। पर सबसे ज़्यादा अभाव जीवंतता, उत्साह और लोग तथा संसाधनों के मोर्चे पर अचानक दिख रही उदासीनता से पार्टी के चुनावी अभियान को लेकर शक होता है। बल्कि इधर सबसे ज्यादा सक्रियता तो दो-दो केन्द्रीय प्रभारियों की मौजूदगी के बावजूद झारखंड में असम के मुख्यमंत्री हिमंता विश्व सरमा दिखा रहे हैं। और राजनैतिक पंडित मानते हैं कि जिन दो राज्यों में अभी चुनाव हो रहे हैं या जिन दो में अगले कुछ समय में चुनाव होंगे उनमें सबसे ज्यादा संभावना झारखंड में ही है।
अगर दिल्ली के चुनाव भी जोड़े जाएं तो यहां भी भाजपाई खेमे की ऊर्जाहीनता और नेतृत्व की उदासीनता दिखती है। पर झारखंड की दिक्कत यह है कि जब तक भाजपा चंपाई सोरेन, मधू कोड़ा जैसों को साथ लेकर आदिवासी मतों (जो लोक सभा चुनाव में उससे दूर हो गए थे) को अपनी तरफ़ लाने की कोशिश कर रही है तब तक वह ओबीसी वोट समूह कांग्रेस की तरफ़ मुड़ता दिखता है जिसने झारखंड में बीजेपी को लोकसभा चुनाव में बढ़त दी थी (हालांकि पार्टी तब भी 2019 के स्तर से पीछे रह गई थी)। झारखंड में आदिवासियों के ग़ुस्से के साथ ही राहुल गांधी और कांग्रेस के प्रति आकर्षण भी दिख रहा है। ये सारे संकेत भाजपा के लिए अच्छे नहीं हैं।