निजी क्षेत्र में आरक्षण- बीजेपी की विभाजनकारी राजनीति!
हरियाणा सरकार ने निजी क्षेत्र की नौकरियों में स्थानीय आबादी के लिए 75% जगहें आरक्षित करने का निर्णय लिया है। यह उन कामों के लिए है जिनमें तनख़्वाह 50,000 रुपए तक है। यह निर्णय संविधान विरुद्ध तो है ही, राजनीतिक और सामाजिक रूप से यह कड़वाहट और उत्तेजना पैदा करने वाला है। हरियाणा सरकार का कहना है कि राज्य में बेरोज़गारी को देखते हुए यह फ़ैसला लेना ज़रूरी था। साथ ही यह तर्क भी दिया जा रहा है कि इस स्तर के काम के लिए बाहर से काम करने के लिए आने वालों को हतोत्साहित करने के लिए यह किया गया है। इससे स्थानीय संसाधनों पर दबाव भी कम होगा। झुग्गी झोपड़ी से भी बचा जा सकेगा। यानी उन लोगों से राज्य को बचाया जा सकेगा जो उसे गंदा करते हैं।
यह प्रस्ताव भारतीय जनता पार्टी की विभाजनकारी राजनीति का एक और उदाहरण है। स्थानीय और बाहरी को हर स्तर पर लगातार परिभाषित करते रहना इस राजनीति के लिए ज़रूरी है। जो दल निजी क्षेत्र में जाति आधारित आरक्षण का हामी नहीं रहा है, वह क्योंकर इस आधार पर हरियाणा में यह आरक्षण करना चाहता है? उस हरियाणा में जहाँ बड़ी-बड़ी कंपनियों ने बाहर से आकर निवेश किया है? हरियाणा को क्या बाहरी पूँजी तो चाहिए लेकिन काम करनेवाले बाहरी लोगों से उसे परहेज़ है?
संविधान भारत में कहीं भी आने जाने, बसने, काम करने का, कुछेक इलाक़ों को छोड़कर, सबको अधिकार है। अगर भारत एक राष्ट्र है तो मुझे उसकी सीमा में आवागमन और काम करने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए।
हाँ! कुछ आबादियाँ अधिक आरक्षित हैं, उन्हें सुरक्षा का भाव देने के लिए कुछ पाबंदियाँ हैं। लेकिन तमिलनाडु हो या बिहार या असम, मैं किसी भी इलाक़े को अपना घर बना सकूँ तभी तो भारतीय होने के अधिकार का अहसास मुझे होगा। हाँ, पहाड़ी इलाक़े हों या आदिवासी क्षेत्र, उनकी स्थिति कुछ अलग है जैसे जम्मू कश्मीर की। लेकिन यदि मुझे कहीं काम करने से इसलिए रोका जाए कि मैं वहाँ पैदा नहीं हुआ या 15 साल से लगातार वहाँ रह रहा हूँ या नहीं तो इसका मतलब यह है कि उस स्थान विशेष पर मेरा दावा कमतर है।
बाहरी लोगों को हमेशा ही काम हड़पनेवालों के रूप में चित्रित करके ‘स्थानीय’ आबादियों में घृणा और क्षोभ संगठित करके उसका राजनीतिक इस्तेमाल किया जा सकता है।
यह महाराष्ट्र में शिव सेना ने लंबे वक़्त तक किया है। लेकिन अगर यह केरल या बिहार या मध्य प्रदेश में भी होने लगे तो इसका अर्थ यह होगा कि वे सब सिर्फ़ नाममात्र के भारत के अंग होंगे।
इसके अलावा पूछा जा सकता है कि यह आरक्षण सिर्फ़ 50000 तक की तनख़्वाह वाले कामों तक ही क्यों! क्योंकि ऊपर की जगहों पर आपको स्थानीय लोग नहीं मिलेंगे? फिर यह अवसरवादी रवैया है या नहीं? हरियाणा हो या पंजाब या दिल्ली, उनकी अर्थव्यवस्था को ही नहीं उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक समृद्धि में भी ‘बाहरी’ लोगों का भी काफ़ी योगदान रहा है। उपनिवेशवाद से मुक्त होने के बाद भारत के 7 दशकों की यात्रा के बाद अब जब इलाक़ाई दीवारें खड़ी की जा रही हैं तो भारत का विचार दृढ़ हो रहा है या खंडित?
इसी निर्णय में कुछ कामों के लिए, 10%, उसी ज़िले से लोग लिए जा सकेंगे जहाँ वह कंपनी या उद्योग लगाया गया है। बाक़ी राज्य के दूसरे हिस्सों से लिए जा सकते हैं। यह भी कि अगर उपयुक्त लोग न मिलें तो बाहरी राज्यों से बहाली की जा सकती है।
भारत के लोग हर तरह की नौकरी के लिए अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप, हर जगह जाना चाहते हैं। लेकिन उनके अपने देश में देश के लोगों के सामने रुकावटें खड़ी की जा रही हैं। लेकिन यह निर्णय अभी क्यों लिया गया, यह समझना कठिन नहीं है। हरियाणा सरकार किसान आंदोलन के बढ़ते जाने के कारण संकट में है। उससे उबरने का एक यह रास्ता उसे दिखलाई दे रहा है।
इस प्रकार की घोषणा का मक़सद कुछ वक़्त तक जनता को भरमाना है। क्योंकि पूरी संभावना है कि अदालत इसे अमान्य कर देगी। लेकिन तब तक राजनीतिक उद्देश्य सध चुका होगा। वह है विभाजन के विचार को मज़बूत करना। एक जगह विभाजन का विचार स्वीकार करने पर वह हर जगह क़बूल हो जाता है। पिछले वर्ष कोरोना संक्रमण के दौरान राज्यों के बीच विभाजन, मेरी जनता, तुम्हारी जनता का विभाजन, अपनी सीमाओं पर पहरा बैठाना, हमने सब देखा। स्थानीय और अपने या भीतरी लोगों को स्कूल, कॉलेज आदि में भी आरक्षण देने का नारा बीच बीच में दूसरे दल भी देते रहे हैं। दिल्ली के कॉलेजों में स्थानीय आरक्षण की माँग आम आदमी पार्टी कर चुकी है।
लेकिन जब भी ऐसा किया जाता है, मानना चाहिए कि सरकार नौकरी के मौक़े पैदा करने या शिक्षा में नया निवेश करने में नाकामयाब रही है और पहले से मौजूद अवसरों में ही बंदर बाँट करना चाहती है।
हरियाणा सरकार के इस निर्णय का विरोध बाक़ी राजनीतिक दल काल्पनिक डर के मारे और नैतिक भीरुता के कारण नहीं कर पाएँगे। इसीलिए शेष लोगों को इसमें छिपे धोखे को उजागर करना होगा।