गुजरात के इस नरसंहार का गुनहगार खोजने में संकोच दिखाया जा रहा है। ध्यान लगातार भ्रमित किए जा रहे हैं। इस काम में सत्ताधारी पार्टी और उसकी पोषित मीडिया सम्मिलित रूप से लगी दिख रही है। इसे समझने के लिए कुछ कुतर्कों पर ध्यान दें- कुछ शरारती युवक झूले को हिला रहे थे। (ये कैसे शरारती थे कि उन्हें अपनी जान भी प्यारी नहीं लगी!)। आम आदमी पार्टी ने गुजरात में कुछ बड़ी घटना होने का अंदेशा ट्वीट के जरिए जताया था। सो, कहीं साजिश तो नहीं! (साजिश भी है तो क्या सरकार सो रही थी?) । घटना को लेकर सरकार संवेदशील है।
जो गुजर गये वो थे या जो जिन्दा हैं उनमें हैं शरारती तत्व
क्या इतने बड़े नरसंहार के लिए उन शरारती तत्वों को जिम्मेदार ठहराया जाए जो खुद अब इस दुनिया में नहीं हैं? क्या असली गुनहगारों को बचाने का यह अक्षम्य गुनाह नहीं है? अगर चुनावी राजनीति में आम आदमी पार्टी ने कुछ ट्वीट किया है और वह साजिश है तो डबल इंजन की डबल सरकारें क्या सो रही हैं? असल में शरारती तत्व कौन हैं जो गुजर गये या जो अब भी जीवित हैं और शरारत कर रहे हैं?मोरबी की घटना को लेकर सरकार की संवेदनशीलता को समझना हो तो कतिपय सवालों पर गौर करें-
- दर्ज एफआईआर में ओरैवा कंपनी के मालिक तक का नाम नहीं है जिसने बगैर सुरक्षा सर्टिफिकेट लिए झूलते पुल का उद्घाटन किया?
- नगरपालिका के पदाधिकारियों के खिलाफ भी केस दर्ज नहीं है जिन्होंने यह सब होने दिया?
- टिकट हासिल कर झूलते पुल पर जाने वाले गुनहगार हो गये लेकिन टिकट बांटने वाली कंपनी जिम्मेदार क्यों नहीं?
- टिकट कलेक्टर तो बस किसी के हुक्म पर टिकट वितरण करता है, वह कैसे जिम्मेदार हुआ?
- सिक्योरिटी गार्ड को कैसे गुनहगार मान लिया जाए? जब क्षमता 100 की होगी और टिकट 675 बेचे जाएंगे तो सिक्योरिटी गार्ड अनहोनी को कैसे रोकेगा?
मच्छरमार कंपनी को पुल के जीर्णोद्धार का काम!
घड़ी, सीएफएल बल्ब और मच्छरमार रैकेट बेचने वाली ओरैवा कंपनी के पास झूलते पुल बनाने का कोई अनुभव नहीं था। पुल के जीर्णोद्धार का कोई टेंडर नहीं हुआ। कंपनी ने पुल का जीर्णोद्धार अपने मन से पूरा मान लिया। किसी ने पुल के सुरक्षित होने का सर्टिफिकेट जारी नहीं किया। फिर भी समारोहपूर्वक (छिपछिपाकर नहीं) झूलते पुल को सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए 26 अक्टूबर को खोल दिया गया। इसका मतलब यह है कि गुजरात चुनाव के लिए नरेंद्र मोदी के आखिरी दौरे से पहले झूलते पुल को चालू कर देने की व्यग्रता थी! इस पूरी प्रक्रिया में ओरेवा कंपनी, स्थानीय नगरपालिका, जिला प्रशासन और प्रदेश व केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय से लेकर पूरी गुजरात सरकार शामिल थी।
कपड़े बदलते रहे, समारोह करते रहे पीएम मोदीः देर शाम घटना घटी और अगली सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक और पर्यटन स्थल स्टैच्यू फॉर यूनिटी पहुंच गये। सरदार वल्लभ भाई पटेल को स्मरण किया। चाहे सरदार वल्लभ भाई पटेल को श्रद्धांजलि देना हो या फिर मोरवी की घटना में मारे गये लोगों की आत्मा की शांति के लिए संवेदना प्रकट करनी हो- क्या रंगीन टोपी पहनकर ऐसा करने की परंपरा है? हिन्दुत्व की परंपरा तो ऐसे मौके पर श्वेत वस्त्र धारण करने की रही है। बात यहीं खत्म नहीं होती। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चार ट्रेनों की शुरूआत भी की। हरी झंडी दिखलाई। यहां भी वे अलग किस्म के ड्रेस में दिखाई पड़े। एक अन्य समारोह में वे किसी और ड्रेस में थे। आखिर यह कैसा शोक है कि समारोह भी नहीं रुकेंगे और समारोह रंगहीन भी नहीं रहेगा? संवेदनशीलता को दिखाने के लिए वक्तव्य के जरिए आंखों में आंसू और शब्दों की रवानगी में समय-समय पर ठहराव और भाव-भंगिमा में रोने का भाव...प्रधानमंत्री को दिखाना पड़ा।
मोरबी में मोदी के स्वागत में अस्पताल चकाचक
मोरबी जाने का कार्यक्रम तक तय नहीं हुआ। अब 1 नवंबर को यह कार्यक्रम बना है तो उससे पहले उस अस्पताल में जहां मोरबी में जीवित बचे लोगों का इलाज चल रहा है, रंग-रोगन और साफ-सफाई युद्ध-स्तर पर शुरू कर दिया गया है। क्या इस औपचारिकता की आवश्यकता थी? प्रधानमंत्री मोदी समेत पूरी बीजेपी और मीडिया का एक वर्ग इस बात पर जोर दे रहा है कि घटना की जांच के लिए उच्चस्तरीय जांच का फैसला लिया जा चुका है। जब एफआईआर दर्ज करते वक्त गुनहगारों की गर्दन पकड़ी नहीं जा पा रही है तो एक बार मामला ठंडा हो जाने के बाद क्या वे किसी जांच के दायरे में आ पाएंगे?कौन हैं मोरबी के गुनहगार?
गुजरात के सबसे बड़े मोरबी नरसंहार का जिम्मेदार कोई टिकट वितरक, गार्ड, प्रबंधक भर कैसे हो सकता है जबकि इस घटना की प्रकृति ही बता रही है कि व्यवस्था में भ्रष्टाचार और सत्ताधीशों से मिलीभगत ही गुनाह की असली वजह है?कहना बहुत आसान होता है कि विपक्ष राजनीति कर रहा है। मगर, मोरबी की घटना में क्या मीडिया राजनीति नहीं कर रही है, क्या सत्ताधारी दल राजनीति नहीं कर रहा है? जब मोरबी की घटना ब्रेक हो रही थी तब की गोदी मीडिया की क्लिपिंग उठाकर देख लीजिए। डेढ़ सो लोगों के पुल से गिरने और सबके सब को बचा लेने की खबर दी जा रही थी। राहत और बचाव कार्य की प्रशंसा के गीत गाए जा रहे थे। आशंका जतायी जा रही थी कि चुनाव के वक्त हादसा चूकि गुजरात में हुआ है इसलिए विपक्ष इस पर राजनीति करेगा! पत्रकारों को राजनीति करते टीवी पर स्पष्ट रूप से देखा गया।गुजरात के सबसे बड़े नरसंहार पर राजनीतिक दलों को राजनीति जरूर करनी चाहिए और तब तक करनी चाहिए जब तक कि यह संदेश स्पष्ट ना हो जाए कि गुनहगार चाहे जितना ताकतवर क्यों न हो वे बच नहीं सकते। यही उन लोगों को श्रद्धांजलि हो सकती है जो इस सामूहिक नरसंहार का शिकार हुए हैं।