जब गुजरात हिंसा ही हिंसकों को पढ़ा गई प्यार का पाठ...
क्या नफ़रत करनेवाला प्यार करनेवाले में बदल सकता है क्या घृणा स्थायी भाव है घृणा के बारे में व्यक्तियों के सन्दर्भ में और समूहों के सन्दर्भ में अलग-अलग बात करने की ज़रूरत है क्या समूहगत घृणा का स्वरूप अलग होता है क्या घृणा अपने आप में हिंसा है, क्या वह हिंसा को अनिवार्यतः जन्म देती है क्या वह टाइम बम की तरह हम सबके भीतर है
इक्कसवीं सदी में ये प्रश्न सबसे अहम हो गए हैं। किसी एक देश या सभ्यता के लिए नहीं, यह एक सार्वभौम प्रश्न और चुनौती है कि घृणा और हिंसा को कैसे समझा जाए और कैसे उन पर काबू पाया जाए घृणा और हिंसा को पूरी तरह समाप्त करना खामख्याली ही, ऐसा कई लोग मानते हैं। इसके बावजूद दुनिया में ऐसे लोगों और समूहों की कमी नहीं जो इन दोनों के विकल्प की तलाश करते हैं।
हिंसा का विकल्प हो सकता है, इस पर विश्वास करने के पहले यह मानना ज़रूरी है कि कोई व्यक्ति स्थायी रूप से घृणा करनेवाला नहीं होता। रेवती लाल ऐसी ही एक जिद्दी इंसान हैं जो नफ़रत को स्थायी नहीं मानतीं, जो उसे अनेक निजी असुरक्षाओं और इरादों के जटिल सम्मिश्रण का परिणाम मानती हैं और इसलिए जो वैसे लोगों की खोज में रहीं जो हिंसा में किसी न किसी रूप में हिस्सा लेते हैं और उन्हें इस लायक मान सकीं कि उन्हें समझा जाए, उनके मन और दिमाग की अंधेरी गहराइयों में उतर कर उस घृणा को समझने की कोशिश की जाए जो हिंसा में बदल कर उन्हें अपराधी बना देती है।
पीड़ितों की नहीं, हिंसकों के बदलने की कहानी
'द एनाटॉमी ऑफ़ हेट' नामक किताब रेवती के इसी यक़ीन का नतीजा है। यह 2002 में गुजरात की मुसलमान विरोधी हिंसा और संहार पर आधारित है लेकिन उस पर लिखे गए अब तक के वृत्तांतों और व्याख्याओं से अलग। 2002 की हिंसा पर काफ़ी कुछ लिखा गया है और उस हिंसा के बाद की स्थिति पर भी। लेकिन वह सब कुछ हिंसा के शिकार लोगों के बारे में है। वह प्रायः तकलीफ़, धोखे और नाइंसाफी की कहानी है। वह हिंसा या घृणा की उस ताक़त के बारे में है जो सामाजिक रिश्तों को बदल देती है। इस तरह के लेखन में व्यथा होती है लेकिन यह देखा गया है कि शायद ही वह इस हिंसा के पक्षधर लोगों को पुनर्विचार करने को प्रेरित करे।
- दूसरी तरफ़ ऐसा लेखन हिंसा के शिकार लोगों में ख़ुद को निरंतर पीड़ित और दूसरों के (हिंसक पक्ष) मुकाबले कमज़ोर मानने की प्रवृत्ति को और दृढ कर सकता है। वह हिंसक पक्ष में यह भाव भर सकता है कि उसने दूसरे पक्ष को आखिरकार पराजित कर दिया है और अपने इलाक़े से खदेड़ दिया है। वह उनमें हिंसा के अन्याय या उसकी व्यर्थता को लेकर कोई विचार शुरू नहीं कर पाता।
यक़ीन पैदा करने की चुनौती
हिंसा की कहानी कैसे कही जाए कि हिंसक व्यक्ति के बदलने में यक़ीन पैदा हो सके रेवती ने गुजरात की हिंसा को पत्रकार की तरह रिकॉर्ड किया। लेकिन उस हिंसा के स्रोतों की तलाश में वह दस साल से भी ज़्यादा लगी रहीं। हिंसा के शिकारों से बात करने की जगह हिंसा में शामिल लोगों से बात करना अधिक मुश्किल है। वह भी इस तरह कि उनपर तुरंत फैसला न सुनाया जाए बल्कि उन्हें समझने लायक इंसान माना जाए।
रेवती ने तक़रीबन सौ ऐसे लोगों को खोज निकाला जो 2002 की हिंसा में या तो सक्रिय रूप से शामिल थे या उसके समर्थक-दर्शक थे। फिर उनमें से वे तीन की ज़िंदगियों का पीछा करती हैं।
हिंसा में शामिल होने वालों को बात करने के लिए तैयार करना और फिर उनकी कहानी सुनाने की इजाज़त लेना कठिन है। वह इसलिए कि हिंसा में शामिल होना क़ानून की नज़र में आपको अपराधी भी बना देता है।
वह तीन को राज़ी कर पाईं कि वे उनसे बात करें और इसकी अनुमति ली की उनकी कहानी सार्वजनिक की जा सके, यह बड़ी बात है। इसलिए कि हिंसा के मनोविज्ञान को समझने के लिए हमारे पास जो संसाधन मौजूद हैं, उनकी विरलता हिंसा के विकल्प खोजने की रास्ते में बाधक है।
रेवती के तीनों पात्रों की सामाजिक पृष्ठभूमि एक-दूसरे से कतई मेल नहीं खाती। प्रणव मध्यवर्गीय परिवार का तरुण है, डूंगर आदिवासी है और सुरेश छारा समुदाय का सदस्य है। प्रणव की हिंसा में हिस्सेदारी एक इच्छुक दर्शक की है जो 2002 में लूटमार में अपने साथियों के संग शामिल होता है। डूंगर में राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा है जो उसे विश्व हिन्दू परिषद् की ओर ले जाती है और उसकी संगठन क्षमता से प्रभावित होकर उसे नेतृत्वकारी भूमिका दी जाती है। तीनों में सबसे गई गुज़री माली हालत सुरेश लंगडू की है।
विडम्बनापूर्ण ढंग से सुरेश लंगडू की कहानी दिलचस्प है क्योंकि वह एक मुसलमान लड़की फरजाना से शादी करता है और उसके साथ रिश्ता रखते हुए मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा में शरीक होता है।
तीनों के साथ हिंसा के बाद क्या होता है प्रणव अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद संयोगवश ऐसे संगठन के साथ कम करने का मौक़ा पाता है जो उसी हिंसा के शिकार लोगों का पुनर्वास कर रहा है। उसे सबसे अधिक मौक़ा मिलता है कि वह अपने पूर्वाग्रहों पर सोच सके। उसके साथ ही उसे इस तीनों पात्रों में सबसे अधिक मानवीय हालात भी मिलते हैं और ऐसे मित्र जो उसे सोचने को प्रेरित कर सकें। वह न सिर्फ़ बहुसंख्यकवादी विचारधारा का विरोधी बना जाता है, बल्कि धर्म मात्र से उसे चिढ़ हो जाती है। डूंगर में यह समझ आती है कि वह दरअसल जिस हिंसा में शामिल था वह एक राजनीतिक परियोजना थी लेकिन उसका रवैय्या उपयोगितावादी ही अधिक रहता है। सुरेश इस दलदल में धँसता चला जाता है। इन तीनों में हिंसा सबसे अधिक उसे अपना चारा बनाती है। इन तीनों की आर्थिक स्थितियों में भी जो क्रमिक अंतर है, वह शायद उनकी नियति की व्याख्या कर सके।
- हिंसा सुरेश का पीछा नहीं छोड़ती और फरजाना उससे अलग अपनी ज़िंदगी वापस जीना शुरू करती है। क्या सुरेश की सामजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि इसके लिए ज़िम्मेवार है क्या प्रणव जैसे हालात उसे मिले होते तो वह अपनी हिंसा को देख और समझ पाता
ये तीन चरित्र ज़ाहिरा तौर पर 2002 की हिंसा में शरीक लोगों के प्रतिनिधि नहीं हैं। इनमें से कोई भी मुसलमान विरोधी हिंसा को शुरू करने का फ़ैसला करनेवालों में भी नहीं है। फिर भी इन तीनों की ज़िंदगियों का जो रिकॉर्ड रेवती पेश करती हैं वह यह समझने में हमारी मदद करता है कि एक हिंसक विचारधारा नितांत भिन्न पृष्ठभूमि के लोगों को किस तरह अपनी चपेट में ले सकती है और किस तरह उन्हें अपना माध्यम बना सकती है।
क्या हिंसक चरित्र बदल सकते हैं
इस सवाल का उत्तर इस किताब में इस तरह है कि हिंसा के वैकल्पिक विचार के अभ्यास को वास्तविक रूप से दीखना होगा। हिंसा उसे निष्क्रिय कर सकती है लेकिन यही तो चुनौती है। प्रणव को यह अभ्यास दीखा और उसे उसमें हिस्सा लेने का मौक़ा भी मिला। यह और अधिक कैसे हो सकता है। यह भी कि हिंसाजनित अपराध के न्याय को अवरुद्ध किए बिना क्या यह संभव है ये प्रश्न इस किताब के बाद के हैं। इनका उत्तर रेवती नहीं देतीं। लेकिन इस किताब का मूल्य इसमें है कि भारत में समूह जनित और समूह को निशाना बनानेवाली हिंसा के अध्ययन के लिए यह ज़रूरी सवाल उठाती है और अध्येताओं और पाठकों का ध्यान हिंसा के शिकार लोगों से हटा कर हिंसक लोगों तक ले जाती है। हिंसा का कारण तभी मालूम भी हो सकता है। वे हैं जिन्हें बदलना है इसलिए समझना भी उन्हें ज़्यादा ज़रूरी है।